Friday 31 August 2018

प्रश्न - *मूल्यों के आधार पर शिक्षण कला कैसे विकसित करें? स्कूल को ही श्रेष्ठ मानव निर्माण की फैक्ट्री कैसे बनाएं। आजके आधुनिकता में प्राचीन गुणवत्ता कैसे मिलाएं?*

प्रश्न - *मूल्यों के आधार पर शिक्षण कला कैसे विकसित करें? स्कूल को ही श्रेष्ठ मानव निर्माण की फैक्ट्री कैसे बनाएं। आजके आधुनिकता में प्राचीन गुणवत्ता कैसे मिलाएं?*

उत्तर - हमारी मनोवृत्ति का निर्माण हमारे जीवन, हमारे आचरण के अनुरूप ही होता है। हमारे जीवन तथा आचरण का मूल आधार है हमारी शिक्षा। कहा गया है “जैसा खावे अन्न वैसा बने मन।” यहाँ पर अन्न का अर्थ भोजन है, जो शारीरिक और मानसिक दोनों ही प्रकार का होता है। जैसे मिले विचार वैसे बने आचार, यहां आचार का अर्थ आचरण और चरित्र से है। अतः बच्चों को जो भी विचार हम परोस रहे है वो बहुत ही उपयोगी और मूल्यपरक होने चाहिए। इसलिए यह सिद्ध होता है कि आजकल मानव समाज में जो तरह-तरह के छोटे-बड़े दोष दिखलाई पड़ रहे हैं उनका मूल हमारी शिक्षा ही है।

आजकल हर जगह शिक्षा प्रसार की नई-नई योजनाएं बन रही हैं। हमारी राष्ट्रीय सरकार इस बात की घोषणा कर चुकी है कि वह शीघ्र ही देश से निरक्षरता को मिटा देगी। परन्तु विचार यह करना है कि हमारी वर्तमान शिक्षा प्रणाली कैसी है और वह किस प्रकार के जीवन का निर्माण कर रही है तथा हमारी शिक्षा वास्तव में कैसी होनी चाहिए।

हमारी वर्तमान शिक्षा पद्धति को सात आततायी या शत्रु बुरी तरह से जकड़े हुए हैं। मस्तिष्क, दण्ड, परीक्षा, कुरूप भवन, अत्यधिक कार्य, स्वाभिमान रहित अध्यापक तथा संकुचित मनोवृत्ति के माता-पिता। बेचारे विद्यार्थी को इतनी अधिक पुस्तकें पढ़नी पड़ती हैं, इतने प्रकार के विषयों का अध्ययन करना पड़ता है कि उनका दिमाग, शरीर और मन सब कुछ बुरी तरह से पिस जाता है। भाँति-भाँति के दण्ड और हर समय प्रस्तुत परीक्षाओं का भय उसे खाये जाता है। सिवाय पढ़ने और पढ़कर परीक्षा पास करने के वह कुछ और सोच ही नहीं सकता। गन्दे और तंग मकानों में गन्दे टाटों या गन्दी और भद्दी मेज-कुर्सियों पर बैठकर उसे पढ़ना पड़ता है,  या आलीशान रूम और सुंदर कुर्सियों में पढ़ने हेतु अत्यधिक मूल्य देना पड़ता है। लेकिन सुंदर आलीशान भवन हो या तंग-गन्दा भवन पढ़ने लिए, दोनों ही सूरत में बंद कमरा ही है, बच्चो के लिए स्वच्छ वायुमण्डल और खुली प्राकृतिक हवा एक दुर्लभ पदार्थ है। स्कूल में पढ़ाने वाले मास्टर विद्यार्थी को केवल इसलिए पढ़ाते हैं कि उसकी नौकरी बनी रहे, 90% अध्यापक गण को बच्चे के भले-बुरे भविष्य से उन्हें कोई मतलब नहीं। वे हमेशा अपने ट्यूशन की चिन्ता में लगे रहते हैं और धन कमाने के लालच में अपने स्वाभिमान, गुरुत्व और शिक्षक पदवी के महत्व को गंवा बैठते हैं। विद्यालय के बाहर घर पर भी विद्यार्थी का यही हाल रहता है? घर पर वह जब तक कम से कम चार घण्टे नित्य नियमपूर्वक न पढ़ें, तब तक अध्यापक द्वारा बताया घर पर किया जाने वाला काम पूरा नहीं होता और फिर इन सबके ऊपर है उस पर सवारा नौकरी का भूत। बालक को दिन-रात किताबों से चिपके देखकर माता-पिता को पूरा विश्वास हो जाता है कि उनकी साधना तथा बच्चे की तपस्या दोनों ही सफल है। बड़ा होने पर उसे अवश्य ही कोई अच्छी नौकरी मिल जायेगी। अच्छी नौकरी पाना ही जब सब प्रकार से जीवन का उद्देश्य हो जाय तो मानसिक विकास का प्रश्न ही कहाँ रहा? आजकल तो विद्या और नौकरी पर्यायवाची शब्द बन गये हैं। ऐसी हालत में प्रत्येक मनुष्य स्वार्थ-साधन में तल्लीन रहेगा, इसके सिवाय उससे और किस बात की आशा की जा सकती है? ऐसा व्यक्ति समाज के कल्याण की ओर क्या ध्यान दे सकता है?

