Tuesday 30 June 2020

निर्णय आपका! करोगे चुनाव किसका? होश या बेहोशी?*

*निर्णय आपका! करोगे चुनाव किसका? होश या बेहोशी?*

दो प्रबल आकर्षण(चुम्बकत्व) - पशु व  महामानव के बीच हम खड़े हैं, दोनों हमें अपनी ओर खींच रहे हैं। एक ओर सांसारिक इच्छाओं व वासनाओं का कीचड़ व मौज-मस्ती की दलदल है, दूसरी ओर अध्यात्म का वैभव व सुकून शांति है। किस ओर जाओगे? यह हमें ही तय करना है.. चुनाव तो करना पड़ेगा...

नशीले द्रव्य व लापरवाह ज़िन्दगी में इंसान से पशु बनाने में सहायक हैं। जब तक नशे में हो पशुवत विवेकहीन हो। न पशु को चिंता होती है वैसे बेहोशी में तुम भी चिंता न कर सकोगे। यह आसान है, पहाड़ से गिरने की तरह।

गायत्रीमंत्र जप व ध्यान जिंदगी में इंसान से महामानव बनाने में सहायक है। जब तक ध्यान से होशपूर्वक हो विवेकयुक्त हो। प्रत्येक समस्या के समाधान उभरेंगे। चिंता यहां भी न होगी। केवल शांत चित्त से चिंतन कर सकोगे। यह थोड़ा कठिन है, पहाड़ चढ़ने की तरह।

केवल इंसान रूप में ही चिंता है, तनाव है, परेशानी का अनुभव है। न पशुवत  बेहोशी में चिंता रहेगी और न हीं महामानव होशपूर्वक अवस्था में चिंता बचेगी।

नशा व बेहोशी समस्या को कुछ क्षण भुला देगा, मग़र नशा उतरते ही समस्या जहां थी वहीं मिलेगी।

मंत्रजप व ध्यान में होशपूर्वक किया चिंतन  समस्या को सुलझा देगा।

वोटिंग का समय है, चयन कर लो।

💐श्वेता, DIYA

Monday 29 June 2020

युवा कौन?

*युवा कौन?*

उत्साह उमंग भरा जिसका मन हो,
कुछ कर गुज़रने की जिसके मन में लगन हो,
स्वनिर्माण में जो जुटा हो,
वही युवा है, वही युवा है।

जो माता का गौरव बनना चाहे,
जो राष्ट्र का गौरव बढाना चाहे,
जो अपने जन्म को सार्थक करने में जुटा हो,
वही युवा है, वही युवा है।

जो अपने पैरों पर खड़ा हो,
जो अपने जीवन लक्ष्य पर अड़ा हो,
जो प्रारब्ध से भी न डरता हो,
वही युवा है, वही युवा है।

तथ्य तर्क प्रमाण आधारित जो बात करे,
बोलने से पहले भली प्रकार विचार करे,
जिसका स्वयं की बोली पर नियंत्रण हो,
वही युवा है, वही युवा है।

स्वस्थ शरीर हेतु जो नित्य योग-व्यायाम करें,
स्वस्थ मन हेतु जो नित्य ध्यान-स्वाध्याय करे,
जो निज आत्मबल बढाने में जुटा हो,
वही युवा है, वही युवा है।

जो धारा के विरुद्ध तैर सके,
जो तूफानों में भी भय रहित रहे,
जिसका साहस व पुरुषार्थ अप्रतिम हो,
वही युवा है, वही युवा है।

जो अनवरत लक्ष्य प्राप्ति हेतु चलता रहे,
जो निर्बलों को को संरक्षण दे सके,
जो समर्थ लोकसेवी हो,
वही युवा है, वही युवा है।

जो अनीति से लोहा ले सके,
जो अनीति का नाश करे,
जो सत्य मार्ग पर दृढ़ता से चल सके,
वही युवा है, वही युवा है।

जो नशे का ग़ुलाम न बने,
जो किसी के बहकावे में न आये,
जो स्वयं का भला-बुरा समझ सके,
वही युवा है, वही युवा है।

🙏🏻श्वेता, DIYA

युवा परजीवी नहीं होता

*युवा परजीवी नहीं होता, वह स्वयं के वजूद के निर्माण में जुटता है। आर्थिक रूप से भी आत्मनिर्भर बनता है और यश-कीर्ति अर्जन में भी आत्मनिर्भर बनता है।*
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जो अपनी सही आत्मसमीक्षा करेगा व अपनी योग्यता आंकेगा, वो दूसरे से ईर्ष्या नहीं करेगा, अपितु अपनी योग्यता बढाने पर विचार करेगा।
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खुद से प्रश्न करें - क्या मैं अपने माता पिता को गौरवान्वित होने की कोई वजह दे रहा हूँ? क्या मैंने अपना जन्म सार्थक किया?
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पिता के सम्मान को परजीवी कीड़े की भांति खाते रहना व महानता के भ्रम में अधिक उम्र का होकर जीना उचित नहीं, युवा को स्वयं के वजूद के आधार बात करनी चाहिए।
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युवा वही है जो आत्मनिर्भर हो, जिसको उसके नाम से लोग पहचाने, पिता व माता के नाम को आगे बढ़ाये, अपना एक वजूद बनाये।
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अधिक उम्र का होने पर पिता को कमाई देनी चाहिए न कि उसकी कमाई खानी चाहिए, इसी तरह अधिक उम्र में पिता का यश बढ़ाना चाहिए, न कि उनके यश पर आश्रित होकर जीना चाहिए। पिता यदि महान है तो उसके आदर्श को अपनाते हुए उसे अपना व्यक्तित्व गुरु मानकर स्वयं को उसके जैसा महान बनाने में जुट पड़ना चाहिए। पिता से ईर्ष्या नहीं करनी चाहिए।
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प्रारब्ध कहो या किस्मत, वह बेचारा मात्र परिस्थितियों व सुअवसर का निर्माण कर सकता है या विपरीत परिस्थितियों या कुअवसर का निर्माण कर सकता। लेकिन आपने देखा होगा कि एक ही परिस्थति में कोई सफ़लता के नए आयाम बनाता है और कोई स्वयं ही टूटकर बिखर जाता है।
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याद रखिये, भाग्य पुरुषार्थी व्यक्ति के सुअवसर के मिलन को कहते हैं। दुर्भाग्य सुअवसर के आलसी व्यक्ति के पास से गुजरने को कहते हैं।
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प्रारब्ध पुरुषार्थी व्यक्ति को परास्त नहीं कर सकता।
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 उत्साह, उमंग, पुरुषार्थ व बुद्धिबल से भरे जुझारू व्यक्तित्व को युवा कहते हैं।

🙏🏻श्वेता, DIYA

Saturday 27 June 2020

दिया ऊपर प्रकाश व दिया तले अँधेरा

*दिया ऊपर प्रकाश व दिया तले अँधेरा*
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एक टीचर को दूसरे के बच्चों को पढ़ाने व ज्ञानवान बनाने में दिक़्क़त उतनी नहीं होती जितना उसे स्वयं के बच्चे को पढ़ाने व सम्हालने में होती है। टीचर के रूप में कही जिन बातों का महत्त्व विद्यार्थी पर पड़ता है, जरूरी नहीं वही महत्त्व बच्चे पर पड़े।

एक आध्यात्मिक गुरु जो लोगों के जीवन में अध्यात्म का प्रकाश लाकर अँधेरा दूर करता है, लाखों फ़ॉलोअर हों, लाखों लोग उसको अपना आदर्श मानते हों। मग़र हो सकता है कि उसकी सन्तान व उसका जीवनसाथी उसे अपना न आदर्श माने। उसकी सलाह की अवहेलना करे।

ऐसे में हैरान- परेशान होने की जरूरत नहीं है। यह विचार भी मन में लाने की जरूरत नहीं कि लोग क्या कहेंगे कि अपने घरवालों को तो सुधार नहीं पाए और बाहरवालों को ज्ञान बाँट रहे हैं। ऐसा कुछ भी नहीं है, सूर्य उदय होता है तो उसकी रौशनी उसी घर में प्रवेश कर पाती है जिसके खिड़की दरवाज़े खुले हों। किसी व्यक्ति के ज्ञान का प्रकाश किसी अन्य व्यक्ति के हृदय तक तभी पहुंचेगा जब वह अपने हृदय के खिड़की दरवाज़े खोलेगा। घर के सदस्य तभी ज्ञान से आलोकित होंगे जब वह अपने हृदय शिष्य की तरह अपने घर मे विद्यमान सत्ता के लिए खोलेंगे।

देवत्व व असुरत्व युक्त प्रवृत्तियां एक ही घर के सदस्य हो सकते हैं। यदि असुरत्व अत्यधिक अपराध के स्तर का है तो उसका सर्वथा त्याग उचित है।

तुलसीदास जी कहते हैं:-
*जाके प्रिय न राम वैदेही*,
*तजिये ताहि कोटि वैरी सम*,
*जद्यपि परम स्नेही।*

देवता वह है जो जन जन की पीड़ा दूर  करे। पर सेवा में ही सुख समझें। लोककल्याण में निरत रहे।

असुर वह है जो जन जन को पीड़ा   दे, उन्हें तड़फाये। पर पीड़ा को सुख समझें। लूटपाट व दूसरों को दुःख पहुंचाने में निरत रहे।

यदि कोई घोर अपराधी व असुर प्रवृत्ति का है व न स्वयं धर्म मार्ग पर है और न ही धर्म का पालन आपको करने दे रहा है। आपको व समाज को पके फ़ोड़े की तरह पीड़ा दे रहा है। ऐसे परपीड़ा में सुख लेने वाले असुर का त्याग कर देना चाहिए। वह पति रूप में हो या पत्नी रूप में हो उससे कानून तलाक़ व उसका सर्वथा त्याग उचित है। वह पुत्र हो या पुत्री उसका त्याग व उसका निष्कासन सर्वथा उचित है।

दिया तले अंधेरा होने से उसके प्रकाश के महत्त्व को कम कभी नहीं आँका जाता। इसी तरह आप एक स्वतंत्र आत्मा हैं, यदि आपके घर में कोई असुर प्रवृत्ति अपराधी है तो इससे आपका महत्त्व कम नहीं होता। यदि उसे सुधारने के आपके प्रयत्न विफ़ल रहे तो भी आपका महत्त्व कम नहीं होता।

जलन्धर राक्षस की पत्नी तुलसी से तपस्वी व पवित्र कोई संसार में नहीं था। उसके तपबल से जलन्धर अजेय था व लोगों पर अत्याचार करता था। तुलसी सदैव उसे धर्ममार्ग में लाने का प्रयत्न करती रहीं मग़र विफ़ल रहीं। तो इससे तुलसी का महत्त्व कम नहीं होता।

🙏🏻आप दिया हैं सूर्य की रौशनी को स्वयं में धारण किये हुए हैं। जन जन को प्रकाशित करने के लिए स्वयं तप की अगन में जल रहे हो। जो अंधे नहीं है वह आपके प्रकाशस्वरूप व्यक्तित्व के आगे नतमस्तक होंगे। जो स्वार्थ व मोह में अंधे हैं वह प्रकाश नहीं देख सकेंगे, उनकी दृष्टि दिया के ऊपर उसके प्रकाश की ओर नहीं होगी, उसके तल के अंधेरे पर केंद्रित होगी। तो ऐसे अंधों के कहने पर दिया बन जलने के कार्य को नहीं छोड़ना चाहिए। दिया बन प्रकाश फ़ैलाते रहना चाहिए, लोगों को राह दिखाते रहना चाहिए।🙏🏻


🙏🏻श्वेता, DIYA

Thursday 25 June 2020

अर्थी जीवन के अर्थ का बोध कराती है

*अर्थी जीवन के अर्थ का बोध कराती है*

प्रत्येक *मृतक की अर्थी*,
*जीवन का अर्थ* बताती है,
प्रत्येक *राम नाम सत्य का उच्चारण*,
*जीवन के सत्य का बोध* कराती है।

श्मशान की भूमि,
मन में वैराग्य जगाती है,
जलती चिताएं व उठता धुंआ,
इच्छाओं-वासनाओं को जलाती हैं।

मृतक शरीर के ढाँचे से,
चमड़ा पहले जलता है,
अस्थियों का ढाँचा,
फिर स्पष्ट दिखता है,
हड्डियां भी धीरे धीरे,
बिखरने लगती हैं,
एक मनुष्य की काया,
धीरे धीरे राख में बदलती है।

वह दृश्य,
मन में सत्य का,
बोध कराता है,
शरीर की नश्वरता का,
तथ्य तर्क व प्रमाण देता है,
मृत्यु के अटल का सिद्धांत,
प्रतिपादन करता है।

मृतक की तेरहवीं तक,
स्मृति में मन में वैराग्य दृढ़ रहता है,
मृतक की फ़ोटो पर,
एक ओर माला चढ़ता है,
दूसरी ओर,
हमारे चित्त पर,
माया का पर्दा डलता है।

धीरे धीरे श्मशान में जगा वैराग्य,
हमसे विदा ले लेता है,
मोह माया का फंदा,
हमें पुनः जकड़ लेता है।

रात गयी बात गयी,
अतीत धीरे धीरे भूलने लगता है,
मृत्यु का अटल सिद्धांत,
शनैः शनैः विस्मृत हो जाता है।

पुनः मन संसार में उलझ जाता है,
फ़िर आत्मउद्धार सब भूल जाता है,
परमात्मा भी उसे याद नहीं रहता है,
शरीर उद्धार में वो पुनः जुट जाता है,
कामनाओं-वासनाओं की पूर्ति में,
पशुवत आचरण व कार्य करता है।

🙏🏻श्वेता, DIYA

IQ (बुद्धिकुशलता) के साथ EQ (भावकुशलता) भी अति आवश्यक है।

*IQ (बुद्धिकुशलता) के साथ EQ (भावकुशलता) भी अति आवश्यक है।*

भावनाएं बुद्धि को ग़ुलाम बनाती है,
भावनाएं ही कर्म का उद्देश्य बताती हैं,
प्रत्येक कर्म का बीज भावनाओं में छिपा है,
कर्मफ़ल का सिद्धांत भावनाओं से जुड़ा है।

बुद्धिकुशलता को बढाने के लिए,
कई स्कूल-कॉलेज खुले हैं,
लेकिन सही भावनाओं के विकास पर,
आज किसी का ध्यान नहीं है।

जब भावनाएं नहीं सम्हलती,
तब बुद्धिकुशल लोग भी,
राह भटक जाते हैं,
नशे के गर्त में डूब जाते हैं।

जब भावनाएं नहीं सम्हलती,
तब बुद्धिकुशल लोग भी,
किसी की हत्या करते हैं,
या स्वयं की ही आत्महत्या कर लेते हैं।

शिक्षक, चिकित्सक, वक़ील, इंजीनियर, पुलिस इत्यादि...
यदि इन बुद्धिकुशल लोगों की भावनाएं सही न हों तो,
ये जनजन को लूटते है,
जब इनकी भावनाएं सही होती हैं तो,
तो ये जन जन की सेवा में जुटते हैं।

बुद्धिकुशल हो और जिसके भाव उत्तम हो,
वही राष्ट्र उपयोगी बनता है,
वही परिवार का संरक्षक बनता है,
वही समाज का कल्याण करता है।

अतः अभिवावकों व शिक्षकों से,
युगऋषि यह आह्वाहन करते हैं,
अपने बच्चों की बुद्धिकुशलता के साथ साथ,
भाव की निर्मलता पर भी आवश्यक ध्यान दें,
बुद्धिविकास के साथ भावना के विकास को भी,
बराबर वरीयता दें, प्रधानता दें।

🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन

Wednesday 24 June 2020

जिन पति या पत्नी के अंदर स्व-बोध(आत्म-बोध) नहीं उन पर क्रोध नहीं, अपितु दया करो क्योंकि व बेचारे नहीं जानते कि वह असभ्य व जंगली हैं, व गंदगी से भरे हैं।

*जिन पति या पत्नी के अंदर स्व-बोध(आत्म-बोध) नहीं उन पर क्रोध नहीं, अपितु दया करो क्योंकि व बेचारे नहीं जानते कि वह असभ्य व जंगली हैं, व गंदगी से भरे हैं।*

जिनकी पत्नी या जिनके पति नित्य कलह व गाली गलौज करते हैं, उन्हें देखो व सोचो कि इन बेचारों के मन में कितनी गंदगी भरी है, जब भी मुंह खोलते हैं गंदगी ही बाहर निकलती है। फ़िर सोचो ऐसे विकृत मानसिकता के ये क्यों व कैसे बने? इनके माता-पिता क्या इनके जैसे ही हैं, उन्होंने जब यह छोटे थे तब इनके बाल मन  में यह विचारों का ज़हर भरा। जब यह बच्चे रूप में जन्में होंगे तो इनका मन कोरा व ख़ाली होगा, इनको घृणा करना, बात बात पर गाली देने का सँस्कार तो माता पिता व आसपास के समाज ने ही दिया होगा। यह बेचारे वही रेकॉर्ड बजायेंगे जो इनकी मेमोरी कार्ड में संस्कारों द्वारा रेकॉर्ड किया गया होगा। अब सोचो कि इनके संस्कारो का शुद्धिकरण कैसे किया जाय? इन्हें शुद्ध व निर्मल मन वाला कैसे बनाया जाय? ऐसा गहन चिंतन करेंगे तो घर में युद्ध नहीं होगा, अपितु उपचारपरक कदम उठेंगे।

तीन गुब्बारों में अलग अलग रँग का पानी भरो, पिन चुभोने पर सबके भीतर से वही रँग निकलेगा जो रँग भरा होगा।

ऐसे ही टकराव या समस्या में या कोई गलती हो जाने पर आपके पति या आपकी पत्नी मुँह खोलते ही वही शब्द संग्रह निकालेगी/निकालेगा जो उनके चित्त के गुब्बारों में माता-पिता द्वारा दिये संस्कारों द्वारा भरा होगा।

आपकी सन्तान भी आपके और वर्तमान समाज के दिये संस्कारो के शब्दों को ही तो चित्त के गुब्बारे में संग्रह कर रहा है। और आप किस प्रकार के शब्द संग्रह शालीन या गालीगलौज भरे बोलते हैं क्या यह माता-पिता द्वारा दिये सँस्कार पर निर्भर नहीं है।

जब तक स्वयं बोध सदगुरु की शरण मे आकर व जप-तप-स्वाध्याय से नहीं होता, तब तक शब्द संग्रह हम निज के बदल नहीं सकते। माता-पिता के दिये सँस्कार ही सर चढ़कर बोलेंगे, व हमें वैसा बोलने पर मजबूर करेंगे।

💐श्वेता, DIYA

कुत्ते को हड्डी खाते देख गुटखे को बनाया गया, इंसानी कुत्तों सी प्रवृत्ति वालों के लिए हड्डी के बारीक टुकड़ो के प्रयोग से गुटखा बनाया गया।

*कुत्ते को हड्डी खाते देख गुटखे को बनाया गया, इंसानी कुत्तों सी प्रवृत्ति वालों के लिए हड्डी के बारीक टुकड़ो के प्रयोग से गुटखा बनाया गया।*

कुत्ता सुखी हड्डी जब दांतो से खाता है, तो उसके मुँह में घाव बनता है व रक्त श्राव होता है, मूर्ख कुत्ता समझता है यह रक्त हड्डी से निकल रहा है।

इसी तरह गुटखा कम्पनियां गुटखे में बारीक छिपकली इत्यादि छोटे जीवों की बारीक हड्डियां मसाले में लपेटकर गुटखा में भर देती है। गुटखा खाने वाले के मुँह में यह हड्डियां घाव करती है और रक्त श्राव करती है। उन घावों में तम्बाकू व चुने से सनसनाहट सी होती है, उस दर्द को नशीला द्रव्य सर को घुमाकर समझने नहीं देता। मूर्ख कुत्ते की तरह मूर्ख गुटखा खाने वाले निज रक्त का स्वाद लेते हैं, स्वयं को ही घाव देते हैं। लेकिन जैसे कुत्ता हड्डी नहीं छोड़ पाता वैसे ही यह मूर्ख भी गुटखा नहीं छोड़ पाते।

कितना भी पढ़ा लिखा व्यक्ति हो, यदि एक बार निज रक्तपान की कुत्ते जैसे हड्डी के घाव से गुटखा खाने की आदत पड़ जाए, तो वह पशुवत प्रवृत्ति की आदत के आगे लाचार हो जाता है। उसके विवेक व आदत की लड़ाई में आदत जीत जाता है।

गुटखे खाने वाले को यदि यह मूर्खता छोड़नी है तो उसे जप-तप-ध्यान व स्वाध्याय के माध्यम से भीतर की पशुता समाप्त करनी होगी। देवत्व जगाना होगा। तभी वह आत्मबल प्राप्त कर सकेगा व नशा से मुक्त हो सकेगा।

💐श्वेता , DIYA

Tuesday 23 June 2020

प्रश्न - *मृतक भोज रीति है या कुरीति? मृतक भोज का औचित्य क्या है? क्या इससे मृतक को सद्गति मिलती है?*

प्रश्न -   *मृतक भोज रीति है या कुरीति? मृतक भोज का औचित्य क्या है? क्या इससे मृतक को सद्गति मिलती है?*

उत्तर - आत्मीय बहन, नकली फूलों से असली फूलों सी सुगंध नहीं आती। वैसे ही मात्र जन्म से ब्राह्मण नकली फूल की तरह हैं, इनको पूजना व इनसे मंत्रोच्चार घर में शुद्धि हेतु करवाना व इन्हें पूजकर भोजन करवाने से शुद्धि नहीं होती।

जिन व्यक्तियों से मृतक आत्मा को प्रेम नहीं उनके जमावड़े से व उन्हें भोजन करवाने से उसे सुखानुभूति नहीं होती। मृतक आत्मा मरने के बाद दस से 12 दिनों में केवल प्रियजन को देखना चाहते हैं, जो रक्तसम्बन्धी है या जिन्होंने जीते जी उन्हें सुख दिया हो।

गरुण पुराण व अन्य शास्त्रों के अनुसार आत्मा मृत्यु के बाद 10 दिनों तक घर में रहती है। 12 वें दिन प्रस्थान कर जाती है। 13 वें दिन के इष्टमित्रों के भोज लोग स्वेच्छिक रूप से करते हैं, तेरहवें दिन के मृतक भोज का कोई विवरण शास्त्रों में नहीं मिलता।

अतः दसवें दिन महाब्राह्मण जो मृतक के समस्त कर्म करता है, उन्हें भोजन करवाया जाता है। बारहवें दिन या तेरहवें दिन ब्राह्मणों जो तपस्वी हों, नित्य यज्ञ करते हों, गायत्री की तीनों संध्या में पूजन करते हों और लोककल्याण में जीवन खर्च कर रहे हों, जो संचय न करते हों। ऐसे ब्राह्मण जब घर में मंत्रोच्चार करते हैं तो इनकी कायिक ऊर्जा विषाद व नकारात्मक ऊर्जा नष्ट करती है। यह आत्मा से मौन सम्वाद करके उन्हें ज्ञान देकर आत्मा व उनके प्रियजन के शोक का नाश करते हैं।

ऊर्जा विज्ञान को पढ़ने वाले जानते हैं कि साधक तपस्वी सात्विक ऊर्जा का विकिरण करते हैं, जिससे आत्मा शांत व तृप्त होती है। उसे आगे मार्ग में जाने के लिए ऊर्जा मिलती है।

नकली ब्राह्मण और जो साधना नहीं करता वह नकली पुष्प की तरह होता है, सकारात्मक ऊर्जा के विकिरण में अक्षम होता है।

जैसे डॉक्टर का बेटा मात्र डॉक्टर के घर में जन्म लेने मात्र से डॉक्टर नहीं बनता। वैसे ही ब्राह्मण एक ऊर्जावान आत्मप्रकाशित ब्रह्म में रमने वाला लोकसेवी व्यक्ति होता है। उसकी उपस्थिति शोक का नाश करती है। केवल जन्मने से कोई ब्राह्मण नहीं बनता, ब्राह्मण बनने के लिए ब्राह्मणोचित कर्म करके साधक बनना होता है।

नकली ब्राह्मण व मृतक आत्मा से नकली प्रेम प्रदर्शित करने वालों को भोजन करवाने का कोई फ़ायदा नहीं। यह मात्र धन का अपव्यव है।

तेरहवीं का मृतक भोज इष्ट मित्रों को करवाने का विवरण किसी शास्त्र में वर्णन नहीं है, अतः यह रूढ़िवादी परम्परा कही जाएगी। इसका कोई फायदा नहीं है।

जिसने मृतक आत्मा की कभी कोई सहायता नहीं की, वह उसे प्रिय नहीं था। ऐसा व्यक्ति यदि मृतक भोज खाता है, तो पाप का भागीदार बनता है, अपनी ऊर्जा नष्ट करता है।

कर्ज लेकर किया दान पुण्य फ़लित नहीं होता। अतः जितना आर्थिक खर्च स्वेच्छा से दान पुण्य हेतु कर सकते हैं उतना ही करें। हमारे देश मे प्रचलित - *लोग क्या कहेंगे?* मनोरोग से ग्रसित न हों। परम्पराओं की जगह विवेक को महत्त्व दें।

यदि किसी ने उम्र भर कोई पुण्य कर्म नहीं किया है, तो केवल मृतक भोज करवाने मात्र से उसे मुक्ति नहीं मिलने वाली। मुक्ति के लिए जीवित रहते हुए स्वयं के लिए पुण्य परमार्थ स्वयं ही करने होते हैं।

🙏🏻श्वेता, DIYA

Monday 22 June 2020

घटना- जब "बुद्ध" के समक्ष एक वृद्धा एक मात्र शेष बचे पुत्र के जीवनदान हेतु आयी

*घटना- जब "बुद्ध" के समक्ष एक वृद्धा एक मात्र शेष बचे पुत्र के जीवनदान हेतु आयी*

भगवान बुद्ध प्रव्रज्या में थे, एक ग़ांव में ठहरे हुए थे। उसी ग़ांव में सुबह सुबह एक वृद्धा जिसका पति व दो पुत्र नाव से व्यापार करने जाते थे, पिछले वर्ष नदी में डूबकर मर गए थे। एक मात्र छोटा पुत्र शेष था, आज सुबह सर्प ने उसे डस लिया। वह पागल सी हो गयी, पुत्र मोह में विलाप कर रही थी। लोगों ने कहा, अपने पुत्र को चलो बुद्ध के पास ले चलो, यदि उनकी कृपा हुई तो वह इसे जीवित कर देंगे। रोती हुई वृद्धा के भीतर उम्मीद की आस जगी और बच्चे की लाश ग्रामीण जनों के साथ लेकर बुद्ध के पास पहुंची। पुत्र को जीवित करने की प्रार्थना करने लगी।

बुद्ध ने कहा - माता सूर्यास्त के बाद मैं तुम्हारे पुत्र को जीवित कर दूंगा। बस मुझे इसे जीवनदान देने के लिए कुछ तिल के बीज चाहिए। तुम जाओ उस घर से तिल के बीज ले आओ, जहां किसी की कभी मृत्यु न हुई हो।

वृद्धा तुरन्त तिल लेने ग़ांव के घर घर के दरवाज़े खटखटाने लगी। सबने कहा जितना तिल चाहिए ले जाओ, मग़र मेरे घर में कई मृत्यु हुई हैं। सूर्योदय से सूर्यास्त हो गया, सबके घर में मृत्यु हुई थी। अतः वह तिल न ला सकी। अंत मे बगल के ग़ांव के जमींदार के घर तिल माँगने गयी, तो जमींदार की पत्नी बिलख उठी बोली आज ही मेरे हाल में जन्में पोते का निधन हुआ है। मैं तुझे कई बैलगाड़ी भर के तिल दे दूंगी, यदि अपने पुत्र के साथ साथ मेरे पोते को भी जीवनदान बुद्ध से दिला दे। तभी जमींदार पोते की लाश को दफ़नाने के लिए मिट्टी खोद रहा था, क्योंकि हाल में जन्में बच्चे को चिता में नहीं जलाते दफ़नाते है। वह वृद्धा मानो ठिठक सी गयी, वह चुपचाप नवजात बच्चे की लाश को मिट्टी में दबाते हुए देख रही थी।

जमींदार बोला - माई, जो जन्मा है वह तो एक न एक दिन मरेगा ही। कोई आज मरा है कोई कल मरेगा। तुझे ऐसा कोई घर नहीं मिलेगा जहां कोई मरा न हो। बुद्ध तुझे यही समझाना चाहते थे, इसलिए तुझे ऐसे घर से तिल लाने को कहा जहां सब अमर हों, कोई मरा न हो।

वृद्धा माँ जो अशांत व्यग्र सुबह तिल लेने घर घर निकली थी, वह पूर्णतया शांत व स्थिर हो चुकी थी, सभी घरों में मृत्यु के समाचार उसके अंदर मृत्यु की शाश्वत सत्ता का बोध करा गए।

बुद्ध के पास आते आते सूर्यास्त होने को था, ग्रामीण खड़े थे। वह बुद्ध के चरणों में गिरकर बोली, मेरे पुत्र को जीवनदान देने की अब आवश्यकता नहीं, यदि आज यह जीवित हो गया तो भी एक न एक दिन यह पुनः मरेगा। यह जब भी मरेगा किसी भी उम्र में मरेगा, मुझे दुःख होगा ही। मैं भी मरूँगी।

हे बुद्ध! मुझे तो अब आप यह बताइये मेरे भीतर कौन है जिसके कारण मैं जीवित हूँ? कौन है मुझमें जो दर्पण में भी नहीं दिखता? वह मुझमें कहाँ है जिसके आने से मेरा शरीर जीवित है और जो शरीर को छोड़ेगा तो मैं मृत हो जाऊंगी अपने पुत्र की तरह।

मुझे मृत्यु लोक का रहस्य बताइये, मुझे दीक्षा दीजिये।

बिना अश्रु बहाए, शांत व स्थिर चित्त से उसने पुत्र का अंतिम संस्कार किया। बुद्ध की शरण मे सन्यास लिया, सभी उम्मीदों, आशाओं, आकांक्षाओं, इच्छाओं, वासनाओं का उसने त्याग कर दिया, स्वयं की पहचान को भी छोड़ दिया। एक भिक्षुणी बनकर गहन ध्यान साधना की व जनजागृति करती हुई और मोह में फंसे लोगों को ताउम्र उबारती रही।

🙏🏻श्वेता, DIYA

प्रश्न - *परिवार के लोगों में न मन्त्र जप में रुचि है और न ही यज्ञ में रुचि है। न ही आस्तिकता के कोई चिन्ह है। सभी नास्तिक प्रवृत्ति के प्रतीत होते हैं, क्या करें?*

प्रश्न - *परिवार के लोगों में न मन्त्र जप में रुचि है और न ही यज्ञ में रुचि है। न ही आस्तिकता के कोई चिन्ह है। सभी नास्तिक प्रवृत्ति के प्रतीत होते हैं,  क्या करें?*

उत्तर - आत्मीय बहन,
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*आस्तिक* - *ईश्वर है, जो है उसका आभार प्रकट करना, आत्मा के मूल स्रोत से जुड़ना व पूर्णता प्राप्त करना।*
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*नास्तिक* - *ईश्वर नहीं है, जिसे देखा नहीं, अनुभव नहीं किया उसे कैसे मान लूँ? आभार किसे प्रकट करूँ पहले यह बताओ तब धार्मिक कर्म करूंगा?*
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*कुतार्किक* - *पूजा पाठ से कुछ नहीं होता, यह अंधविश्वास है। चार दिन की जिंदगी है खेलो खाओ मौज करो।*

आस्तिक व नास्तिक दोनों ही अच्छे व्यक्ति होते हैं। एक श्रद्धा को महत्त्व देता है और दूसरा विवेक को महत्त्व देता है। तीसरा कुतार्किक धोबी के कुत्ते की तरह होता है - न उसके पास श्रद्धा होती है और न ही उसके पास विवेक होता है, उसके पास केवल अंहकार होता है। वह फ़िल्मी हस्तियों और अमीर लोगों की नकल करता है। तो कुतार्किक के लिए मेरे पास कोई समाधान नहीं है।

यदि आप आस्तिक हैं, श्रद्धा आपके पास है अब अपने घर के नास्तिक परिवार जन के लिए आपको विवेक जगाना होगा। गायत्री मन्त्र जप, ध्यान व यज्ञ के ज्ञान विज्ञान को समझना होगा। नास्तिक व्यक्ति को तथ्य तर्क व प्रमाण के साथ अध्यात्म की गूढ़ता बतानी होगी।

आप में हो रहे अध्यात्म जनित परिवर्तन को प्रत्येक परिवार वाले बड़ी  गहराई से देखते हैं। आप कितनी शांत, स्थिर व सुलझी हुई मनःस्थिति की बनी यह परिवार जन नोटिस करते हैं। यदि उन्हें आपके आध्यात्मिक होने के बावजूद आप में अध्यात्म के चिन्ह नहीं दिखे तो वह अध्यात्म में प्रवेश नहीं करेंगे।

वाद्य यंत्र वही बजाना सिखा सकता है, जो स्वयं बजाना जानता हो। अध्यात्म में दूसरे को वही प्रवेश करवा सकता है, जो अध्यात्म के मर्म से जुड़ चुका है।

निम्नलिखित अभ्यास 108 दिन अनवरत अपनाइए और फ़िर परिवार वालों को अध्यात्म से जोड़ने का प्रयास कीजिये :-

1- नित्य पूजन में षट्कर्म व दैनिक पूजन के बाद एक अध्याय श्रीमद्भगवद्गीता गीता के हिंदी अर्थों को पढ़िये। फिर गायत्री मंत्र जप और अंत मे यज्ञ कीजिये।

2- भगवान से प्रार्थना कीजिये, भगवान हम अभी आपको दूसरे के कहने पर मानते हैं, लेकिन हमने अभी आपको अनुभूत नहीं किया है। आप कण कण में हो, मुझे आपकी अनुभूति करनी है। मेरे भीतर श्रद्धा स्थिर कर दो और विवेक जगा दो। मैं आपकी अनुभूति कर सकूं, मुझे अपनी शरण मे ले लीजिए।

3- हे स्वामी! मेरे परिवार जन को अपनी शरण में लीजिये। इनके अंदर भी भक्ति भाव जगा दीजिये। मेरे अंदर इतना भक्ति भाव व ज्ञान भर दीजिये, जिससे मैं अपने परिवार जन को आपकी शरण मे लाने में सक्षम हो सकूँ।

4- प्रभु! मेरा जन्म मेरे हाथ में नहीं था, न मेरे हाथ में मेरी मृत्यु है। प्रभु हम मनुष्य तो श्वांस भी अपनी मर्जी से नहीं ले सकते, गयी हुई श्वांस को नहीं लौटा सकते। हम मनुष्य तो अब तक आपकी तरह कोई मशीन नहीं बना पाए जिसमें रोटी व फ़ल डालें व रक्त मांस मज्जा व हड्डी बना सके। हमारे शरीर का ऑटोमेटिक सॉफ्टवेयर प्रभु आपने बनाया है जो देख, सुन, बोल, समझ व सोच इत्यादि सकता है। मैं आपकी ऋणी हूँ प्रभु, आपका आभार व्यक्त करती हूँ।

5- मुझे अपनी सेवा का सौभाग्य दीजिये, मेरी इस आत्मा को प्रकाशित कीजिये, मुझे दिया बनांकर ज्योतिमय कर दीजिए। इस प्रकाशित आत्मा से नित्य मैं भूले भटको को राह दिखा सकूं, ऐसा मुझे बना दीजिये।

6- मन्त्र के ज्ञान विज्ञान, ध्यान के ज्ञान विज्ञान और यज्ञ के ज्ञान विज्ञान का स्वाध्याय मैं करूंगी, आप मेरा मार्गदर्शन करें जो पढूँ वह मुझे समझ आ जाये ऐसी कृपा कीजिये गुरुदेव।

7- हे प्रभु, मुझमें देवत्व जगा दो, मुझे प्राणवान बना दो, मुझसे अपना कार्य करवा लो, मुझे विश्व का मित्र बना दो।  मैं आपका आह्वाहन अर्जुन की तरह कर रही हूँ, मेरे बुद्धि रथ के सारथी बन जाइये। मेरे जीवन युद्ध में मेरे साथ सदैव मेरे मित्र मार्गदर्शक के रूप में रहिये। मैं आपका आह्वाहन करती हूँ, मेरे बुद्धि व हृदय में सदा निवास करें, मुझे अपनी सेवा का सौभाग्य दें। मेरे समस्त परिवार को अपनी शरण मे ले लीजिए।

बहन, बुझा हुआ दीपक दूसरे दीपक को जला नहीं सकता और न हीं किसी और को राह दिखा सकता है।

इसलिए दीपक बन प्रकाशित हो उठने के लिए पात्रता-योग्यता विकसित करो, संयमित जीवन बनाओ और सदा जप-तप-ध्यान-स्वाध्याय करके अपने दीपक में ईंधन भरती रहो। परमात्मा की ज्योति तुममें उतरेगी। जब दिया जलता है तो लोगों को उसका प्रकाश परिचय स्वतः दे देता है। दिया के नीचे भी अंधेरा रहता है, तुमसे ईर्ष्या करने वाले तुम्हारे साथ रहकर भी लाभान्वित नहीं होंगे। उनके लिए दूसरे प्रकाशित व्यक्ति की मदद लेनी होगी।

जब तुम 108 दिन की साधना पूरी कर लेना, नित्य स्वाध्याय से ज्ञानार्जन कर लेना। तब नास्तिक परिवार जन को समझाना - मनुष्य की सीमित दृष्टि व सीमित कर्ण आकाश से परे व धरती के नीचे नहीं देख व सुन सकते। बहुत कुछ ऐसा है जो अनुभव से परे है। स्थूल जगत की तरह सूक्ष्म जगत भी अस्तित्व में है। जल की तरह समस्त तत्वों का ठोस, तरल और वाष्पीय(अदृश्य) जगत है। अपनी बुद्धि से परे सोचने वाले लोगों ने ही विविध अनुसंधान किये हैं। धर्मग्रन्थो की लिखी बातें आज विज्ञान भी सही मान रहा है। AIIMS में गायत्रीमंत्र जप की रिसर्च डॉक्टर रमा जय सुंदर की यूट्यूब में दिखाना, डॉक्टर ममता सक्सेना व टीम के यज्ञ शोध उनसे शेयर करना। मेडिटेशन की रिसर्च दिखाना। उनसे कहना - स्वयं अभ्यास करो, जब स्वयं को लाभ न मिले तब नकारना। बिना प्रयास किये कोई बात कहना, विवेकी मनुष्यो को शोभा नहीं देता।

40 दिन का चैलेंज - घर वालों को गायत्री मन्त्र जप, यज्ञ, ध्यान व स्वाध्याय का लेने के लिए कहें, यदि लाभ न मिले तो फिर दावे के साथ अध्यात्म को नकारना। यदि लाभ मिले तो शुद्ध मन से अध्यात्म के लाभ को स्वीकार लेना। आप मेरे परिवार जन है , आप स्वस्थ व सुखी रहें यही हम चाहते हैं।

🙏🏻श्वेता, DIYA

Sunday 21 June 2020

गायत्री मन्त्र भावार्थ और सन्देश कविता में भी प्रस्तुत है:-

गायत्री मन्त्र भावार्थ और सन्देश कविता में भी प्रस्तुत है:-

*प्राणस्वरूप* परमात्मा के,
*प्राणवान सन्तान* बनो,
*तेजस्वरूप* परमात्मा के,
*तेजस्वी सन्तान* बनो।

*दुःख नाशक* परमात्मा के,
*दुःख दूर करने वाली सन्तान* बनो,
*सुख स्वरूप* परमात्मा के,
*आत्मीयता विस्तार करने वाली सन्तान* बनो।
,