*देश में शिक्षा को समाज सेवा और राष्ट्र सेवा समझ के करने वाले शिक्षक 10% अल्पसंख्यक ही हैं, ऐसे शिक्षकों का सान्निध्य जिन भाग्यशाली बच्चो को मिलता है वो महामानव-देवमानव बनते है।* जो स्वेच्छा से सेवा करने शिक्षा के क्षेत्र में आये हों। नहीं तो अधिकतर 90% कमाकर घर चलाने हेतु मजबूरी में शिक्षक बनते है, ऐसे शिक्षकों के सान्निध्य में पढ़ने वाले मात्र संवेदनहीन पढ़े लिखे रोबोट बनते हैं।

तो सबसे पहले शिक्षकों को शिक्षक रूपी महान जिम्मेदारी का अहसास करवाना, उनके भीतर शिक्षण के प्रति महान उत्तदायित्व को जगाना अनिवार्य है। सैनिक, कानून और पुलिस अपराधी को दण्ड दे सकते हैं सुधार नहीं सकते। लेकिन शिक्षक अपराध को मिटा सकता है।

डॉक्टर की गलती कब्र में दब जाएगी, इंजीनियर की गलती से कुछ जाने जाएंगी। लेकिन शिक्षक की गलतियां जीवंत इंसानों के रूप में भयंकर तबाही मचाएगी। अतः शिक्षक से महत्त्वपूर्ण और कठिन कोई अन्य पद नहीं।

*आजकल हमारी शिक्षा की व्यवस्था वास्तव में बहुत दोषयुक्त हो गई है। इसको मिटाकर हमें ऐसी शिक्षा-दीक्षा का विधान करना होगा जो हमें स्वयं अपने ऊपर विजय प्राप्त कर सकने में समर्थ बना सके। ज्ञान का अन्तिम लक्ष्य चरित्र निर्माण ही होना चाहिये। इसलिए हमारी शिक्षा को तीन भागों में विभाजित किया जाना चाहिए-शारीरिक शिक्षा, मानसिक शिक्षा और आध्यात्मिक शिक्षा। हम स्वस्थ हों, हमारे स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मस्तिष्क हो और हमारा स्वस्थ मन जीवन के स्वास्थ्य पर विचार कर सकने में समर्थ हो।* संक्षेप में हमारा आशय यही हैं कि शिक्षा के द्वारा हमारा समाज सचमुच स्वस्थ बने। *स्वस्थ शरीर, स्वच्छ मन और सभ्य समाज इसका निर्माण करे शिक्षा व्यवस्था*।

👉🏼1- *शारीरिक शिक्षा का ध्येय शरीर की सुव्यवस्था और रक्षा होना चाहिए। इसमें बतलाया जाय कि हम कब कितना खायें, कब कितना सोयें, कब और कितना तथा किस प्रकार अपना मनोरंजन करें, कब कितना और किस प्रकार व्यायाम करें। मनोरंजन तथा व्यायाम की शिक्षा व्यक्तिगत और सामूहिक दोनों रूपों में दी जानी चाहिए, ताकि हमारे भीतर सहयोग की भावना का विकास हो और हम समाज में मिलकर काम करना सीखें।योग-ध्यान-व्यायाम शिक्षण का अनिवार्य अंग हो।*

👉🏼2- *मानसिक शिक्षा का उद्देश्य है हमारे दिमाग का उचित रीति से विकास होना। इसका अर्थ यह नहीं है कि हम केवल अपनी पाठ्य पुस्तकों तथा अन्य पुस्तकों को भली प्रकार समझकर याद कर सकें। वरन् इसका उद्देश्य यह है कि हम अपने शरीर-रक्षा की विधि को जानकर तद्नुकूल आचरण करें। हम में सेवा भाव उत्पन्न हो, हमारे हृदय में बन्धुभाव जागृत हो, हम नई बात जानने को उत्सुक हों और निरन्तर अपनी ज्ञान वृद्धि करते रहें। हम में कार्य क्षमता आवे और हम में भले बुरे का विवेक उत्पन्न हो। नई नई तकनीक देश और समाज की उन्नति और मनुष्य जीवन को आसान बनाने हेतु सीखें।*