*श्रेष्ठ दिव्य* परमात्मा के,
*श्रेष्ठ गुण सम्पन्न* पुत्र बनो,
*तेजस्वी* परमात्मा के,
*तेजस्वी वर्चस्वी* पुत्र बनो।

*पापनाशक* परमात्मा के,
*अनीति से लोहा लेने वाले पुत्र* बनो,
*देवस्वरूप* परमात्मा के,
*दैवीय गुण धारण करने वाले* पुत्र बनो।

*जैसा परम् पिता है*,
*वैसा ही बनने का प्रयास करो*,
उसकी सृष्टि संचालन में,
तन मन धन से सहयोग करो।

उसको हृदय में धारण कर,
सन्मार्ग का चयन करो,
मनुष्य में देवत्व उदय,
और धरती में स्वर्ग अवतरण हेतु,
हर सम्भव प्रयास करो।

कण कण में संव्याप्त यज्ञमय सृष्टि में,
सत्कर्मो को आहुत करो,
सूर्य न बन सको तो कोई बात नहीं,
दीप बन कर ही जलने का प्रयास करो।

गायत्री मंत्र के भावार्थ में ही छुपा जीवन रहस्य बता दिया। गायत्री योग और यज्ञ का मर्म भी समझा दिया।

*ॐ भूर्भुवः स्व: तत सवितुर्वरेण्य भर्गो देवस्य धीमहि धियो योनः प्रचोदयात।*

इस मंत्र का भावार्थ बताते हुए परम् पूज्य गुरुदेव ने कहा- *तत्सवितुर्वरेण्यं* उस सविता शक्ति को वरण कर अपनी चेतना में धारण करो। जिस प्रकार विवाह के बाद स्त्री पुरुष दो शरीर एक जान हो जाते है। वैसे ही आत्मा का परमात्मा से विवाह जानो। भक्त भगवान एक, साधक सविता एक। समिधा की तरह यज्ञ में आहूत हो यज्ञ बन जाओ, जब एक बन गए तो अब नेक्स्ट क्या करना है। *भर्गो देवस्य धीमहि* - जब सविता का तेज धारण करलो तो उस तेज से अपने समस्त विकारों को नष्ट कर दो। और दैवीय गुणों से सम्पन्न स्वयं को बना लो। *धियो योनः प्रचोदयात* - सविता का तेज आत्मा में वरण कर, दैवीय गुणों को धारण कर, सन्मार्ग की ओर कदम बढ़ाओ, और दूसरे भूले भटको को भी राह दिखाओ।

🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन

स्थूल जगत की प्रयोगशाला बाह्य और सूक्ष्म जगत की प्रयोगशाला मनुष्य के भीतर अंतर्जगत में होती है

हमारी कप जैसी बुद्धि में समुद्र जैसा समस्त  ज्ञान नहीं भर सकता। हमारी सीमित दृष्टि व कर्ण सबकुछ देख सुन नहीं सकते। बहुत कुछ अदृश्य जगत में है जो समझ से परे है। कोई वस्तु जब समझ से परे होती है तो कुछ लोग उसे चमत्कार कहते हैं और कुछ लोग अंधविश्वास कहते हैं।

नदी का पानी रोज पीने वाला और हवा में सांस लेने वाला आदिवासी जिसने कभी बिजली देखी न हो, कैसे मान ले कि पानी से बिजली उत्तपन्न होती है और हवा से भी होती है। वह कैसे मान ले कि भारत मे बैठा व्यक्ति सुदूर व्यक्ति से फेस देखते हुए वीडियो कॉल कर सकता है? उसके लिए यह चमत्कार है। कुछ बुद्धिमान आदिवासियों के लिये यह अंधविश्वास कहलायेगा।

स्थूल जगत की प्रयोगशाला बाह्य और सूक्ष्म जगत की प्रयोगशाला मनुष्य के भीतर अंतर्जगत में होती है। किसी के हृदय में कितना प्यार या नफरत है इसे न कोई तौल सकता है, न दिखा सकता है, न सुना सकता है और नहीं प्यार या नफ़रत का स्वाद चखा सकता है। यह तो सकारात्मक या नकारात्मक ऊर्जा है। जो स्वयं को ही महसूस होती है, इसकी अभिव्यक्ति हम शब्दो के सहारे या कोई क्रिया कलाप से करते हैं।

अंतर्जगत की विशालता बाह्य जगत से अधिक है, ऐसा बाह्य जगत में कुछ भी नहीं जिसका रिमोट कंट्रोल अंतर्जगत में न हो।

भगवान की अनुभूति जब हृदय में होती है, तब उसकी कुछ अभिव्यक्ति बाहर उस व्यक्ति के व्यवहार व शब्दों से परिलक्षित होती है। ऐसे व्यक्ति के सान्निध्य में सुखानुभूति होती है, उसकी ऊर्जा हमारा मन शांत कर देती है। ऐसा व्यक्ति जहां निवास करता है, वहां बाहर से आये व्यक्ति को कुछ सकारात्मक ऊर्जा महसूस अवश्य होती है। साधारण व्यक्ति के घर, नकारात्मकता व कलह से भरे व्यक्ति के घर, व एक आध्यात्मिक व मन्त्र-यज्ञ ऊर्जा से भरे व्यक्ति के घर को स्वयं जाकर अनुभूत किया जा सकता है। जो जहां जिस मनःस्थिति से व जिस प्रकार ले विचारों में रहता है वह अपने घर मे वही ऊर्जा बिखेरता है। क्योंकि वह घर मे अधिक समय तक रहता है तो उस व्यक्ति की ऊर्जा उसके घर जाकर कुछ क्षण मौन शांत रहकर महसूस की जा सकती है।

यह अध्यात्म विज्ञान भी प्रायोगिक है, बस फर्क इतना है कि क्योंकि इसकी प्रयोगशाला मनुष्य का हृदय व मन है, तो इसे अनुभूत किसी दूसरे व्यक्ति का हृदय व मन कर सकता है।

💐श्वेता, DIYA

बुद्धिमान अर्जुन को सतत जीवन युद्ध मे, अंतर्द्वंद में श्रीमद्भगवद्गीता के ज्ञान की आज भी जरूरत है।

अपनी बुद्धि को सबकुछ मत समझना, यह दासी है तुम्हारी भावनाओं की। भावनाओं के प्रवाह में बुद्धि कुंठित हो जाती है, आदतों के आगे बुद्धि लाचार हो जाती है।

अतः बुद्धि को प्रज्ञा बुद्धि में बदलो, भावनाओं के हाथी पर साधनामय जीवन का अंकुश लगाओ। स्वयं के जीवन को सही दिशा दो।

जानते हो श्रीमद्भागवत गीता की जरूरत मूर्खो को नहीं है, अपितु बहुत ही ज्यादा अर्जुन जैसे बुद्धिमानो को है। क्योंकि बुद्धिमान से बुद्धिमान व्यक्ति भी अर्जुन की तरह मोहग्रस्त व किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है। बड़े से बड़ा डॉक्टर भी नशे के नुकसान को समझते हुए भी नशे की लत के आगे उसकी बुद्धि घुटने टेक देती है। ज्ञान का गांडीव उसके हाथ से छूट जाता है, व नशे का जहर व लेने से स्वयं को रोक नहीं पाता।

बुद्धिमान अर्जुन को सतत जीवन युद्ध मे, अंतर्द्वंद में श्रीमद्भगवद्गीता के ज्ञान की आज भी जरूरत है।

अगर सुशांत सिंह राजपूत जब अर्जुन की तरह कन्फ्यूजन का शिकार हो गया था, मनोवल टूट गया था उस वक्त यदि गीता का 40 दिन तक पाठ कर लेता तो उसे आत्महत्या की आवश्यकता नहीं रह जाती। वह अपनी बुद्धि का गांडीव उठाता व अपने दुश्मनों को उन्हीं की चाल में परास्त करता। आने वाले अपने जैसे अन्य एक्टर एक्ट्रेस के लिए फ़िल्म इंडस्ट्री को दुरुस्त करता। लाखो की प्रेरणा का स्रोत बनता। कायर नहीं कहलाता।

ज्यादा ज्ञानी व बुद्धिमान व्यक्ति के लिए सच्ची सलाहकार श्रीमद्भगवद्गीता आज भी है।

💐श्वेता, Diya

21 जून - योगदिवस की शुभकामनाएं

21 जून - योगदिवस की शुभकामनाएं

*योग चरित्र-चिंतन-व्यवहार से सुदृढ और श्रेष्ठ बनने का ज्ञान विज्ञान है। भीतर से प्रकाशित होने की प्रक्रिया है।*

हमारे आत्मीय भाइयो एवं बहनों,

वर्षों के बाद एक ऐसा अवसर आया है कि हम योगदिवस के माध्यम से भारतीय विरासत का गौरव अनुभव कर रहे हैं। घर घर योग पहुंचे यही शुभकामनाएं है, विश्व स्तर पर योग की पहचान हो गयी है अब घर घर भी पहुंचे, एक नित्य अभ्यास में आ जाये।

भारतीय संस्कृति की दृष्टि में हम युवा किसे कहते हैं? संघर्षो के सौपानो पर चढ़कर सफ़लता प्राप्त करने वाले युवा कहलाते है। लाखों वर्षों तक कोयला घिसा जाता है तब हीरा बनता है, सोना भी भट्टी में पिघलकर तपकर ही निखरता है। पेंसिल भी कटर के दर्द को सहकर ही लिखने योग्य बनती है। धाराओं की चीरने वाला ही तैराक बन पाता है। ये सारे उदाहरण युवा व्यक्तित्व और युवा सोच के उदाहरण हैं।

*संघर्षो को सौभाग्य की तरह वरण करने वाले युवा कहलाते हैं। क्योंकि हमारे देश मे युवा उम्र से नहीं दृष्टिकोण(attitude) से तौले जाते हैं। हमारा देश अद्भुत देश है।*

जिनका जीवन ठहर गया है, जिनका उत्साह ठंडा हो गया है।जिनके अंदर क्रांति की सम्भावनाये जन्म नहीं लेती , जिनके मन मे समाज को बदलने की, संस्कृति को उठाने की, राष्ट्र को बढ़ाने की सोच करवटे नहीं लेती, जिनकी सोच ठहर गयी है। वो युवा नहीं हैं।

युवा वो हैं जिनके मन में उमंग उल्लास और कुछ कर गुजरने की चाह है, जो संस्कृति को उठाने, समाज को बनाने और राष्ट्र को आगे बढ़ाने में प्रयासरत हैं, वो चाहे किसी भी उम्र के हों युवा हैं।

*देश का सौभाग्य है कि हमारे देश के 65 से 70% युवा हैं। लेकिन इस सौभाग्य को दुर्भाग्य बनते देर न लगेगी यदि इस यौवन को सही दिशा धारा न मिली।*

तो इस यौवन को सही दिशा धारा देने में सहायक योग है।

जो तिल माहीं तेल है जो चकमक में आग,
तेरा साईं तुझमें है, जाग सके तो जाग।

*अंतर की आंखों को खोलने का विज्ञान योग है, स्वयं के पूर्ण अस्तित्व को जानने का नाम योग है, अंतर से बदलने का नाम योग है, स्वयं को श्रेष्ठता से जोड़ना योग है, चेतना के परिष्कार का नाम योग है। मात्र शरीर के स्वास्थ्य हेतु योग नहीं होता वो तो मात्र एक अंग है। योग मानसिक और आत्मिक स्वास्थ्य प्राप्त करके पूर्णता प्राप्त करने का नाम है।*

*संसार मे हम सभी जीव चार प्रकार की यात्राएं कर रहे हैं:-*

*अंधेरे से अंधेरे की ओर* -  वर्तमान में भी दुःखी हैरान परेशान है और उस पर भी नशे और बुरी प्रवृत्तियों में लिप्त है। वर्तमान तो अंधकारमय है ही लेकिन भविष्य को और गहन अंधकारमय बना रहे हैं।

*प्रकाश से अंधेरे की ओर* - वर्तमान प्रकाशित है, सब सुख सुविधा और स्वास्थ्य मिला है लेकिन नशे और बुरी प्रवृत्तियों को अपनाया हुआ है। तो भविष्य को अंधकारमय बनाने की पूरी तैयारी है।

*अंधेरे से प्रकाश की ओर* -  वर्तमान में भी दुःखी हैरान परेशान है। अतः योग के द्वारा अपनी आत्मचेतना के विकास द्वारा और अच्छी प्रवृत्तियों और अच्छे कार्य द्वारा अच्छे भविष्य के निर्माण में सक्रिय हैं। वर्तमान तो अंधकारमय है ही लेकिन भविष्य को प्रकाशमय और उज्ज्वल बनाने हेतु प्रयत्नशील  हैं।

*प्रकाश से अधिक प्रकाश की ओर* - वर्तमान प्रकाशित है, सब सुख सुविधा और स्वास्थ्य मिला है । अतः योग के द्वारा अपनी आत्मचेतना के विकास द्वारा और अच्छी प्रवृत्तियों और अच्छे कार्य द्वारा अच्छे भविष्य के और बेहतर निर्माण में सक्रिय हैं। वर्तमान तो प्रकाशमय है ही लेकिन भविष्य को और ज्यादा प्रकाशमय और ज्यादा उज्ज्वल बनाने हेतु प्रयत्नशील  हैं।

*योग - अंधेरे से प्रकाश की ओर और प्रकाश से प्रकाश की ओर गमन है श्रेष्ठता का वरण है। भीतर से प्रकाशित होने का ज्ञान विज्ञान है। चरित्र-चिंतन-व्यवहार से सुदृढ बनने का ज्ञान विज्ञान है।*

आदरणीय चिन्मय पण्ड्या द्वारा तालकटोरा स्टेडियम में दिया वक्तव्य योग पर सुनिए:-

https:// youtu .be/ JpIFrUy_hKg

*अंतरराष्ट्रीय योग दिवस की शुभकामनाएं, अपनाए योग रहें निरोग, भगाएं अंतर का अंधकार और लाएं ज्ञान का प्रकाश।*

🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन

सारे दुःखों का कारण यही नासमझी है कि दूसरा मेरे हिसाब से क्यों नहीं चल रहा

जब तुम स्वयं जिन माता पिता से जन्मे हो उन की 100% नहीं सुनते, जब तुम्हारा बच्चा जो तुमसे जन्मा तुम्हारी बात 100% नहीं मानता। जब जो मन तुम्हारे भीतर है वह तुम्हारी नहीं सुनता, फिर तुम यह उम्मीद क्यों करते हो जो दूसरे के गर्भ से जन्मा है वह तुम्हारी सुने व तदनुसार कार्य व व्यवहार करें। यह अपेक्षा गलत है।

सारे दुःखों का कारण यही नासमझी है कि दूसरा मेरे हिसाब से क्यों नहीं चल रहा - जीवनसाथी, सास-ससुर, मित्रगण, ऑफिस वाले, रिश्तेदार इत्यादि। वह सब स्वतंत्र है, निज स्वार्थ में घिरे हैं। वह क्यों तुम्हारे हिसाब से चलेंगे? यदि वह तुम्हारे प्रेम भाव में या किसी चीज़ के अभाव में नहीं है तो?...

जो जैसा उसे वैसा रहने दो, बस स्वयं को साधो। साक्षी भाव से तटस्थ होकर दुनियां देखो। दुनियाँ के रंगमंच में जो भी रोल मिला है उसे पूरी निष्ठा से उम्दा करो। बस आनन्द मार्ग मिल जाएगा। तुम्हारे किरदार में जान आ जायेगी। जब पर्दा गिरेगा तब भी तुम्हारे लिए तालिया बजती रहेंगी।

💐श्वेता, DIYA

प्रश्न - *प्रणाम दीदी, मै रात मे 8-9 घंटे सोती हूँ। लेकिन सुबह उठने के बाद बहुत आलस्य बना रहता है जैसे लगता है बिल्कुल भी सोए ही नही और ऐसा दिनभर बना रहता है कोई काम करने का मन भी नही होता न ही चैतन्यता रहती है। घर मे डाँट भी पड़ती है। आपने जो काम दिया था वो भी नही करने का मन होता। क्या करूँ* 😔

प्रश्न - *प्रणाम दीदी, मै रात मे 8-9 घंटे सोती हूँ। लेकिन सुबह उठने के बाद बहुत आलस्य बना रहता है जैसे लगता है बिल्कुल भी सोए ही नही और ऐसा दिनभर बना रहता है कोई काम करने का मन भी नही होता न ही चैतन्यता रहती है। घर मे डाँट भी पड़ती है। आपने जो काम दिया था वो भी नही करने का मन होता। क्या करूँ* 😔

उत्तर - आत्मीय बहन, जब दिनचर्या में  मानसिक सजगता के कार्य कम होते हैं और उत्साह उमंग की कमी होती है तो नींद अत्यधिक आती है।

नींद न आना भी ग़लत है और नींद अधिक आना भी उतना ही गलत है।

नींद दो प्रकार की होती है - जैवकीय नींद (Biological Sleep) और मनोवैज्ञानिक नींद (Psychological Sleep) ।  जिस व्यक्ति की दिनचर्या में मानसिक व शारीरिक श्रम सम्मिलित होगा उसे रात को गहरी नींद आती है। शरीर व मन कार्य मे थकेगा, अच्छी भूख लगेगी और अच्छी नींद आएगी।

जिस व्यक्ति के पास शरीर को थकाने के लिए कार्य व व्यायाम नहीं होता, मन को थकाने के लिए मानसिक सजगता का कार्य व ध्यान नहीं होता। उन्हें बायोलॉजिकल नींद आने में समस्या 100℅ होगी।  बायोलॉजिकल गहरी नींद पांच से छः घण्टे एक युवा के लिए पर्याप्त है।

यदि छः घण्टे सोने के बाद भी दिन भर आलस्य छाया रहता है, व नींद अधिक आने की समस्या बनी है, तो इसका अर्थ यह है कि बायोलॉजिकल नींद गहरी नहीं थी, व सोने से पूर्व आप चिंता व तनाव में थे, जिस कारण शरीर तो सोने के लिए लेटा, मन से नहीँ सो पाए। शरीर की उपस्थिति नींद में थी लेकिन मन उपलब्ध बिस्तर में सोने के लिए शरीर के साथ नहीं था। मन को सुबह उठकर मन की सजगता का उत्साह उमंग से भरा क्या कार्य करना है रात को सूचित नहीं किया गया। जब मन को यह नहीं पता होगा कि सुबह उठकर क्या क्या करना है, तो वह आइडल स्टेज में चला जाता है और यह साइकोलॉजिकल(मनोवैज्ञानिक) नींद में चला जाता है। यदि आपने दिमाग़ बताया ही नहीं कि उसकी ज़रूरत आज क्यों है तो भला वह क्यों जगा रहे?

एक दूसरा कारण है - ख़राब स्वास्थ्य होना। तबियत ठीक न हो तो भी आलस्य आता है।

तीसरा कारण है - भोजन में शुद्धसात्विक भोजन, फ़ल, सब्जी व ऊर्जा देने वाले सलाद की मौजूदगी न होना। मात्र तलभुना व अत्यधिक मसालेदार भोजन करने वालों का पेट अपसेट रहता है। तब भी आलस्य बहुत आता है।

चौथा कारण है - मनोमन्जन व मनोरंजन की उचित व्यवस्था जीवन में न होना। मन का मनोमन्जन अच्छी पुस्तकों के स्वाध्याय से होता है, मन का मनोरंजन कुछ खेल, सङ्गीत व एक्टिविटी से होता है। यदि मनोमन्जन व मनोरंजन की व्यवस्था न हुई तो भी मन आलस्य से भरता है।

पांचवा कारण - जीवन में जो कार्य कर रहे हैं उसमें आपकी कोई रुचि नहीं है। बस जबरन कर रहे है, स्वयं की इच्छा आकांक्षा के विरुद्ध कर रहे हैं। इसलिए आलस्य से मनभरा है।

🙏🏻 समाधान - स्वयं का ख़्याल रखिये,  चैतन्यता व होश का जीवन मे समावेश कीजिये। जीवन बोर क्यों है उसके कारण को समझिए व उसके निवारण में जुटिये। कुछ नित्य रूचिकर कीजिये, गाना गाइये, चित्र बनाइये, लेख लिखिए, किसी समस्या पर अपने विचार रखिये। स्वयं के मन को कार्य देकर व्यस्त रखिये।

शरीर व मन के लिए दिनचर्या बनाइये, दिन का लक्ष्य बनाएं और उस लक्ष्य को पूरा करें। स्वयं को कार्य करने पर शाबाशी दें, स्वयं की रुचि का पता लगाएं, तदनुसार प्रतिभा विकसित करें व उसको निखारे।

उत्साह व उमंग युक्त मानसिक सजगता का कार्य मनोवैज्ञानिक नींद पर विजय दिलाता है। आइंस्टीन  हो या मोदी हों या युगऋषि परमपूज्य गुरुदेव श्रीराम आचार्य हों या एडिसन हो या वर्तमान में मोदी जी हों, यह सब कम नींद में भी ऊर्जा से भरे है क्योंकि इनकी मानसिक सजगता भरा कार्य जीवन का अंग है। इन सबमें कुछ कर गुजरने का जुनून था व है।

मनोवैज्ञानिक नींद का उपचार दवा से सम्भव नहीं है, इसका उपचार आपके हाथ में है। अस्त व्यस्त मन:स्थिति को व्यवस्थित करने की जरूरत है। प्रत्येक दिन कुछ कर गुजरने हेतु कुछ उत्साह उमंग युक्त कार्य करने की जरूरत है।

🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन

यदि कोई भाई बहन मेरी लिखी पोस्ट में से मेरा नाम हटा कर अपने नाम से पोस्ट करते हैं, तो मुझे स्नेह करने वाले भाई बहन आपको गुस्सा आता है। लेकिन आप उन पर गुस्सा न करें, उन्हें भला बुरा न कहें, उन्हें कुछ न कहें, उन्हें मत टोंकिये। उन्हें करने दें। आप बस अपना स्नेह आशीर्वाद मुझ पर बनाये रखिये, आप सब के हम आभारी हैं। गुरूकृपा से लेखक की ऊर्जा उसके पाठक होते हैं, जो उससे स्नेह करते हैं। उसकी पोस्ट का इंतज़ार करते हैं।मेरी ऊर्जा आप हैं, मेरे लिए आपका स्नेह पर्याप्त है। कोई नाम व प्रतिष्ठा की मुझे चाहत नहीं है। मैं तो अपना नाम इसलिए लिखती हूँ जिससे इंटलेक्चुअल प्रॉपर्टी अधिनियम के तहत इस कंटेंट की जिम्मेदारी मेरी है, इसमे मानसिक उपचार की विधियां होती है। यदि किसी को कोई शंका हो तो वह मुझसे पूंछ सके। लोग अपने प्रश्नमुझ तक पहुंचा सकें।गुरु कृपा से सेवा का सौभाग्य मुझे मिलता रहे। बस इसलिए  काउंसलिंग के कंटेंट के नीचे लेखन कि जिम्मेदारी उठाते हुए नाम लिखती हूँ।

मष्तिष्क एक कल्पवृक्ष है - लेकिन इस कल्पवृक्ष को गर्भ से ही सम्हालना होता है। इसे एक्टिव व जागृत रखने के लिए उम्रभर प्रयास करना होता है

*मष्तिष्क एक कल्पवृक्ष है - लेकिन इस कल्पवृक्ष को गर्भ से ही सम्हालना होता है। इसे एक्टिव व जागृत रखने के लिए उम्रभर प्रयास करना होता है।*

गर्भवती माता मानसिक रूप से जितनी सक्रिय व मानसिक सजगता के साथ कार्य करती है। माता जितनी मानसिक मेहनत करती है उतना बच्चे के मष्तिष्क के न्यूरॉन्स सक्रिय होते हैं।

मनुष्य का मष्तिष्क न्यूरॉन्स नाम के विशेष संवेदनशील कोशिकाओं से बना है। जैसे ही गर्भ में भ्रूण स्थापित होता है, उसके तुरन्त बाद से ही मष्तिष्क के न्यूरॉन्स बनने लगते हैं। दो से चार महीने के अंदर लगभग 20 खरब तक उनकी संख्या पहुंच जाती है। लेकिन यह संयोग की बात है कि माता पिता की अज्ञानता व लापरवाही के कारण संयोग की बात यह है कि छः से सात महीने में गर्भस्थ शिशु के 50% न्यूरॉन्स नष्ट हो जाते हैं।

आइये इसका कारण समझते हैं - मनुष्य के मष्तिष्क की कोशिकाएं (न्यूरॉन्स) बहुत संवेदनशील हैं। इनके जीवित रहने के लिए जरूरी है कि इन्हें कोई न कोई काम मिलता रहे। क्योंकि गर्भ में पल रहे शिशु का सीधा कनेक्शन माता के दिमाग से होता है। यदि माता सजग व सक्रिय दिमाग से कोई कार्य, चिंतन, स्वाध्याय व ध्यान नहीं करती, कोई विशेष मानसिक कार्य नहीं करती या गर्भवती तनाव ग्रस्त, अस्वस्थ, नशे का आदी है तो माता के मष्तिष्क के असक्रियता से बच्चे के मष्तिष्क को कार्य नहीं मिलता, सक्रियता कम होने मष्तिष्क के न्यूरॉन्स को काम न मिलने से वह सुस्त होती है, धीरे धीरे नष्ट होने लगती हैं।

यहां सभी होने वाले माता पिता व उनके परिवार जन को यह महत्त्वपूर्ण बात समझनी चाहिए कि यदि बच्चे को गर्भ के अंदर उसके मष्तिष्क के विकास के लिए सही परिवेश नहीं मिल पाया तो उसे इतना बड़ा नुकसान  उठाना पड़ता है कि उसकी भरपाई जिंदगी भर नहीं हो पाती है।

यह वैज्ञानिकों का मानना है कि नवजात शिशु जितने न्यूरॉन्स लेकर गर्भ से बाहर आता है, वही उसके दिमाग़ की जीवन भर की पूंजी होती है। यदि यही पूंजी गर्भ से आने से पहले कम हो गई तो उसकी भरपाई कभी भी नहीं हो पाती, क्योंकि जन्म के बाद कभी भी नए न्यूरॉन्स नहीं बनते।

लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि यदि जन्म के बाद नए न्यूरॉन्स बनने बन्द हो गए तो मष्तिष्क का विकास वहीं रुक जाता है। मष्तिष्क का विकास जारी रहता है, लेकिन दूसरे तरह से..

शिशु के जन्म से लेकर एक साल की उम्र तक मष्तिष्क में अरबो खरबो नए साइनेप्स बनते है। यह सन्देश को लाने ले जाने का कार्य करते हैं। जब सीखने की प्रक्रिया शुरू होती है, तब हमारा मष्तिष्क न्यूरॉन्स की संख्या में वृद्धि करने की बजाय साइनेप्स के द्वारा न्यूरॉन्स कोशिकाओं के आपसी सम्बन्धो को मजबूत बनाता है।

वैज्ञानिकों ने विभिन्न प्रयोगों में यह पाया है कि जो बालक जितनी जटिल परिस्थितियों को सामना करते हुए बड़ा होता है, उसे उतना ज्यादा दिमाग  उपयोग करना पड़ेगा। इससे उसके मष्तिष्क के साइनेप्स सक्रिय होकर उसकी मष्तिष्क की क्षमता को बढ़ा देंगे।

हमें इस खतरनाक चेतावनी को याद रखना चाहिए - यदि बचपन मे बनने वाले साइनेप्स व्यवहार और अनुभव के साथ जुड़कर मजबूत नहीं बन पाए तो यह साइनेप्स भी खत्म होने लगेंगे और दोबारा नहीं बनेंगे।

मष्तिष्क की क्षमता सीमाओं से परे है।  जीनियस वह है जो सही बात का सही तरीके से प्रयोग कर सके।

मष्तिष्क को दस प्रकार के कार्य नियमित मिलते रहना चाहिए:-

1- ज्ञान प्राप्त करना
2- सूचनाओं का संकलन करना
3- ज्ञान का विश्लेषण करना
4- ज्ञान का उपयोग कर सृजन करना, कुछ इनोवेटिव करना
5- नियंत्रण व संतुलन करना
6- नित्य 15 मिनट कम से कम ध्यान
7- नित्य आधे घण्टे कुछ न कुछ पुस्तकों का स्वाध्याय करना
8- कुछ न कुछ जरूर लिखना
9- स्वस्थ शरीर मे स्वस्थ मन का वास होता है, मष्तिष्क को ऊर्जा युक्त भोजन देना
10- योग व प्राणायाम करना


मष्तिष्क की क्षमता व प्रतिभा किसी की मोहताज नहीं होती, यह साधारण परिस्थिति में सुस्त होती है और प्रतिकूल परिस्थिति में अधिक निखरती है।

मष्तिष्क की क्षमता को बचपन से वृद्धावस्था तक अनवरत प्रखर रखने के लिए योग, व्यायाम,  ध्यान व स्वाध्याय करना चाहिए। मष्तिष्क को सजगता व सक्रियता के कार्य देते रहना चाहिए, जिससे उसे काम मिलता रहे और दिमाग़ सक्रिय रहे।

रेफरेंस पुस्तक - *मष्तिष्क एक कल्पवृक्ष (युगऋषि पं श्रीराम शर्मा आचार्य)* और *पढ़ो तो ऐसे पढ़ो (डॉ. विजय अग्रवाल)*

🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन

Saturday 20 June 2020

प्रारब्ध केवल परिस्थितियों का निर्माण कर सकता है, उस परिस्थिति में आप जो भी निर्णय कर कार्य करेंगे वह आपका भविष्य तय करता है।

*प्रारब्ध केवल परिस्थितियों का निर्माण कर सकता है, उस परिस्थिति में आप जो भी निर्णय कर कार्य करेंगे वह आपका भविष्य तय करता है।*

*प्रारब्ध* - पूर्वजन्म का कर्मफ़ल।
*भविष्य* - वर्तमान जन्म के कर्मफ़ल पर निर्भर करता है।

वर्तमान जन्म के कर्मफ़ल पूर्व जन्म के कर्मफ़ल को प्रभावित कर सकते हैं। ठीक उसी प्रकार जैसे जन्मजात मिली पैतृक संपत्ति को कोई निज कर्मो से या तो बढ़ा सकता है या नष्ट कर सकता है।

उदाहरण -
*प्रारब्ध 1* - दरिद्र गरीब व अपाहिज़ जन्मा सकता है।

*भविष्य* - अपनी मेहनत लगन से इन्हीं कमज़ोरियों के साथ नया इतिहास बनाया जा सकता है। अमीर बन सकता है।

या

बिना कर्म के दरिद्र रह सकता है।

*प्रारब्ध 2* - अमीर, स्वस्थ व बुद्धिमान जन्मा सकता है।

*भविष्य* - कुसंगति में नशे के सेवन से अस्वस्थ, जुआ खेलकर गरीब, व न पढंकर मूर्खता का वरण किया जा सकता है।

या

 कर्म करके और अधिक अमीर, स्वस्थ और अधिक बुद्धिमान बना जा सकता है।

कुंडली मे 100 वर्ष की आयु लिखी हो तो भी जहर ख़ाकर या फांसी लगाकर मरा जा सकता है। कुंडली अल्पायु हो तो विभिन्न आध्यात्मिक व सांसारिक उपायों से उम्र बढ़ाई भी जा सकती है।

मनुष्य कर्म करने में स्वतंत्र है। मनुष्य अपना प्रारब्ध स्वयं लिखता है। प्रारब्ध ही भविष्य उसी का बनता है जो पुरुषार्थ करने में चूकता है।

मार्कशीट पर क्या अंक होंगे यह बच्चा ही तय करता है, टीचर तय नहीं करती।

न परिस्थति हमारे हाथ मे है, न ही समय हमारे हाथ में है। हमारे हाथ मे केवल कर्म है। भाग्य रेखा हाथ मे इसीलिए दी गयी है क्योंकि इन्हें हम ही लिखते हैं।

कुछ भविष्य में क्या होगा यह पूर्व जन्म के फल अनुसार जन्मजात मिलता है। जैसे अमीर घर में जन्म लेना या गरीब घर मे जन्म लेना।

प्रारब्ध(परिस्थितियों का निर्माण करता है) + पुरुषार्थ व मनःस्थिति = भविष्य का निर्माण

*एक ही परिस्थिति किसी को तोड़ देती है, एक ही परिस्थति किसी को महान बना देती है। परिस्थति तो प्रारब्धजन्य थी, लेकिन उससे कौन महान बना और कौन टूट कर बिखर गया। यह तो उस व्यक्ति का व्यक्तितगत पुरुषार्थ था। व्यक्ति निज प्रतिक्रिया पर निर्भर था।*

लेकिन गरीब रहकर मरना है या अमीर बन कर मरना है यह हम स्वयं तय करते हैं।

🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन

Friday 19 June 2020

आत्महत्या की भावना

*आत्महत्या की भावना*

आत्मीय मित्र,
तुम्हारे भीतर उठती,
आत्महत्या की भावना,
यह दर्शाती है,
तुम्हें जीना ही नहीं आया,
चुनौतियों को स्वीकारना ही नहीं आया,
जीवन है एक संघर्ष,
यह किसी ने तुम्हें नहीं बताया,
बहादुरी से जीवन संघर्ष तुम्हेँ लड़ना नहीं आया।

आत्मीय मित्र,
सुख व दुःख तो,
समुद्र की लहरों की तरह है,
इनका आना व जाना तो लगा रहता है,
सफ़लता व असफ़लता का,
सामयिक आगमन-प्रस्थान तो लगा रहता है।

आत्मीय मित्र,
दुःख व असफ़लता से नहीं घबराना,
सैनिक की तरह अपना मनोबल,
सदा बनाये रखना,
अदम्य साहस परिचय देते रहना
इनसे कभी हारकर आत्महत्या की मत सोचना।

आत्मीय मित्र,
जीवन के खेल में,
केवल सद्गुरु, माता-पिता व सच्चे मित्र,
तुम्हारी टीम में होंगे,
बाकी पूरी दुनियाँ के लोग तो,
तुम्हारे विरुद्ध ही खेलेंगे,
उनकी प्रत्येक चाल तो,
तुम्हें हतोत्साहित करने के लिए ही होगी,
उनकी फेंकी प्रत्येक बॉल तो,
तुम्हें जीवन से आउट करने लिए ही होगी।

आत्मीय मित्र,
इस जीवन खेल से क्या घबराना?
खिलाड़ी की तरह मनोबल बनाये रखना,
अदम्य साहस खेलते जाना,
प्रत्येक बॉल पर नज़र रखना,
कभी बॉल को छोड़ देना,
तो कभी रन बनाते रहना,
कभी चौके तो कभी छक्के भी लगा लेना,
बैटिंग करना मन से कभी मत छोड़ना,
विरोधी टीम से कभी हार मत मानना,
आत्महत्या का विचार मन में मत लाना।

आत्मीय मित्र,
भगवान उसी की मदद करता है,
जो अपनी मदद स्वयं करता है,
खुद पर व भगवान पर,
जो भरोसा हमेशा भरोसा बनाये रखता है,
नित्य जप-ध्यान-स्वाध्याय से,
जो मन को कुशल बनाता रहता है,
प्रत्येक परिस्थिति से लड़ने को,
अपनी मन:स्थिति तैयार करता रहता है।

आत्मीय मित्र,
कभी आत्महत्या की भावना,
मन में नहीं लाना,
इस जीवन संघर्ष में,
कभी हार मत मानना,
वीर भोग्या वसुंधरा है,
यह कभी मत भूलना,
मन को बहादुर बनाने के लिए,
नित्य ध्यान व स्वाध्याय करके ही सोना,
महापुरुषों की जीवनियाँ पढ़ते रहना,
उनके जीवन से प्रेरणा सदा लेते रहना।

आत्मीय मित्र,
मन में उठती भावनाओं का,
देखो, यह शरीर ग़ुलाम है,
बस मन की भावनाओं को,
अच्छे से सम्हालना सीख लेना,
प्रत्येक जीवन की जंग में,
बेहतर प्रदर्शन करना,
कभी हार नहीं मानना,
प्रत्येक जीवन की जंग को,
बहादुरी से लड़ना,
प्रत्येक जंग से पूर्व श्रीमद्भगवद्गीता पढ़ना,
स्वयं को अर्जुन की तरह समझना,
ईश्वर को बुद्धि का सारथी बना लेना,
जीवन के संघर्ष को सतत बहादुरी से लड़ते रहना।

🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती,
डिवाइन इण्डिया यूथ असोसिएशन

यदि कभी बहुत डिप्रेशन हो, क्या करें कुछ समझ न आये, मार्गदर्शन की आवश्यकता हो तो मुझे निम्नलिखित नम्बर पर व्हाट्सएप (9810893335) कर सकते हो। समस्या पोस्ट करके, व्हाट्सएप पर पूर्व अपॉइंटमेंट लेकर सुबह 10 से 12 के बीच निःशुल्क आध्यात्मिक व मनोवैज्ञानिक समाधान प्राप्त कर सकते हो। गुरूकृपा व ईश्वर के आशीर्वाद से आपका टूटा मनोबल   पुनः सुदृढ मनोबल व आत्मविश्वास में परिवर्तित हो, आपको शक्ति सामर्थ्य मिले यही प्रार्थना है।

Thursday 18 June 2020

सही तुलसीदास रचित दोहा - *ढोर गंवार 'क्षुद्र' पशु 'रारी', सकल 'ताड़न' के अधिकारी।*

*क्षुद्र* - बिल्कुल निम्न या निकृष्ट कोटि का कंजूसी करनेवाला व्यक्ति, व्यक्ति जो निम्न श्रेणी अथवा निम्न या हीन विचारों का हो।

*रारी* - स्वार्थ में स्वभावतः लड़ाई झगड़ा व कलह करने वाला व्यक्ति।

तुलसीदास जी ने कभी भी *शूद्र* या *नारी* का अपमान नहीं किया। उनसे जलने वाले इर्ष्यालु लोगों ने जैसे थ्री इडियट फ़िल्म में *चतुर की स्पीच में* आमिर के किरदार रणछोड़ दास चांचड़ ने *'चमत्कार' शब्द को 'बलात्कार'*  से बदल दिया था। ऐसे ही उनके दुश्मनों ने *क्षुद्र* शब्द को *शूद्र* और *रारी* शब्द को *नारी* से बदल दिया। जिससे उनके साहित्य का विरोध हो सके।

सही तुलसीदास रचित दोहा - *ढोर गंवार 'क्षुद्र' पशु 'रारी', सकल 'ताड़न' के अधिकारी।*

ताड़न - का अर्थ है नज़र रखो नहीं तो गलती कर बैठेंगे। तुम्हें इन्हें सम्हालना होगा। सङ्गीत ढोलक से निकालने के लिए मात्र पीटा नहीं जाता उसे नजर रखते हुए थाप दी जाती है। कलही व्यक्ति घर परिवार में हो तो मात्र पीटने से नहीं सुधरता उस पर नज़र रखते हुए उससे बचने की जरूरत होती है। पशु की नजर रखते हुए देखभाल करनी होती है तब वह दूध इत्यादि देते हैं, खेती बाड़ी में काम आते हैं। गंवार व्यक्ति को नजर रखते हुए जबरन पढ़ाना पड़ता है, ताकि उसमे आवश्यक सुधार हो।

 इर्ष्यालु लोगों ने बदलकर कर दिया -  *ढोर गंवार 'शूद्र' पशु 'नारी', सकल 'ताड़ना' के अधिकारी।*

ताड़ना - का अर्थ निकाला प्रताड़ना(यानि पीटना) है पिटोगे तभी सुधरेंगे। तुम्हें इन्हें सुधारना होगा।

इर्ष्यालु लोगों ने तुलसीदास जी के समस्त साहित्य में ऐसे शब्द बदल दिए हैं, जिससे स्त्रियां उनकी विरोधी बन जाये।