👉🏼3- *आध्यात्मिक शिक्षा का उद्देश्य यह है कि हम में सम्मान तथा आदर का भाव उत्पन्न हो, अपने आस-पास वालों के प्रति बन्धुत्व की भावना का उदय हो और दया तथा करुणा के भावों की वृद्धि हो।भावनाओ के बिना मनुष्य मंन्त्र एक जिंदा लाश रोबोट/जॉम्बी है।*

मनुष्य में जब तक अपनी राष्ट्रीय, धार्मिक, जातीय, सामाजिक और पारिवारिक मान्यताओं अथवा परम्पराओं के प्रति समान बुद्धि नहीं होगी तब तक व्यक्तिगत अथवा सामूहिक उन्नति की आशा दुराशा मात्र है। मानुषी और दैवी कार्यों की महत्ता के सम्मुख भी हमको नतमस्तक होना चाहिये। वयोवृद्ध जनों का सम्मान तथा दुर्बल और बालकों को अपना वरद्हस्त प्रदान करना हमारा कर्तव्य है। सद्गुणों और सद्व्यवहारों के प्रति भी हमको श्रद्धा का भाव रखना आवश्यक है, क्योंकि ये सब मनुष्यत्व के चिन्ह हैं।

शिक्षा का यह भी प्रभाव होना चाहिये कि हम विश्व के प्रत्येक पदार्थ में अपने स्वरूप आदर्श न पावें तथा उसके प्रति प्रेम भाव रखें। प्रत्येक जाति, प्रत्येक समुदाय, प्रत्येक धर्म तथा प्रत्येक राष्ट्र के लिए हमारे हृदय में प्रेम का भाव हो। हम किसी को न तो बुरे समझें न किसी से घृणा करें। सबको अपने ही समान स्वाभिमानी समझें। हमारी शिक्षा हमें इस योग्य बनावे कि हम प्रत्येक बात को निष्पक्ष भाव से समझ सकें। अपने निजी विचारों के अनुरूप अपनी धारणाएं निर्धारित कर सकें। सिद्धान्त के पीछे मर मिटने को तैयार हो जायें। हमारी आत्मा इतनी शक्तिशाली हो कि हम समाज-द्रोहियों का खुलकर विरोध कर सकें। बुरे को बुरा न कह सकना हमारी नैतिक निर्बलता का परिचायक है। जब तक व्यक्ति की अपेक्षा सिद्धान्त की महत्ता स्वीकार न की जायगी तब तक बन्धुत्व की भावना दूर का स्वप्न है।

आध्यात्मिक शिक्षा का एक परिणाम यह भी होना चाहिए कि हमारे अन्दर संसार के सभी असहाय, निरुपाय, दलित, पीड़ित, शोषित, दुखी, निर्धन व्यक्तियों के प्रति दया एवं करुणा के भाव हों। क्रोध और घृणा के पात्र न समझकर हम उनके प्रति दया रखें। निर्धन और दुखी होना एक दुर्भाग्य है और उसके साथ हमारी उदारता का संयोग होना ही उचित है। इतना ही नहीं हम दीन दुखियों पर दया करके ही रह जायें, वरन् परिस्थिति तथा अपनी शक्ति के अनुसार उनके दुःख दर्द में हाथ बंटाना भी आवश्यक है।

साराँश यही है कि हमारी शिक्षा केवल कामचलाऊ वस्तु न हो, वह केवल परीक्षा पास करने और आर्थिक रूप से कमाने का माध्यम केवल न हो, वरन् हमें भली प्रकार जीवन जीना सिखाये, जीवन प्रबंधन सिखाये। विद्या वही है जो हमें इस दुनिया की चिन्ता से मुक्त करके हमारी जीवन नैया को भवसागर से पार लगाने में समर्थ हो-’स विद्या या विमुक्तये।’

ऐसी मूल्यों आधारित शिक्षा व्यवस्था का प्रारूप, देव संस्कृति विश्वविद्यालय हरिद्वार और प्रज्ञा विद्यापीठ स्कूल में देखने जरूर जाएं। और यह प्रारूप अपने स्कूल, कॉलेज, यूनिवर्सिटी में लागू करवाएं।

🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन

सन्दर्भ - http:// literature .awgp. org/akhandjyoti/1958/February/v2.19

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