माता सीता व माता पार्वती स्त्री हैं, व स्त्रियों को पूजनीय बताने वाले भक्त तुलसीदास किसी भी स्त्री समाज या किसी जाति के लिए अपमानजनक कुछ भी लिख नहीं सकते।


🙏🏻श्वेता, DIYA

Tuesday 16 June 2020

हम किस प्रकार के शिक्षक हैं, स्वयं जाँचने की चेक लिस्ट व प्रश्नोत्तर

*हम किस प्रकार के शिक्षक हैं, स्वयं जाँचने की चेक लिस्ट व प्रश्नोत्तर*
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सर्वप्रथम यदि आपने शिक्षक बनने का निर्णय स्वेच्छा से किया है, तो आपने ईश्वर की सेवा व राष्ट्र सेवा को चुना है। आप भगवान की बनाई सृष्टि के माली है, नन्हे नन्हे बच्चे भगवान की बगिया के पौधें है। राष्ट्र चरित्र गढ़कर देशभक्त नागरिक बना सकते हैं। देश के उत्थान में अहम भूमिका निभा सकते हैं। यह पूर्वजन्म के पुण्य का फल है कि आप को ईश्वर सेवा व राष्ट्र सेवा का सुअवसर एक साथ मिला है।

*आकृति से सभी मनुष्य है, किन्तु प्रकृति से मनुष्य के निम्नलिखित भेद है:-*

मानव पिशाच (दानव)
मानव पशु (मानवपशु)
मनुष्य (मानव)
महापुरुष (महामानव)
देवता (देवमानव)

*शिक्षक स्वयं से निम्नलिखित प्रश्न पूँछकर स्वयं की प्रकृति पहचान सकते हैं*

१- क्या भक्षक बनकर धोखाधड़ी पसंद है? दूसरों बच्चो को नुकसान देकर अपना भला करना पसंद है? सैलरी लेकर कर्तव्यों की उपेक्षा करना पसंद है? – यदि इस प्रश्न का उत्तर हां में है – *तो मानव पिशाच है*

२- क्या खाओ पियो ऐश करो, कमाने के लिए कुछ तो जॉब करनी थी, पापी पेट का सवाल था तो शिक्षक बन गये, पशु की तरह डयूटी बजाओ और घर आकर खा पीकर सो जाओ? -- यदि इस प्रश्न का उत्तर हाँ है तो --- *मानव पशु हैं*

३- क्या हम ईमानदारी से अपने विषय पढ़ा रहे हैं, कोर्स समय से पूरा कर रहे हैं, जिस चीज़ की सैलरी ले  रहे हैं उसे कर रहे है? स्वयं को विषय का शिक्षक समझ रहें है? – यदि इसका उत्तर हाँ है --- *तो मनुष्य (इन्सान) हैं*

४- क्या हम जानते हैं शिक्षा वह जो मानव के व्यक्तित्व और चरित्र को गढ़े? शिक्षा का सदुपयोग करना सिखाये? कष्ट सहकर भी मानव धर्म  और सन्मार्ग पर चलाये? स्वयं की उन्नति के साथ साथ समाज की उन्नति में जो भागीदारी कर सके ऐसे नागरिकों को गढने की टकसाल विद्यालय है? क्या  मै नित्य अपनी ४५ मिनट की क्लास में ५ मिनट नैतिक शिक्षा के सूत्र और ४० मिनट विषय पढ़ाता हूँ? क्या मै स्वयं को बच्चो के भविष्य के लिए उत्तरदायी मानता हूँ? मै मात्र सब्जेक्ट टीचर नहीं हूँ मै बच्चो का शिक्षक हूँ? सब्जेक्ट पढ़ाने के लिए शिक्षक की भूमिका में हूँ और इन्सान गढ़ने में गुरु की भूमिका में हूँ? --- यदि इसका उत्तर हाँ में है --- *तो महापुरुष हैं*

५- क्या मैं मानता हूँ कि शिक्षण शब्दों से नहीं बल्कि आचरण से दिया जाता है? क्या मैं स्वयं को साधने के लिए नित्य उपासना, साधना, आराधना करता हूँ? क्या मै मानता हूँ सूर्य बनकर चमकने के लिए मुझे तपना होगा? गुरु की जिम्मेदारी उठाने के लिए अतिरिक्त जिम्मेदारी और कष्ट उठाना होगा? मै अपने विद्यार्थियों में देवत्व जगाऊंगा? उन्हें अच्छा इन्सान बनाऊंगा? उनका चरित्र व् व्यक्तित्व ऐसा गढ़ूंगा कि वह डॉक्टर, इंजीनियर, वकील व् व्यापारी जो भी बने नेक राह पर चले और उनमे  सेवा भाव हो, पीड़ित मानवता का उद्धार कर सकें? मै पूरी कोशिश करूंगा? – यदि इसका उत्तर हाँ है तो --- *आप देवता है देव मानव है|*


🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन

मेरे मन! तुझे किस बात का भय है?

*मेरे मन! तुझे किस बात का भय है?*

मृत्युलोक में मृत्यु तो सबकी पहले से तय है,
फ़िर मेरे मन!
तुझे किस बात का भय है?

जो यहां आया, वो जाएगा भी तो,
दिन के बाद, रात का अंधेरा छायेगा भी तो,
'जन्म-मरण" व "दिन-रात' एक भ्रम ही तो है,
अरे इनका अनवरत चक्र भी तो है।

आत्मा का शरीर बदलना तो पहले से तय है,
फ़िर मेरे मन!
तुझे किस बात का भय है?

पहले प्रारब्ध की कहानी लिखी जाती है,
आत्मा उसी कहानी पर अभिनय करता है,
उतार-चढ़ाव तो सब पहले से तय है,
बस उस रोल में उम्दा अभिनय करना होता है।

प्रत्येक कहानी का अंत तो पहले से तय है,
फ़िर मेरे मन!
तुझे किस बात का भय है?

बस तू इस बात की चिंता कर,
जब पर्दा गिरे तब भी तेरे लिए,
तालियाँ बजती रहे,
अपने जीवन के नाटक में,
अपने सच्चे अभिनय से जान भर दे।

नाटक का पर्दा गिरना तो पहले से तय है,
फ़िर मेरे मन!
तुझे किस बात का भय है?

🙏🏻श्वेता, DIYA

Monday 15 June 2020

अध्यात्म विद्या का प्रवेश द्वार

*अध्यात्म विद्या का प्रवेश द्वार*

किसी भी स्थान में या यात्रा में जाने से पूर्व उसकी जानकारी आवश्यक है। पहले प्रयोजन मन स्पष्ट करें कि जाना क्यों है? वह कहाँ जाना है? फिर क्रमशः आयोजन मन मे स्पष्ट करें व रूपरेखा बनाएं कि कैसे जाना है, कौन सा वाहन व कौन सा मार्ग चयन करना है? कब तक पहुंचना है? सम्भावित समय सीमा क्या होगी? प्रायः एक शहर से दूसरे शहर जाने पर भी हम यह स्पष्ट समझ कर चलते हैं, फ़िर अध्यात्म क्षेत्र की यात्रा में यह स्पष्टता करने में विलम्ब क्यों?

ईश्वर प्राप्ति, मुक्ति, परलोक सुख इत्यादि कामनाएं लेकर अधिकतर अध्यात्म पथिक अध्यात्म पथ पर चल पड़ते हैं। परंतु अधिकांश को गंतव्य स्थान के सम्बंध में, लक्ष्य इत्यादी के सम्बंध में कुछ विशेष जानकारी नहीं होती। अधिकतर तो भ्रम में होते हैं इसलिए पथ भटक जाते हैं।

युगऋषि ने पुस्तक - *अध्यात्म विद्या के प्रवेश द्वार* में अध्यात्म मार्ग की शुरुआती रूपरेखा स्पष्ट की है। यदि यह पुस्तक आप पढ़ते हैं तो कम से कम किसी के बहकावे में नहीं आएंगे और कभी अध्यात्म जीवन में भटकाव नहीं आएगा।

*ब्रह्मा के चार मुख* - ब्रह्म, ईश्वर, विष्णु और भगवान
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*ब्रह्म* - तत्वमसि, सो$हम, अयमात्मा ब्रह्म, I am that इत्यादि सूत्रों का अर्थ यही है कि हमारी आत्मा उसी परमात्मा का अंश है। हम वही हैं, वह बनने के लिए साधना व पुरुषार्थ करना होगा। देवत्व बीज रूप में है, उसे वृक्ष बनाने का समय, साधन व पुरुषार्थ चाहिए। मन का स्थान हृदय से 24 अंगुल की दूरी पर है, जितना मन आत्मा के निकट आएगा उतना आनन्द वर्षा से भीगेगा। मछली को जल चाहिए और आत्मा को आनंद चाहिए। मछली जल के बिना तड़फती है, आत्मा आनंद के बिना अतृप्त व असंतुष्ट होता है। ब्रह्म को सरस्वती (ज्ञान) की साधना द्वारा जानने में सहायता मिलती है।  *मैं कौन हूँ?* यह जानने के लिए स्वयं को साधना पड़ेगा।

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*ईश्वर* - इस विश्व के मूल में एक शासक, संचालक, एवं प्रेरक सत्ता। एक नियामक सत्ता - अर्धनारीश्वर-प्रकृति व पुरूष-शिव व शक्ति की तरह है। देवता व राक्षस में कोई भेद नहीं। जो नियमानुसार चलेगा लाभान्वित होगा। अग्नि के नियम समझ लो, तो भोजन पका लो। नियम न समझे तो जलना निश्चित है। प्राकृतिक भोजन करो स्वास्थ्य पा लो, अप्राकृतिक भोजन करो रोग उतपन्न कर लो। नियम की अवहेलना पर दण्ड निश्चित है। विनाश निश्चित है। यह सबको ईश्वर  अर्थात स्वामी बनने की छूट देता है, प्रकृति के नियम को समझ कर अविष्कार करने की छूट देता है।

ईश्वरवादी इस तथ्य को भलीभांति समझते हैं कि - *ईश्वर उसी की मदद करता है जो अपनी मदद स्वयं करते हैं।* अतः वह ईश्वरीय कृपा के लिए उनके नियमों को देखते, परखते व तदनुसार कार्य करके अपनी सीमा तय करते हैं। do & don't - क्या करना है व क्या नहीं करना है, इसकी लिस्ट बना लेते हैं। वह सुख सौभाग्य प्राप्त करते हैं।

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*विष्णु* - संसार में एक संतुलन शक्ति कार्य कर रही है। यह पालन, पोषण व संतुलन की शक्ति है। यह विष्णु शक्ति हमेशा - लक्ष्मी शक्ति के साथ कार्य करती है। विष्णु के चार हाथ - सुंदरता, सम्पन्नता, सद्बुद्धि और सात्विकता के प्रतीक है।

विष्णु उपासक जानते हैं - सुख की उत्तपत्ति दूसरों को सुख देने से उतपन्न होती है।

*वैष्णव जन तेने कहिए, जे पीर पराई जाने रे* - समाज का लाभ, संसार की सेवा, विश्व की समृद्धि और विश्वमानव की सुख शांति के लिए सच्चे मन से प्रयत्नशील मनुष्य ही विष्णु की कृपा का अधिकारी होता है।

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*भगवान* - जिसका रिमोट कंट्रोल भक्त का हृदय होता है। जितना निर्मल मन और सच्ची भक्ति उतना ही भगवान भक्त के वश में होता है। भगवान बिना भक्त के अस्तित्व में नहीं आता। भाप जल से कितना बनेगा यह तो पानी कितना उबाला जाएगा उस पर निर्भर करता है। वैसे भगवान वही है मग़र वह कितने अंशो में प्रकट होगा व अनुदान वरदान देगा यह भक्त की भक्ति पर निर्भर करता है। भक्त नहीं तो भगवान भी नहीं, भक्ति है तो कंकर में शंकर, यदि भक्ति नहीं तो शंकर भी कंकर प्रतीत होगा, वैसा ही फ़लित होगा।

भगवान का आकार प्रक्रार, रूप रंग, उम्र, सब कुछ भक्त की भक्ति तय करती है। भगवान नंद गोपाल बाल रूप में दिखेंगे या जगतगुरु युवा कृष्ण सब कुछ भक्त की भक्ति तय करती है। वह भक्त के साथ, मित्र, पिता इत्यादि किस रूप में होंगे यह भी भक्त की भक्ति भावना पर निर्भर है। भगवान माता रूप में होगा या पिता रूप में यह भी भक्त की भक्ति भावना तय करती है।

भगवान बाहर से नहीं मनुष्य के भीतर उसके अंतर्जगत से भक्ति भावना से प्रकट होता है, श्रद्धा-विश्वास, भक्ति-भावना, इच्छाशक्ति व दृढ़संकल्प से मनुष्य के भीतर से ही प्रकट होता है।

🙏🏻श्वेता, DIYA

Sunday 14 June 2020

शिवभक्त औघड़दानी सन्त की दो चाबी व गुड़िया का रहस्य

*शिवभक्त औघड़दानी सन्त की दो चाबी व गुड़िया का रहस्य*

एक सेठ अपनी पत्नी, अपने तीन पुत्र व तीन वधुओं सहित सन्त के दर्शन को आया। सन्त ने कहा सबके समक्ष दो चाबी है एक परम् शांति की व दूसरे सांसारिक सुख की, जो चाहिए चुन लो तदनुसार तुम्हें दर्शनार्थ भेजा जाएगा। सबने सुख की चाबी चुनी लेकिन छोटी बहू ने परम् शांति की चाबी सुनी।

संसारी सुख वाले लोगों की समस्या अनुसार सांसारिक समाधान देकर भोजन हेतु भेज दिया गया।

छोटी बहू को सन्त ने कहा परम् शांति के लिए कुछ कीमत चुकानी पड़ती है। तुम उस गुड़िया को उठाओ और उस पर अपना नाम लिखो। फिर उसे कुछ लकड़ियां दीं, और बोला ऐसा मानो कि तुम अपनी चिता स्वयं जला रही हो। जब हम मरते हैं तो जिस प्रकार हमारी आत्मा स्वयं के शरीर को जलता अनुभव करती है, वैसा ही अनुभव करो। शरीर के जलने के साथ उससे जुड़े सभी रिश्ते नाते सब जलकर खाक हो जाते हैं। छोटी बहु ने सन्त के निर्देशानुसार सबकुछ किया। चितारोहण की समस्त सँस्कार किये। फ़िर छोटी बहू को सन्त ने कहा स्वयं का पिंड दान कर दो। फिर उसे गंगा स्नान करके वापस आने को कहा।

जब वह वापस आई तो गुरु ने उसे गुरु दीक्षा दी और कहा आज से तुम एक वृक्ष की तरह हो। कार्बनडाईआक्साइड लेकर जीवनोपयोगी ऑक्सीजन प्राणवायु देने वाली। तुम्हारी शरण मे जो आये उसे आश्रय रूपी छाया देने वाली। पत्थर कोई तुम्हें मारे तो तुम फल ही दोगी। गाली कोई तुम्हे दे तो भी तुम उसका भला ही करोगी।

आज से तुम शिव हो, समुद्रमंथन में सब अमृत के लिये प्रयत्नशील थे और शिव ने जहर पिया।  लोककल्याण में निरत है, भोलेनाथ हैं। उनका महाकाल स्वरूप भी जनकल्याण के लिए है, विनाश भी लोकहित है। वह तो स्वयं के लिए कभी कुछ नहीं चाहते।

आज से श्वांस लेना तो *शिवो* और छोड़ना तो *हम* बोलना, मौन मानसिक करना। *शिवो$हम* वह शिव मैं ही हूँ, मैं शिवान्स हूँ। बस आज से संसार सुख का अमृत त्याग के सेवा और युगपीड़ा निवारण का ज़हर पीने को प्रस्तुत हो जाओ। बोलो हे शिव मुझे अपने जैसा कल्याणकारी बना दो। जब भी सांसारिक मोह सताए ध्यान में शिव के साथ शव साधना करना। स्वयं के शरीर को शव मानकर उसका आसन बना लेना, उसपर अपनी प्रकाशित आत्मा को समाधिस्थ बिठा देना। शिव से प्रार्थना करना मेरे भीतर का वैराग्य स्थिर कर दीजिए।

यदि साधारण व्यक्ति को जगाओ तो वह चिढ़ जाता है। कहता है मेरा स्वप्न तोड़ दिया। अब जब तुम लोगों को स्वार्थ व मोह की निद्रा से जगाओगी तो तुम्हें गाली तो मिलेगी ही। सब के सांसारिक स्वप्न को तोड़ने का उत्तरदायी तुम्हे ठहराया जाएगा। मग़र तुम शिवमय बनकर लोकहित करती रहना। वृक्ष की तरह परोपकार में संलग्न रहना तुममें परम् शांति स्थिर हो जाएगी। वृक्ष के साथ एकात्म्य बनाओ, जब भी समय मिले वृक्ष की तरह स्थिर उससे एकात्म्य कर ध्यान करो।

शरीर से गृहस्थ जीवन का पालन करो,  मगर मन से आज से तुम एक सन्यासी हो।

जब सेठ घर सबको लेकर लौटा, तो छोटी बहू में बहुत बदलाव सबने अनुभव किया। पहले घर मे कार्य को लेकर बहुत झगड़े होते थे, छोटी बहू सबके कार्य कर देती। झगड़े खत्म हो गए, वह बहुत शांत स्थिर व सुकूनमय रहती। सब उससे उसकी परमशान्ति का राज जानने में लग गए। वह कहती दूसरों की सेवा से शिव प्रशन्न होते हैं, जितना मैं जन सेवा करती हूँ उतना शिवत्व मुझमें जगता है। सब उसका देखा देखी दुसरो का कार्य करने लगे, अपनी इच्छाओं वासनाओं को छोड़ने लगे। सेठ का घर शान्तिकुंज बन गया।

छोटी बहू से लोग परामर्श लेने आते, लोग धन्य होकर जाते। छोटी बहू खाली हो चुकी थी अब निःश्वार्थ जन सेवा करते करते उसमें शिवत्व भर गया था। उसे परम शांति मिल गई थी। वह मान अपमान से परे हो गयी थी। उस पर गुरुकृपा हो गयी थी।

🙏🏻श्वेता, DIYA

प्रश्न - *ऐसा अक्सर क्यों कहा जाता हैं - कम से कम वृद्धावस्था में तो राम नाम ले लो, सुधर जाओ*

प्रश्न - *ऐसा अक्सर क्यों कहा जाता हैं - कम से कम वृद्धावस्था में तो राम नाम ले लो, सुधर जाओ*

उत्तर - अगर डिनर में सब कुछ स्वादिष्ट हो तो अति उत्तम है। यदि सबकुछ अच्छा न भी रहा तो कम से कम कुछ अंतिम में मीठा खा लो तो मुंह का स्वाद उत्तम बन जाता है। लेकिन यदि अंतिम में कड़वी नीम की चटनी दे दी जाए तो मुंह कड़वा हो जाता है।

सलाह तो यही दी जाती है कि पूरा जीवन ही उत्तम व धर्ममय जियें, यदि वह किन्हीं कारणवश न बन पड़ा, तो कम से कम वृद्धावस्था में तो जप तप करके कुछ तो पुण्य कमा लें। कुछ तो आत्म संतोष लेकर तो मरें।

हमारी अर्थी ले जाने वाले तो *राम नाम ही सत्य है* बोलेंगे, लेकिन यदि मरने से पूर्व हम इस शरीर में रहते हुए  *राम नाम ही सत्य है* समझ रहे होंगे तो सुकून में भयमुक्त प्राण त्यागा होगा और यदि *राम नाम का सत्य नहीं समझा होगा* तो भय में हज़ारों बिच्छुओं के डंक जितना दर्द सहकर व तड़फकर शरीर से निकले होंगे। मनुष्य के 9 द्वार हैं - एक मुँह, दो नाक के छिद्र, दो आंख, दो कान, दो मल-मूत्र मार्ग। अब राम नाम सत्य की महिमा समझ के मरेंगे तो उत्तम द्वार से निकलेंगे, नहीं समझे होंगें तो निम्न मार्ग से देहत्यागेंगे।

फ़िर 10 से 12 दिन ही इस जन्म के शरीर सम्बन्धियो के साथ रहने को मिलेगा, 13 वे दिन तो पुनः नई यात्रा में जाने से पूर्व धर्मराज को इस जन्म का लेखा जोखा देना होगा। अब धर्मराज के दरबार तक पहुंचने के लिए वाहन तो तब मिलेगा जब पुण्य करके बुकिंग करवाई होगी। नहीं तो भैया पैदल एक वर्ष चलकर पहुंचेंगे। हिसाब वहाँ जाकर देंगे। तद्नुसार नए जन्म की रूपरेखा बनेगी।

इसीलिए कहा जा रहा है, अब तो आत्मा का यह सफ़र खत्म होने को है, वृद्धावस्था आ गयी। अब तो राम नाम ले लो। मोह-माया मुक्त हो जाओ। राम नाम ही सत्य हैं समझ लो। आगे के सफर की तैयारी कर लो। वाहन इत्यादि की बुकिंग के लिए जप-तप-पुण्य-परमार्थ कर लो।

वैसे मृत्यु कब आएगी यह किसी को नहीं पता, इसलिए जप-तप-पुण्य-परमार्थ  करने के लिए वृद्धावस्था का इंतज़ार नहीं करना चाहिए। अभी से तैयारी करनी चाहिए, इसलिए हम तो अभी से राम नाम के सत्यान्वेषण में जुट गए हैं। जप,तप पुण्य परमार्थ में जुट गए हैं😇😇😇😇

🙏🏻श्वेता, DIYA

ध्यानी सन्त के ध्यान करवाने के विचित्र नियम

*ध्यानी सन्त के ध्यान करवाने के विचित्र नियम*

एक सन्त ध्यानी सन्त के नाम से विख्यात थे, उनकी शरण में ज्ञानी आये या अज्ञानी सब अंत में ध्यानी बन जाते। इसलिए अब लोग उन्हें ध्यानी सन्त ही कहते थे।

वह मुख्यतः उगते सूर्य का ध्यान सभी को करवाते थे और गायत्री मंत्र जपने की प्रेरणा देते थे, वह सबको कहते - प्रत्येक जीव वनस्पति को प्राण संचार सूर्य द्वारा ही सम्भव होता है। पृथ्वी पर जीवन सूर्य से ही सम्भव है। हम सबके प्राणों की शक्ति का स्रोत भी सूर्य है। सूर्य की चेतना से जुडो।

सन्त कहते - यदि तेज़ दौड़ते हुए आओ और आते ही एक ग्लास भरा पानी हाथ में लो तो तुम उसे भी सम्हाल न सकोगे झलक जाएगा। इसी तरह मन में दौड़ते हुए विचारों को लेकर ध्यान में बैठोगे तो ध्यान घट नहीं पायेगा। तो करना क्या है? हाथ में पकड़े ग्लास का जल स्थिर करने के लिए शरीर को स्थिर करो। पहले स्वयं हिलना बन्द करो, तब ग्लास न हिलेगी। फिर शनैः शनैः तुम्हारी स्थिरता से ग्लास व ग्लास की स्थिरता से जल स्थिर हो जाएगा। इसी तरह मन को ध्यानस्थ करने के लिए पहले शरीर स्थिर करो, फिर समस्त विचारणा शक्ति को किसी एक धारणा में लगा दो, यदि सौ विचार चल रहे थे तो अब एक विचार चलने लगे यह निश्चित करो। फिर उस एक विचार को भी तिरोहित हो जाने दो। बस आती जाती श्वांस पर ध्यान केंद्रित करो। स्वयं को परमसत्ता से मिलने हेतु प्रस्तुत कर दो। शरीर की स्थिरता से मन स्थिर होगा। मन पर नज़र रखोगे व एक विचार पर चिंतन करोगे तो शनैः शनैः विचार हटने लगेंगे। अंत मे एक शेष बचेगा। अब उस एक को भी मत सोचो बस मन पर नजर रखो। दूध में जामन डालकर बस बैठो। धैर्य पूर्वक मन के ग्लास को स्थिर होने दो समस्त विचारों को शांत होने दो। स्वयं में ध्यान घटने दो।

सभी साधकों को अभ्यास हेतु कांच के पात्र में जल देकर बिठाते, साधक हिलते तो जल झलकता। अतः साधक न हिलते, धीरे धीरे कई महीनों में अभ्यस्त होने पर कांच के बर्तन के बिना बैठने को कहते इस प्रकार ध्यान घटित होने लगता।

एक बार उनके पास ध्यान सीखने एक गड़ेरिया आया, जो पढ़ा लिखा न था।

सन्त ने पूँछा, तुम्हें सबसे ज्यादा कौन पसन्द है। किसको दिन में ज्यादा याद करते हो? गड़ेरिया बोला अभी कुछ दिनों पहले भेड़ का बच्चा हुआ है, वह मुझे बहुत पसंद है। मैं उसके ही चिंतन में खोया रहता हूँ।

मुझे भगवान विष्णु पसन्द हैं, मग़र जब भी उनका ध्यान करता हूँ तो मन भटकता है। मुझे विष्णु का ही ध्यान सीखना है।

सन्त ने कहा - भगवान कण कण में है, तुम जिस रूप में चाहो उसे भज सकते हो, उसका ध्यान कर सकते हो। तुम भगवान से बोलो भगवान मुझे आपका भेड़ रूप बहुत पसंद है, मुझे भेड़ के रूप में ध्यान की अनुमति दें, मैं इस भेड़ के बच्चे में आपका आह्वाहन करता हूँ। आज से भेड़ के बच्चे की सेवा ईश्वर सेवा व पूजन समझ के करना। बिना उसे खिलाये मत खाना, ख़ुद से पहले और सारे संसार से पहले उसका ध्यान रखना। जब भी वक्त मिले *ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नमः जपना।* और भेड़ के चार पैर उनका चतुर्भुज रूप जानना। इसी भेड़ के माध्यम से तुम्हें विष्णु के चतुर्भुज रूप तक पहुंचना है।

वह गड़ेरिया सन्त के बताए नियमानुसार भेड़ की सेवा करता व उसी के ध्यान में रहता।

उसे भी कांच के बर्तन में जल दिया गया व जल के भीतर अन्य साधकों को सूर्य और उसे भेड़ सोचते हुए जल स्थिर हो इसलिए शरीर स्थिर करने को कहा गया।

गड़ेरिये से कहा - जल में भेड़ के  रूप में भगवान विष्णु की कल्पना करो।

सबकी तरह ही गड़ेरिये में भी ध्यान घटने लगा। वह भी घण्टों स्थिर बैठने लगा। शनैः शनैः वह भेड़ उसे प्रकाशित ध्यान में दिखती। धीरे धीरे नित्य स्वाध्याय सत्संग से वह बदलने लगा। कई वर्षों बाद एक दिन उस भेड़ में ही चतुर्भुज रूप भगवान का दिखने लगा। वह धन्य हो गया। अन्य साधकों तरह उसकी आत्मा प्रकाशित हुई।

🙏🏻श्वेता, DIYA

Saturday 13 June 2020

प्रश्न - सँस्कार व आश्रम व्यवस्था में अंतर क्या है?

प्रश्न - सँस्कार व आश्रम व्यवस्था में अंतर क्या है?

उत्तर- संस्कारों और आश्रम व्यवस्था भारतीय संस्कृति के अनिवार्य अंग हैं।

सँस्कार का अर्थ -

*संस्कार* - सम् अर्थात् सम्यक अर्थात् अच्छे, अच्छी

*कार* - अर्थात् कार्य, कृति

जीवन को अच्छी तरह से श्रेष्ठ उद्देश्यों के लिए व्यवस्थित करने की कला व प्रक्रिया सँस्कार कहलाती है।

           प्रत्येक कार्य ही अच्छा अर्थात् संस्कारयुक्त होना चाहिए । उदा. केला खाकर हम छिलका फेंक देते हैं यह कृत्य है । केला खाकर छिलका कूडेदानमें फेंकना यह प्रकृति । केला खाकर छिलका सडकपर फेंक देना, यह विकृति । अन्य व्यक्तिद्वारा रास्तेपर फेंका हुआ छिलका कूडेदानमें फेकना यह संस्कृति ।

आश्रम का अर्थ है -- 'अवस्थाविशेष' , किसी समयावधि को किसी विशेष उद्देश्य व अवस्था के लिए निश्चित कर देना।

प्राचीन काल में व्यक्तिगत व्यवस्था के दो स्तंभ थे - पुरुषार्थ और आश्रम। सामाजिक प्रकृति-गुण, कर्म और स्वभाव-के आधार पर वर्गीकरण चार वर्णो में हुआ था। व्यक्तिगत संस्कार के लिए उसके जीवन का विभाजन चार आश्रमों में किया गया था। ये चार आश्रम थे- (१) ब्रह्मचर्य, (२) गार्हस्थ्य, (३) वानप्रस्थ और (४) संन्यास।

हिन्दू धर्म में सोलह संस्कारों (षोडश संस्कार) का उल्लेख किया जाता है जो मानव को उसके गर्भाधान संस्कार से लेकर अन्त्येष्टि क्रिया तक किए जाते हैं। इनमें से विवाह, यज्ञोपवीत इत्यादि संस्कार बड़े धूमधाम से मनाये जाते हैं। वर्तमान समय में सनातन धर्म या हिन्दू धर्म के अनुयायी में गर्भाधन से मृत्यु तक १६ संस्कारों होते है।

1
गर्भाधान  2. पुंसवन 3 सीमन्तोन्नयन 4 जातकर्म 5 नामकरण 6 निष्क्रमण 7 अन्नप्राशन 8 चूड़ाकर्म 9 विद्यारंभ 10 कर्णवेध 11 यज्ञोपवीत 12 वेदारंभ 13 केशांत 14 समावर्तन 15 विवाह 16 अन्त्येष्टि

🙏🏻श्वेता, DIYA

ध्यान के लिए धैर्य की आवश्यकता है, प्रयास या किसी कर्म को करने की जरूरत नहीं। मनोभूमि की तैयारी करके धारणा का बीज बोकर बस धैर्य पूर्वक बैठे रहो और ध्यान को घटने दो।

*ध्यान के लिए धैर्य की आवश्यकता है, प्रयास या किसी कर्म को करने की जरूरत नहीं। मनोभूमि की तैयारी करके धारणा का बीज बोकर बस धैर्य पूर्वक बैठे रहो और ध्यान को घटने दो।*
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नींद लाने के लिए प्रयास करने की जरूरत नहीं, समस्त प्रयास छोड़ने व विचारों को विराम देने की आवश्यकता होती है। यह विचारों को विराम भोजन के बाद से ही देना शुरू कर देना चाहिए। नींद चैतन्यता रहित विश्राम है, यह अर्ध ध्यान है। ध्यान चैतन्यता सहित दिव्य संसारी विश्राम और आध्यात्मिक यात्रा है।

जिन लोगों को नींद नहीं आती, उसका कारण उनके विचारों का तूफान है, जो थमता नहीं। उस तूफान के साथ वह जबरन नींद लाने की कोशिश करते हैं और नींद से वंचित हो जाते हैं।

इसी तरह ध्यान कोई क्रिया नहीं है, इसे जितना करने की कोशिश करेंगे ध्यान से वंचित हो जाएंगे। जितना सोचेंगे अधिक उतना भटकेंगे। शुरुआत के हज़ारों विचारों को किसी एक विचार पर केंद्रित कीजिये, धीरे धीरे उस एक विचार को भी मत सोचिए। बस बैठ जाइए। एक अपनी श्वांस के चौकीदार बन जाइये। चैतन्यता के साथ जागरूक होकर संसार को व स्वयं को भूलते हुए बस उस ऊर्जा से जुड़ने हेतु स्वयं को प्रस्तुत कर दीजिए।

नींद में बिस्तर पर शरीर रखकर नेत्र बन्द कर लेते हैं, आगे क्या घटता है आपको होश नहीं होता।

ध्यान में आसन पर शरीर को बिठाकर नेत्र बन्द कर लेते हैं, आगे क्या घटता है उसे होशपूर्वक बस देखते हैं। साक्षी भाव से बस जो घट रहा है घटने देते हैं।

जैसे ऑपरेशन थियेटर में ऑपरेशन से पूर्व प्री ओटी की प्रक्रिया से मरीज गुजरता है। मानसिक व शारिरिक रूप से शरीर को ऑपरेशन के लिए तैयार किया जाता है। वैसे ही धारणा ध्यान की pre-OT है।

ठाकुर कहते थे, धारणा जामन है मन दूध। दूध में दही रूपी जामन डालकर बस बैठ जाओ और ध्यान घटने का इंतज़ार करो।

युगऋषि परमपूज्य गुरुदेव पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य जी कहते हैं, मन की भूमि पर धारणा का बीज बो दो, अंकुरण स्वयं होगा। बस धैय पूर्वक साक्षी भाव से इंतज़ार करो। ध्यान अक्रिया है कुछ करने की जरूरत नहीं। किसान की तरह मनोभूमि की पूर्व तैयारी की साधना करो, धारणा का बीज बोकर बस धैर्य पूर्वक ध्यान घटने का इंतज़ार करो, धारणा के बीज से ध्यान के पौधे को निकलने में वक्त लगता है। बस तुम वह वक़्त दो, बस तुम आती जाती श्वांस के चौकीदार बनकर बैठे रहो। ध्यान को घटने दो। स्वयं को उस महाशक्ति से जुड़ने दो।

🙏🏻श्वेता, Diya Delhi

Friday 12 June 2020

प्रश्न- *एक व्यक्ति कितनी देर व क्या क्या अनिवार्य रूप से आत्म उन्नति के लिए उपासना करें?*

प्रश्न- *एक व्यक्ति कितनी देर व क्या क्या अनिवार्य रूप से आत्म उन्नति के लिए उपासना करें?*

उत्तर- उम्र अनुसार व वजन अनुसार ही सांसारिक चिकित्सक शरीर की खुराक व आध्यात्मिक चिकित्सक आत्मा की ख़ुराक़ निश्चित करते हैं।

आध्यात्मिक उपासना की अनिवार्य दैनिक आत्मोन्नति हेतु ख़ुराक़:-

बालक - 5 वर्ष से कम 24 मन्त्र
बालक 5 वर्ष से अधिक व 12 से कम एक माला अनिवार्य है।
किशोर - को 2 माला अनिवार्य है
युवा को 3 माला अनिवार्य है
वृद्ध को 5 माला अनिवार्य है।

जितनी उम्र है उतने मिनट ध्यान अनिवार्य है।

नित्य कोई भी अच्छी आत्मोन्नति हेतु पुस्तक का उतने ही मिनट स्वाध्याय जरूरी है।

जितनी उम्र उतने मिनट योग, व्यायाम व प्राणायाम भी जरूरी है।

इतना दैनिक ऊर्जा के उत्पादन के लिए अनिवार्य हैं।

अध्यात्म शक्ति संचय इससे ऊपर जो भी करेंगे उससे होगा।

💐श्वेता, DIYA

जो अहंकार विहिन वह ही सन्यासी*

*जो अहंकार विहिन वह ही सन्यासी*

एक युवा डॉक्टर संसार त्याग सन्यासी बनने की चाह में हिमालयीन सद्गुरु पास पहुंचा।

गुरु ने कहा - पुत्र सन्यास का अर्थ है, अहंकार का त्याग करना है। अहंकार का उत्तपत्ति पहचान जोड़ने होती है। समस्त पहचान से मुक्ति।

*उदाहरण* - परछाई का अस्तित्व नहीं है, इसी तरह अहंकार का अस्तित्व नहीं है। जब सूर्य के समक्ष कांच कोई परछाई नहीं बनती क्योंकि वह प्रकाश  को आरपार जाने देता है, ऐसे ऑब्जेक्ट सूर्य की रौशनी स्वयं तक रोकते जाने से रोकते हैं उनकी परछाई बनती है। इंसान एक ऐसा ऑब्जेक्ट सूर्य की रौशनी रोकता है, उसकी परछाई बनती है। वह जब चलता है उसे ऐसा भ्रम होता है कि परछाई उसका पीछा कर रही है। लेकिन परछाई प्रत्येक पल बदल रही है, नई किरणें पड़ रही, वह शरीर तक आकर रुक गई, परछाई बन गयी।

जब जब तुम पद प्रतिष्ठा धन संपदा परिवार से अपनी पहचान जोड़ोगे तब तब संसारी अहंकार ग्रसित होगा। या जब जब तप त्याग तपस्या ज्ञान सेवाकर्मो से अपनी पहचान आध्यात्मिक अहंकार ग्रसित होंगे। दोनों विधियों से सन्यास भंग हो जाएगा।

तुम अकर्म करना काँच की तरह बन जाना, नीली रौशनी या पीली रौशनी या अन्य रँग की ख़ुद से होकर गुजार देना और मुझ तक आने देना। यही गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन कहा, जो भी कर्म करना निमित्त बनकर करना, सभी कर्मो अर्पण कर देना। ईश्वरीय अनुसाशन जीवन पालन करना।

कर्ताभाव से कोई कार्य करोगे तो अहंकार की परछाई बनेगी, निमित्त बनकर निःश्वार्थ भाव से सेवा कार्य करोगे। कांच की तरह तुम्हारी कोई परछाई नहीं बनेगी। तुम्हारे ईश्वरीय प्रकाश झलकता दिखाई देगा।

जब कोई तुम्हारे लिए ताली बजाए या गाली दे तो उसे सद्गुरु अर्पणमस्तु या श्रीहरि अर्पणमस्तु कर देना।

सन्यास दीक्षा बाद गुरु ने उससे तीन वर्षो  तप-साधना करवा के उसे संसार की सेवा के लिए संसार भेज दिया।

✨✨✨✨✨✨✨

सन्यासी युवा चिकित्सक तो था ही, सुदूर ग़ांव गया। सेवा कार्य लग गया। ग्रामोत्थान लग गया। ग़ांव में स्वास्थ समृद्धि बढ़ गयी, सब ग्रामीण खुश हुए। सब चौपाल युवा सन्यासी प्रवचन सुनते, जहां लोग उससे अपनी समस्या खुश होकर जाते। सब युवा सन्यासी का बहुत सम्मान करते। जो भी तालियां व सम्मान युवा सन्यासी मिलता वह सबको गुरु चरणों मे श्रीगुरु अर्पनमस्तु कर देता। ऐसे कई वर्ष बीत गए।

एक दिन सुबह लोगों गालियाँ सुनकर चौक उठ गया। लट्ठ लिए लोग खड़े थे, उन सबने घर व औषधालय सब जला दिया। आठ दस लट्ठ युवा सन्यासी मारा, रक्त धार फुट पड़ी। युवा सन्यासी ने विनम्र शांत स्वभाव से ग्राम वासियों से कहा जितना मारना मार लो, जितनी गालियां देनी दे लो। कृपाकर यह तो बताओ मेरा अपराध क्या है?

एक वृद्ध ने नवजात शिशु को युवा सन्यासी की गोदी थमाते हुए उससे बोला, शर्म नहीं आती गाँव की लड़की कुंवारी माँ बना दिया, सन्यासी नहीं हो, तुम ढोंगी ढोंगी हो। युवा सन्यासी ने बच्चा देखा मुस्कुराया - *मन ही मन बोला - सद्गुरु अर्पणमस्तु*। शायद मेरी परीक्षा लेने यह नन्हे देवदूत गुरूकृपा से आये हैं। बच्चा उसके पास छोड़कर ग़ांव वाले चले गए। बच्चा भूख रोने लगा। घर और औषधालय जल चुका। युवा सन्यासी उस बच्चे की भूख मिटाने घर घर भिक्षाटन दूध मांगने लगा। जो लोग उसके चरण छूते थे, सम्मान दृष्टि देखते थे। वह उसे गालियां देते और उसके मुंह पर दरवाजा बंद कर देते।

जितनी गालियाँ मिलती - उतनी गुरु अर्पणमस्तु कर देता, ठीक वैसे ही जैसे वह तालिया व सम्मान श्रीगुरु अर्पनमस्तु करता था। अंत मे उस लड़की के घर पहुंचा जिसका वह बच्चा था, वह सन्यासी लड़की को पहचानता भी न था। लड़की से सहज भाव से कहा - बहन जितनी गालियां देनी है मुझे दे दो, यह बच्चा सुबह से भूखा है। मेरे अपराध की सज़ा इस अबोध मत दो। बच्चे तो भगवान का रूप होते हैं। इस पर दया करो। इस बच्चे को थोड़ा दूध दे दो। लड़की ग्लानि भर उठी, स्वयं को रोक न सकी। बच्चा सन्यासी हाथ लिया, दो मैं दूध पिला कर लाती हूँ और दूध पिलाने के ले गयी। सन्यासी दरवाज़े खड़ा रहा। इतने में लड़की पिता बाहर से आया, पुनः जोर जोर से सन्यासी गाली देते बोला, तुम्हारी इतनी हिम्मत जिसकी इज्जत भंग की उसके घर भिक्षा मांगने आये हो। लडक़ी बच्चा लेकर बाहर आई और रोते रोते सब सत्य समस्त ग्रामवासियों को बताया कि मैंने आप सबके क्रोध अपनी प्रेमी की जान बचाने के लिए झूठ बोला- यह कि निर्दोष निष्पाप सन्यासी मेरे बच्चे के बच्चे पिता है। जिससे मेरे प्रेमी इस बच्चे के असली पिता शहर के बाहर जाने का वक़्त मिल जाये। अब शहर वह पहुंच गया है। मुझे हे सन्यासी! क्षमा कर दो। मुझे अंदाजा नहीं था यह ग़ांव वाले इतनी दुर्दशा करेंगे। यह आपकी सेवा कार्य भूल जाएंगे। मैं अपने कुकृत्य शर्मिंदा हूँ। समस्त ग़ांव इकट्ठा हो गया। लड़की की अपराध स्वीकृति सुनकर सारा ग्राम ग्लानि भर गया। जिस सन्यासी हमारे उत्थान में वर्षो खर्च किये, जो हमारा सम्मानीय था। हमने झूठे आरोप के चलते इन पर कितना अत्याचार किया। सब चरणों पुनः गिर गए। पुनः सन्यासी ने सबकी क्षमा व ग्लानि को सद्गुरु अर्पनमस्तु कर दिया।

सब ग्राम वालों कहा - आपने बताया क्यों नहीं यह बच्चा आपका नहीं है? आप ने सफाई क्यों नहीं दी? हाय हमें तो नरक मिलेगा, निष्पाप निष्कलंक युवा सन्यासी को मारा पीटा और सबकुछ जला दिया। सुबह अन्न जल तक नहीं दिया।

सन्यासी शान्त स्वर में कहा - क्रोध भरे  व्यक्तियों सफाई देने की आवश्यकता नहीं होती। सत्य परेशान हो सकता, पराजित नहीं। सत्य में आसीन व्यक्ति को सफाई देने की आवश्यकता नहीं होती।

मैं लड़की झूठे आरोप मजबूरी समझ चुका था, वह प्रेमी को बचाना चाहती थी। तुम लोग जिस अपराध के लिए मुझे पीट चुके थे, घर और औषधालय जला चुके। सफाई देता, तो तुम लोग उसके प्रेमी जिंदा नहीं छोड़ते, उसका घर व दुकान जला देते, उसके परिवार को भी प्रताड़ित करते । यदि सचमुच तुम सबको मुझे  पीटने व मेरा अपमान की ग्लानि है, तुम उस लड़की के प्रेमी क्षमा कर दो, उन दोनों का विवाह करवा दो।

फ़िर बच्चे को गोद लेते और उसे प्रणाम करते हुए बोला - हे नन्हे देवदूत! क्या आपकी मैं परीक्षा में पास हुआ? आपने जो जीवन की शिक्षा दी उसके लिए धन्यवाद। आपने सब पाप और पुण्य सब बराबर कर दिया।

वह सन्यासी ग़ांव वालो अपराध बोध से मुक्त कर उन्हें क्षमा करके अपनी यात्रा बढ़ गया।

अभी गाँव पार करके आगे बढ़ा ही था एक वृक्ष के नीचे पद्मासन लगाए उसके सदगुरु बैठे हुए मिले, उसने गुरु श्रीचरणों में प्रणाम किया, गुरु ने प्यार भरा हाथ उसके सर पर रखा। गुरु ने गद गद स्वर में मुस्कुराते कहा, तुमने "मैँ" के होने और "किसी भी संसारी व आध्यात्मिक पहचान की परछाई के अहंकार"  मुक्त हो गए हो।  गुरु से मिली प्रसंशा को श्रीगुरु अर्पणमस्तु कर दिया। "गुरु सेवा सौभाग्य" और "गुरु की इच्छा की पूर्ति" के लिए दिशा निर्देश माँगा। जो आदेश मिला उसे पूरा करने चल पड़ा।

🙏🏻 श्वेता, DIYA

Thursday 11 June 2020

प्रश्न - *जीवन में पवित्रता का महत्त्व क्या है? जीवन पवित्र हो इसके लिए क्या करना होगा?*

प्रश्न - *जीवन में पवित्रता का महत्त्व क्या है? जीवन पवित्र हो इसके लिए क्या करना होगा?*

उत्तर- आत्मीय भाई,
बाह्य साफ़-सफ़ाई स्वच्छता कहते हैं, और आंतरिक साफ-सफ़ाई को पवित्रता कहते हैं।

समुद्र के किनारे खड़े हो देखो, तुम उसके अत्यंत थोड़े भाग को ही देख सकोगे, कुछ दृश्य है और बहुत कुछ अदृश्य है। आसमान की तरफ़ देखो, बहुत थोड़ा दृश्य औऱ बहुत कुछ अदृश्य है।

ऐसे ही दूसरे मनुष्य को देखोगे या स्वयं को देखोगे तो कुछ ही दृश्य है बहुत कुछ अदृश्य है। प्रत्येक स्थूल दिखने वाले कर्म के पीछे एक अदृश्य प्रेरणा, उद्देश्य कार्य कर रहा होता है।

कर्म (Action) - जब सही नियत-भावना( Intention) से किया जाता है। तब वह पवित्र कर्म कहलाता है।

जीवन जब श्रेष्ठ उद्देश्य के लिए कर्मयोग करते हुए जिया जाता है तब वह पवित्र जीवन कहलाता है।

जीवन में पवित्रता का अर्थ है कि जो बाह्य जीवन जो दिख रहा है और जो अंतर्जगत में चल रहा है दोनों पवित्र(परमात्मा को प्रिय) होने चाहिए। जीवन यज्ञमय व कल्याणकारी होना चाहिए। मन बुद्धि चित्त व अहंकार सब कुछ परमार्थ निमित्त कार्य में नियोजित होना चाहिए।

सूर्य निःश्वार्थ ब्रह्माण्ड में प्राण संचार करता है, बादल निःश्वार्थ बरसता है, हवा निःश्वार्थ बहती है, जल स्रोत निःश्वार्थ जल उपलब्ध करवाते हैं, वृक्ष वनस्पति वधरती निःश्वार्थ भोज्य देते हैं। इसीतरह प्रत्येक मनुष्य को परमात्मा की बनाई सृष्टि जो यज्ञमय है कल्याणकारी है, उसके अनुसार स्वयं को ढालकर यज्ञमय, कल्याणकारी जीवन अपनाना चाहिए। मन वचन कर्म से परमात्मा को जो प्रिय है वह करना चाहिए।

✨ *जब परमात्मा को जो प्रिय है आप करेंगे तो परमात्मा भी आपको जो प्रियहोगा वह देगा। अनुदान-वरदान से झोली भर देगा।*✨

💫 *जिस व्यक्ति के मन, वचन, कर्म, विचार व आचरण परमात्मा को प्रिय होगें, उसका  जीवन ही पवित्र जीवन होगा।* 💫

सूत्र:- परमात्मा + को + प्रिय= पवित्र

🙏🏻श्वेता, DIYA

Wednesday 10 June 2020

मैं लाखों वर्षो से यात्रा पर हूँ

मैं लाखों वर्षो से यात्रा पर हूँ, न जाने कितने शरीर वस्त्रों पर की तरह बदले, न जाने कितनी बार चिता में पुराने शरीर को जलते देखा, गर्भ में नए शरीर के निर्माण को देखा, स्वयं न जाने कितने जन्मों में कितनी आत्माओं को जन्म दिया, पिछले जन्मों में न जाने कौन कौन स्वजन था, क्या क्या पाप किया क्या क्या पुण्य किया कुछ पता नहीं है। प्रत्येक जन्म में कितने पल किस शरीर में होश में थी पता नहीं, मग़र मेरे इस जन्म के शरीर में बचे हुए वर्षो में प्रत्येक पल होश पूर्वक रहना चाहती हूँ। चैतन्य जागृत रहना चाहती हूँ। इस जीवन यात्रा को और अधिक महत्त्वपूर्ण बनाना चाहती हूँ - मैं हूँ कौन? कहाँ से आई हूँ? कहाँ जाऊंगी? दृश्य के परे अदृश्य जगत को समझना चाहती हूँ.... सफलता व असफ़लता के चक्कर मे नहीं पड़ना चाहती....बस अनवरत इस दिशा में प्रयत्नशील रहना चाहती हूँ...

श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन

Monday 8 June 2020

आत्मचिकित्सा - शक्तिस्रोत हमारे भीतर है।

*आत्मचिकित्सा - शक्तिस्रोत हमारे भीतर है।*

आत्मीय भाईयों एवं बहनों,
आशा है आप सब कुशल मङ्गल होंगे।

हम सभी जो जॉब करते हों या गृहकार्य या वृद्धावस्था के कारण हो, शरीर में दर्द के कारण कभी न कभी परेशान होते हैं। दर्द का ट्रीटमेंट न होने पर स्वभाव चिड़चिड़ा हो जाता है और   फिर किसी भी कार्य में मन नहीं लगता।

रोज़ रोज़ किसी से सेवा लेना और स्वयं की मालिश करवाना अच्छा भी नहीं लगता। फ़िर क्या करें कैसे इन दर्दों से छुटकारा पाएँ।

दर्द से छुटकारा हेतु पहले किचन और फ़िर अन्तर्मन की चिकित्सा केंद्र में जाना पड़ेगा।

1- जिनको जोड़ो में दर्द है वह देशी लहसन की दो कली बारीक काटकर गर्म पानी के साथ सुबह दवा की तरह गटक जाएँ। 5 मिनट बाद सौंफ ख़ाकर मुंह का स्वाद ठीक कर लीजिए। जितने भी जोड़ हैं उनको हल्का फुल्का ट्विस्ट करके इधर उधर घुमा के व्यायाम कर लीजिए जिससे जोड़ो में जमा गैस बाहर निकल जाए। अब कपड़े से पानी निकालने के लिए क्या करते हैं निचोड़ते हैं न, वैसे ही शरीर के अंगों को थोड़ा निचोड़ने वाली ट्विस्ट करने वाली अंगड़ाई व उठक बैठक वाली एकस्रसाइज़ कर लें। यूट्यूब की मदद ले लें। जोड़ो व बदन में दर्द पाचन के दौरान उत्तपन्न गैस के जमाव के कारण होती है उसे आपको निकालना है।

2- सरसों के तेल में अजवायन या लौंग डालकर घर मे उबालकर फिर ठंडा होने पर छान लें, या कोई बाजार से मालिश का तेल ले लें। जहां तक हाथ पहुंचे प्रत्येक दर्द की जगह या शरीर की स्वयं मालिश करें। कोशिश करें किसी की भी मदद न लें।

3- नहाते समय एक मग में पहले एक से दो मुठ्ठी नमक थोड़े से पानी मे घोल लें, चेहरे व सर को छोड़कर, गर्दन व गर्दन के नीचे सभी अंगों पर लिक्विड सोप की तरह अच्छे से मलकर स्नान कर लें। चेहरे पर मुल्तानी मिट्टी का लेप करके नहाएं, इससे नकारात्मक ऊर्जा डिस्चार्ज हो जाएगी, सकारात्मक प्राणऊर्जा भरने लगेगी। स्नान के वक्त निम्नलिखित मन्त्र से माता गंगा का स्मरण करें:-

ॐ ह्रीं गंगायै ॐ ह्रीं स्वाहा

इस जल स्नान से जल तत्व शरीर का संतुलित हो रहा है। प्राणवान हो रहा है।

4- पूजन स्थल पर कम्बल बिछाकर सुखासन पर कमर सीधी कर बैठ सकते हों तो अति उत्तम, नहीं तो कुर्सी पर कम्बल बिछाकर तकिए की सहायता से कमर सीधी कर बैठें। दिन में कम से कम 3 घण्टे थोड़ा ज्यादा जैसी भी सुविधा हो चलते हो या बैठते कमर सीधी व गर्दन सीधी कर अधिक से अधिक ऊर्जा ब्रह्माण्ड से स्वयं के भीतर खींचिए। गायत्रीमंत्र जपते हुए उगते सूर्य का ध्यान कीजिये, अब अपने शरीर के एक एक अंग पर सूर्य की रौशनी पड़ने व उससे वह स्थान गर्म होने का ध्यान कीजिये। यह ऊर्जा मालिश है।

5- कम से कम 5 से 10 मिनट खुली आँखों से देशी घी से जलाए दीपक को देखिए, भावना कीजिये यह अग्नि का प्राण स्नान हो रहा है। अग्नि तत्व शरीर का संतुलित हो रहा है। दैनिक यज्ञ कर सकें तो अतिउत्तम है।

6- खिड़की या बालकनी में जाईये,  यदि सुविधा नहीं तो पंखे के नीचे बैठिए, वायु स्नान का अनुभव कीजिये। वायु तत्व शरीर मे संतुलित हो रहा है। 5 से 10 मिनट हवा के प्रत्येक स्पर्श को अनुभूत कीजिये।

7- पृथ्वी तत्व के लिए ज़मीन पर हरी घास पर चलिए, यदि हरी घास व मिट्टी उपलब्ध नहीं तो सीमेंट की फ़र्श पर खड़े हो जाइये। भावना कीजिये माता पृथ्वी आपके पैर के तलवों से ऊर्जा आपके भीतर प्रवेश करवा रही हैं। 5 से 10 मिनट यह ध्यान कीजिए। पृथ्वी तत्व संतुलित होगा।

8- आकाश तत्व के लिए आकाश को 5 से 10 मिनट खुली आंखों से देखिए, भावना कीजिये कि आकाश तत्व शरीर के भीतर संतुलित हो रहा है।

9- अपना हाथ जगन्नाथ, जो स्वयं की मदद खुद नहीं करता उसकी मदद कोई नहीं करता। भगवान भी मदद नहीं करता। अतः जितनी उम्र है उतने मिनट का ध्यान प्राण ऊर्जा से शरीर को ओत प्रोत करने का करना ही पड़ेगा। कुर्सी या सोफा में कमर सीधी कर बैठे, व निम्नलिखित ध्यान करें:-

*युगऋषि* पुस्तक 📖 *पँच तत्वों द्वारा सम्पूर्ण रोगों का निवारण* में गिरा हुआ स्वास्थ्य सम्हालने, आत्मविश्वास बढाने व व्यक्ति के शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य में आशातीत सुधार हेतु *भावना मन्त्र* को विस्तार से बताया है।

अच्छे सकारात्मक विचार से 👉🏻 अच्छी भावनाएं 👉🏻 अच्छी भावनाओं से 👉🏻 स्वास्थ्यकर अच्छे हार्मोन्स स्राव 👉🏻 जिससे स्वास्थ्य लाभ मिलता है।

प्रतिदिन प्रातःकाल या सायं काल एकांत स्थान पर शांत चित्त होकर, नेत्र बन्द करके बैठ जाइए। शरीर को शिथिल व आरामदायक मुद्रा में रखिये। सब ओर से ध्यान हटाकर शरीर को निम्नलिखित *भावना मन्त्र* पर मन-चित्त को ध्यानस्थ कीजिये। दृढ़ता से यह विश्वास कीजिये कि *भावना मन्त्र* में कहे गए *दिव्य शक्ति युक्त वचन* से आपके स्वास्थ्य में सुधार हो रहा है। आप स्वस्थ हो रहे हैं।

सर्वप्रथम मन ही मन 5 बार गायत्रीमंत्र जपिये व 3 बार महामृत्युंजय मंत्र जपिये:-

गायत्रीमंत्र - *ॐ भूर्भुवः स्व: तत् सवितुर्वरेण्यं। भर्गोदेवस्य धीमहि। धियो यो न: प्रचोदयात्।*

महामृत्युंजय मंत्र - *ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।*
*उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्॥*

कुछ क्षण ईश्वर का ध्यान कीजिये, फिर भावना मन्त्र के एक एक वाक्यों को ध्यान से बोलिये व महसूस कीजिये।

👉🏻🌹🌹 *भावना मन्त्र* 🌹🌹👈🏻

"मेरे रक्त का रंग खूब लाल है, यह मेरे उत्तम स्वास्थ्य का द्योतक है। इसमें अपूर्व ताजापन है। इसमें कोई विजातीय तत्व नहीं है, इस रक्त में प्राण तत्व प्रवाहित हो रहा है। मैं स्वस्थ व सुडौल हूँ और मेरे शरीर के अणु अणु से जीवन रश्मियाँ नीली नीली रौशनी के रूप में निकल रही है। मेरे नेत्रों से तेज और ओज निकल रहा है, जिससे मेरी तेजस्विता, मनस्विता, प्रखरता व सामर्थ्य प्रकाशित हो रहा है। मेरे फेफड़े बलवान व स्वस्थ हैं, मैं गहरी श्वांस ले रहा हूँ, मेरी श्वांस से ब्रह्मांड में व्याप्त प्राणतत्व खीचा जा रहा है, यह मुझे नित्य रोग मुक्त कर रहा है। मुझे किसी भी प्रकार का रोग नहीं है, मैं मेरे स्वास्थ्य को दिन प्रति दिन निखरता महसूस कर रहा हूँ। यह मेरी प्रत्यक्ष अनुभूति है कि मेरा अंग अंग मजबूत व प्राणवान हो रहा है। मैं शक्तिशाली हूँ। आरोग्य-रक्षिणी शक्ति मेरे रक्त के अंदर प्रचुर मात्रा में मौजूद है।"

"मैं शुद्ध आत्मतेज को धारण कर रहा हूँ, अपनी शक्ति व स्वास्थ्य की वृद्धि करना मेरा परम् लक्ष्य है। मैं आधिकारिक शक्ति प्राप्त करूंगा, स्वस्थ बनूँगा, ऊंचा उठूँगा। अब मैं समस्त बीमारी और कमज़ोरियों को परास्त कर दूंगा। मेरे भीतर की चेतन व गुप्त शक्तियां जागृत हो उठी हैं। मैं अपने जीवन में सफ़लता के मार्गपर अग्रसर हूँ। मैं अपनी समस्त समस्याओं के समाधान हेतु सक्षम बन गया हूँ।"

"अब मैं एक बलवान शक्ति पिंड हूँ, एक ऊर्जा पुंज हूँ। अब मैं जीवन तत्वों का भंडार हूँ। अब मैं स्वस्थ, बलवान और प्रशन्न हूँ।"

निम्नलिखित सङ्कल्प मन में पूर्ण विश्वास से दोहराईये:-

1- मैं त्रिपदा गायत्री की सर्वशक्तिमान पुत्र/पुत्री हूँ।
2- मैं बुद्धिमान, ऐश्वर्यवान व बलवान परमात्मा का बुद्धिमान, ऐश्वर्यवान व बलवान पुत्र/पुत्री हूँ।
3- मैं गायत्री की गर्भनाल से जुड़ा/जुड़ी हूँ और माता गायत्री मेरा पोषण कर रही हैं। मुझे बुद्धि, स्वास्थ्य, सौंदर्य व बल प्रदान कर रही है।
4- मैं वेदमाता का वेददूत पुत्र/पुत्री हूँ। मुझमें ज्ञान जग रहा/रही है।
5- जो गुण माता के हैं वो समस्त गुण मुझमें है।
👇🏻👇🏻
फिर गायत्रीमंत्र - *ॐ भूर्भुवः स्व: तत् सवितुर्वरेण्यं। भर्गोदेवस्य धीमहि। धियो यो न: प्रचोदयात्।* बोलते हुए दोनों हाथ को आपस मे रगड़िये। हाथ की हथेलियों को आंखों के उपर रखिये धीरे धीरे आंख खोलकर हथेलियों को देखिए। फिर हाथ को पहले चेहरे पर ऐसे घुमाइए मानो प्राणतत्व की औषधीय क्रीम चेहरे पर लगा रहे हो। फिर हाथ को समस्त शरीर मे घुमाइए।

शांति तीन पाठ निम्नलिखित मन्त्र द्वारा बोलिये सबके स्वास्थ्य और आरोग्य के लिए दोहराइये:-

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः,
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःख भाग्भवेत्।
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः

सभी मुझे मित्रवत देखें, और मैं सबको मित्रवत देखूँ। मैं जिसे देखूँ उसका कल्याण हो, जो मुझे देखे तो मेरा भी कल्याण हो। सभी सुखी हों, सबका उज्ज्वल भविष्य हो।

मेरे मन में किसी के लिए कोई राग, द्वेष और वैर भाव नहीं है। मेरे सभी मित्र हैं, मैं आत्मा हूँ, मैं सबका मित्र हूँ।

🙏🏻श्वेता, DIYA


मर्ज़ी आपकी है दर्द का रोना रोना है, या स्वयं का इलाज़ स्वयं करना है। मानसिक अपाहिज़ बनना है, या मानसिक रूप से मज़बूत बनना है। स्वयं आत्मनिर्भर बनना है या दूसरों पर बोझ बनना है। जैसा निर्णय आप लेंगे वैसा फ़ल भी आप भोगेंगे।

चाईनीज़ सामान का करें बहिष्कार

*चाईनीज़ सामान का करें बहिष्कार*
Boycott made in China, software in a week and hardware in a year..

सृजन सैनिक बनकर,
देशहित क्या जी सकोगे,
देशहित क्या,
चाईनीज़ सस्ता सामान,
खरीदना छोड़ सकोगे?

क्या देशहित,
टिक टॉक का मनोरंजन त्याग सकोगे?
क्या देशहित,
चाइनीज़ क्रॉकरी छोड़ सकोगे?

स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों से,
एक वादा कर सकोगे?
चाईनीज़ सामान का,
सामूहिक बहिष्कार कर सकोगे?

जब कोई भारतीय,
चाईनीज़ सामान खरीदता है,
वह वस्तुतः भारतीय सैनिको पर चलाने हेतु,
एक गोली चाईनीज़ सैनिकों के हाथों में देता है,
एक गोली आतंकियों तक,
पहुंचाने में भी वह मदद करता है।

हमारी जेबों से ही,
चाईनीज़ व्यापारियों को पोषण मिलता है,
चाईनीज़ व्यापारियों से ही,
चीन सरकार को पोषण मिलता है,
हमारे ही पैसों से  ही,
फिर गोली बारूद ख़रीदा जाता है,
उन्ही पैसों से चाईनीज़ हमारे देश को,
युद्ध की धमकी देता है,
हमारे दुश्मन पाकिस्तान को भी,
हमारे द्वारा कमाए पैसों से ही,
चाइना फंड करता है।

सोचो ज़रा!
यदि हम सब,
चाईनीज़ सॉफ्टवेयर,
चाईनीज़ हार्डवेयर,
और अन्य सभी सामानों का,
सामूहिक बहिष्कार कर दें,
चाइना की आर्थिक जड़ पर ही,
हम सब मिलकर हमला कर दें,
अपनी जेबों से पैसा,
चाइना जाने रोक दें,
चाईनीज़ सरकार की,
आर्थिक जड़ खोखली कर दें,
चाइना आर्थिक रूप से बर्बाद होगा,
पाकिस्तान की भी मदद वह कर न सकेगा।
एक तीर से दो निशाना सध जाएगा,
चाइना व पाकिस्तान का अस्तित्व,
पांच वर्षों में ही मिट जाएगा।

बस हम सब एक जुट हो जाएं,
चाईनीज़ सामानों का,
सामूहिक बहिष्कार कर दें,
भारत को आर्थिक मजबूती दे दें,
लोकल सामान की मार्केटिंक,
हम स्वयं कर दें।
लोकल के लिए वोकल बन जाएं,
प्रत्येक हिंदुस्तानी समान के लिए,
प्रत्येक हिंदुस्तानी ग्राहक बन जाये।


🙏🏻🇮🇳 जय हिंद जय भारत 🇮🇳🙏🏻
🙏🏻 श्वेता, DIYA

#boycottchina

हे केशव! अपनों से कैसे युद्ध करूँ?*

*हे केशव! अपनों से कैसे युद्ध करूँ?*

मैं मजबूर हूँ, लाचार हूँ,
मोहग्रस्त हो गया हूँ?
हे केशव! अपनों से कैसे युद्ध करूँ?
आत्मा को कैसे ग्लानि युक्त करूँ?
पितामह पर कैसे तीर चलाऊँ?
गुरुद्रोण के सामने कैसे शस्त्र उठाऊँ?

हे केशव! अपनों से कैसे युद्ध करूँ?

हे पार्थ! यह महाभारत अपनों के ही बीच है,
परिवार के सदस्यों के ही बीच है,
भाईयों व स्वजनों के बीच है,
बन्धु व बांधवों के बीच है,
चयन तो सबको करना होगा,
एक पक्ष तो सबको चुनना होगा,
धर्म व अधर्म के बीच की इस लड़ाई में,
अब तटस्थ कोई नहीं रह सकेगा,
पांडव व कौरव में से एक पक्ष तो चुनना पड़ेगा।

हे केशव! अपनों से कैसे युद्ध करूँ?

हे पार्थ! युद्ध में कोई अपना पराया नहीं होता,
युद्ध में केवल मित्रपक्ष व शत्रुपक्ष होते हैं,
जो भी तुम्हारे शत्रुपक्ष में खड़ा है,
वह कितना ही प्रिय व सम्माननीय क्यों न हो,
अब उसकी एक और पहचान है,
वह अब योद्धा शत्रुपक्ष का है,
युद्ध मे तुम यह तय नहीं कर सकते,
कि शत्रुपक्ष के किस योद्धा व सैनिक को मारना है,
किस योद्धा व सैनिक को छोड़ना है,
तुम बाध्य हो हर उस व्यक्ति से लड़ने के लिए,
जो शत्रुपक्ष के समर्थन में खड़ा है अस्त्र-शस्त्र लिए।

हे केशव! अपनों से कैसे युद्ध करूँ?

हे पार्थ! प्रेम व मोह में,
स्वयं को कमज़ोर मत पड़ने दो,
जिन चरणों में सदा झुकाया सर,
अब उनसे स्वयं को लड़ने दो,
वह महान योद्धा थे मग़र एक गुनाह कर बैठे,
द्रौपदी चीरहरण को,
मात्र एक व्यक्तितगत समस्या मान बैठे,
मौन रहकर मौन समर्थन दे डाला,
अपने ही हाथों अपना सम्मान धो डाला,
जो जो द्रौपदी को वस्त्रहीन करने चले थे,
सबके सब वस्त्रहीन उस सभा में हो गए थे,
यह अपराध अक्षम्य है पार्थ,
छोड़ो अपनी ग्लानि का बोध,
उठाओ अस्त्र और करो संधान,
शत्रुपक्ष का अब कर दो सूर्यास्त।

हे पार्थ! यह युद्ध धर्म के रक्षार्थ है,
षड्यन्त्रकारी -अधर्मियों के नाश के लिए है,
शकुनि व दुर्योधन जैसों के विनाश के लिए है,
लेक़िन उन तक पहुंचने के मार्ग में,
ये भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य इत्यादि बाधक है,
उन तक पहुँचने के लिए,
इन सम्माननियों को मार्ग से हटाना ही पड़ेगा,
इनसे विवशता में ही सही,
युद्ध तो तुम्हे करना ही पड़ेगा।

यह सभी महान है,
इनके लिए मेरे हृदय में भी सम्मान है,
लेकिन वर्तमान में हुए षड्यंत्र में,
यह मौन रूप से सम्मिलित हैं,
द्रौपदी चीरहरण के,
यह मूक समर्थक हैं,
इसलिए आज इनके विरुद्ध,
तुम्हारे हाथ मे शस्त्र है।

हे पार्थ! अपनों से धर्म के लिए युद्ध करो,
जिनके चरणों में सदा झुकाया सर,
आज उनसे ही धर्म के लिए युद्ध करो।

🙏🏻श्वेता, DIYA

दो बड़े भक्त - एक विनम्र और दूसरा उग्र*

*दो बड़े भक्त - एक विनम्र और दूसरा उग्र*

त्रेता युग में जन्मे,
दुनियाँ के दो सबसे बड़े भक्त,
एक स्वभाव से था उग्र,
एक स्वभाव से था विनम्र।

दोनों अतुलित बल के धाम थे,
दोनों ज्ञान के भंडार थे,
एक पूजनीय व दूसरा तिरस्कृत हुआ,
एक का मंदिर प्रभु से दूना बना।

वेदों के दोनों ज्ञाता थे,
बल बुद्धि व शक्ति के सागर थे,
फ़िर ऐसा क्या हुआ,
एक पूजनीय व दूसरा तिरस्कृत हुआ।

वह विनम्र भक्त श्री हनुमान थे,
वह अहंकारी उग्र भक्त राक्षस राज रावण था,
हनुमानजी कहते - *प्रभु आपकी इच्छा पूर्ण हो*,
रावण कहता - *प्रभु मेरी इच्छा पूर्ण हो*।

हनुमानजी राम से कहते
- *प्रभु आपका सेवक हूँ*,
- *आपकी सेवा का सौभाग्य चाहता हूँ*
- *आपकी शरण में रहना चाहता हूँ।*
रावण कहता शिव से कहता
 - *प्रभु आपका महान भक्त बनना चाहता हूँ*
- *आपको लँका ले जाना चाहता हूँ*
- *प्रभु आप पर अपना अधिकार चाहता हूँ।*

रावण ने शक्ति प्रदर्शन कर,
कैलाश उठाना चाहा,
विफ़ल रहा,
हनुमानजी ने भक्ति का प्रदर्शन कर,
राम लक्ष्मण को कंधे पर उठाया,
सदा हनुमानजी सफल रहे,
हिमालय से लक्ष्मण की प्राण रक्षा के लिए,
पर्वत उठाकर लाने में भी सफ़ल रहे।

रावण की भक्ति भी एक प्रतिस्पर्धा थी,
दूसरे भक्तों से ज्यादा महान बनने की चाहत थी,
हनुमानजी की भक्ति एक सेवा थी,
सेवा के सौभाग्य में रत रहने की चाहत थी।

रावण ने पूरी रामायण में,
केवल हनुमानजी के बल की प्रसंशा की,
जब हनुमानजी के एक मुट्ठी के प्रहार को,
रावण सह न सका था।

जब भी भगवान राम व सिया ने,
वर मांगने का हनुमानजी से अनुरोध किया,
तब तब निर्मल भक्ति,
और प्रभु सेवा माँगकर,
हनुमानजी ने संतोष किया।

लक्ष्मण भरत शत्रुघ्न,
सब श्रीराम की सेवा का अवसर तलाशते,
हनुमानजी की फुर्ती व सेवा के लिए ततपरता के कारण,
सभी सेवा के अवसर हनुमानजी ही पाते।

श्रीराम सिया ने,
स्वयं से ही प्रशन्न हो वरदान दिया,
प्रिय भक्त हनुमान मेरा मन्दिर,
तुम्हारे बिना न पूर्ण होगा।

मुझसे अधिक मन्दिर,
धरती पर तुम्हारे बनेंगे,
जिस पर तुम्हारी कृपा होगी,
वह मेरी कृपा का भी अधिकारी होगा।

बोलो! पवनपुत्र हनुमान की जय!
सियापति श्रीरामचन्द्र की जय!

भक्ति की नाव में,
हनुमानजी भी बैठे,
राक्षस राज रावण भी बैठा,
हनुमानजी की निःश्वार्थ भक्ति ने,
विनम्र स्वभाव ने नाव को मजबूती दी,
रावण की स्वार्थी भक्ति ने,
उग्र अहंकारी स्वभाव ने नाव में जंग लगा दी,
हनुमानजी जी तर गए,
रावण अहंकार में डूब कर मर गया।

🙏🏻श्वेता, DIYA

Sunday 7 June 2020

प्रश्न - *विनम्रता व कायरता में क्या अंतर है? उग्रता व बहादुरी में क्या अंतर है?*

प्रश्न - *विनम्रता व कायरता में क्या अंतर है? उग्रता व बहादुरी में क्या अंतर है?*

उत्तर- आत्मीय भाई,

*विनम्रता* - धर्मनिष्ठ ज्ञानी व्यक्ति में विनम्रता आती है। हनुमानजी ज्ञान के भंडार थे, पुरुषार्थ था, बल था, असुरों को नष्ट करने में समर्थ थे। मग़र ज्ञान व शक्ति का प्रदर्शन मात्र भय दूर करने के लिए, अज्ञानता को नष्ट कर मार्गदर्शन करने के लिए और अशक्तों के रक्षण हेतु करते थे। हनुमानजी ने कभी किसी को भय दिखाने के लिए नहीं और अहंकार प्रदर्शन के लिए बल व ज्ञान का प्रदर्शन नहीं किया। इसे विनम्रता कहेंगे।

*कायरता* - शक्तिवान व पुरुषार्थ करने में सक्षम व्यक्ति यदि अनीति से लोहा नहीं ले रहा तो वह विनम्रता नहीं अपितु कायरता होती है। मृत्यु के भय से, बदनामी के भय से, जॉब जाने के भय से या अन्य किसी भय से चुपचाप अत्याचार सहना और अपनी शक्ति सामर्थ्य का उपयोग न करना। इसे कायरता कहेंगे।

*लाचार* - अक्षम व अपाहिज को कायर नहीं कहा जाता वो बेबस व लाचार कहलाते हैं।

*उग्रता* -  वह होती है जब शक्ति प्रदर्शन कमजोरों पर होता है, जब जनता में भय व्याप्त करने व अहंकार के प्रदर्शन के उद्देश्य से शक्ति प्रदर्शन होता है। उग्रता में हमेशा ज्ञान का प्रदर्शन अहंकार के पोषण हेतु होता है। रावण हनुमानजी जैसे ही महा ज्ञानी और शक्तिशाली था। मगर उसका ज्ञान व बल का प्रदर्शन अहंकार के पोषण के लिए होता था।

*बहादुरी* -  में व्यक्ति अपनी सामर्थ्य अनुसार या सामर्थ्य से अधिक प्रयत्न करके न सिर्फ स्वयं का रक्षण करता है अपितु दुसरो के रक्षण का भी प्रयत्न करता है। अनीति से लोहा लेने को ततपर रहता है।

भक्त हनुमानजी भी थे और भक्त रावण भी था। दोनों की भक्ति में एक अंतर था, हनुमानजी जी सेवक बनकर श्रीराम की सेवा करना चाहते थे। रावण भगवान शंकर की भक्ति अपनी मर्जी से करके अपनी इच्छापूर्ति चाहता था। हनुमान जी कहते थे प्रभु आपकी इच्छा पूर्ण हो। रावण कहता था भगवन मेरी इच्छा पूर्ण हो।

🙏🏻श्वेता, DIYA

प्रश्न - *कल्पना, भावना व चिंतन में क्या अंतर है? अध्यात्म जगत में इनके प्रयोग व उपयोगिता का विधान समझाएं।*

प्रश्न - *कल्पना, भावना व चिंतन में क्या अंतर है? अध्यात्म जगत में इनके प्रयोग व उपयोगिता का विधान समझाएं।*

उत्तर- आत्मीय भाई,

*कल्पना* - विचारणा के माध्यम से की जाती है। कल्पना सही, गलत, तार्किक व अतार्किक कैसी भी हो सकती है। एक तरह से बुद्धि द्वारा बनाई फ़िल्म को अन्तर्दृष्टि से देखा व समझा जा सकता है। अक्सर वैज्ञानिक हो या सॉफ्टवेयर इंजीनियर या अन्य क्षेत्र के लोग, कुछ भी कार्य को मूर्त रूप में लाने से पूर्व उसकी कल्पना करते हैं। इसमें मात्र बुद्धि व चित्त का प्रयोग होता है।

*चिंतन* - हमेशा सोच समझ कर किया गया विश्लेषण होता है। इसमें क्रमबद्ध एक विषय वस्तु पर चिंतन कर मानसिक मंथन किया जाता है। इस चिंतन से आउटपुट - परिणाम होता है, वह विशेष होता है। चिन्तन में बुद्धिप्रयोग मुख्यतः होता है।

*भावना* - भावना हमेशा हृदय से उद्दीप्त होती है। 

सकारात्मक भावना का उद्दीपन - जन प्रेम, भगवत भक्ति, समर्पण, प्रियजन से प्रेम इत्यादि  होते हैं।

नकारात्मक भावना का उद्दीपन - काम, क्रोध, मद, लोभ , दम्भ, दुर्भाव, द्वेष, अहंकार इत्यादि होते हैं।

जब उद्दीपन से चिंतन व कल्पना उतपन्न होती है। तब वह भावना कहलाती है। भावना में हृदय प्रमुख व बुद्धि व चित्त सहायक होते हैं। भावना में सही गलत का विश्लेषण बुद्धि करने में अक्षम होती है। वह तो मात्र हृदय की आज्ञा का पालन करती है।

भावना में क्योंकि हृदय का सीधा हस्तक्षेप है, इसलिए जैसी भावना वैसे हार्मोन्स शरीर मे रिसते है, रक्त में मिलते हैं, व शरीर पर प्रभाव सकारात्मक या नकारात्मक डालते हैं।

इसलिए अध्यात्म में भावना का महत्त्व अधिक है, क्योंकि चित्त व बुद्धि रूपांतरण व व्यक्तित्व में परिवर्तन भावना से होता है। मात्र बुद्धि प्रयोग से न स्वयं में परिवर्तन सम्भव है न ही दूसरों को आलोकित किया जा सकता है।

बुद्धि किसी को प्रभावित कर सकती है, बुद्धि से किसी की आत्मा को प्रकाशित व प्रेरित नहीं किया जा सकता। भावना के सही सम्प्रेषण से ही परिवर्तन स्वयं में व दुसरो में लाया जा सकता है।

जब ध्यान में कहा जाता है कि भावना कीजिये - अर्थात हृदय में भक्ति, श्रद्धा, विश्वास के उद्दीपन से हृदय के आदेश पर कहे गए निर्देशित वाक्यनुसार बुद्धि को चिंतन व कल्पना करने का आदेश दीजिये। यहां सही गलत का विश्लेषण नहीं करना है। यहां मात्र आदेशो के पालन में अनिवार्य मानसिक कार्य करना है। अपेक्षित हार्मोन्स का रिसाव होता है, अच्छे हार्मोन्स से मष्तिष्क शांत होता है, शरीर स्वस्थ बनता है।

जिस भावना की ओर हमारा ध्यान जाता है, ऊर्जा का प्रवाह उस ओर ही होता रहता है।

🙏🏻श्वेता, DIYA

प्रश्न - रुद्र गायत्री मंत्र में *वक्राय* (vakraya) उच्चारण सही है या *वक्त्राय* (vaktraya) ?किसी भी देवताओं के गायत्री मंत्र में ' विद्यमहे’, ' धीमही’ और 'प्रचोदयात्’ का क्या अर्थ है?

 प्रश्न - रुद्र गायत्री मंत्र में *वक्राय* (vakraya) उच्चारण सही है या *वक्त्राय* (vaktraya) ?किसी भी देवताओं के गायत्री मंत्र में ' विद...