Saturday 26 June 2021

20 श्लोक - विद्यार्थी जीवन की सफलता के लिए

 20 श्लोक - विद्यार्थी जीवन की सफलता के लिए


भारतीय संस्कृति में श्लोकों का बहुत महत्त्व है। हमारे वेद-पुराणों व असंख्य धार्मिक ग्रंथों में ऋषि-मुनियों व प्रभुद्ध व्यक्तियों ने ढेरों ज्ञान की बातें संस्कृत श्लोकों के रूप में लिखी हैं। आइये आज हम ज्ञान के उस अथाह सागर में से कुछ अनमोल रत्नों को देखते हैं। विद्यार्थी विशेष रूप से इन श्लोकों को कंठस्त कर सकते हैं और उन्हें अपने जीवन में उतार कर सफलता प्राप्त कर सकते हैं।



1. उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः।

न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगा: ।।


अर्थात:- उद्यम, यानि मेहनत से ही कार्य पूरे होते हैं, सिर्फ इच्छा करने से नहीं। जैसे सोये हुए शेर के मुँह में हिरण स्वयं प्रवेश नहीं करता बल्कि शेर को स्वयं ही प्रयास करना पड़ता है।


2. वाणी रसवती यस्य,यस्य श्रमवती क्रिया ।

लक्ष्मी : दानवती यस्य,सफलं तस्य जीवितं ।।

अर्थात:- जिस मनुष्य की वाणी मीठी है, जिसका कार्य परिश्रम से युक्त है, जिसका धन दान करने में प्रयुक्त होता है, उसका जीवन सफल है।


3. प्रदोषे दीपक : चन्द्र:,प्रभाते दीपक:रवि:।

त्रैलोक्ये दीपक:धर्म:,सुपुत्र: कुलदीपक:।।

अर्थात:- संध्या-काल मे चंद्रमा दीपक है, प्रातः काल में सूर्य दीपक है, तीनो लोकों में धर्म दीपक है और सुपुत्र कुल का दीपक है।


4. प्रियवाक्य प्रदानेन सर्वे तुष्यन्ति जन्तवः ।

तस्मात तदैव वक्तव्यम वचने का दरिद्रता।।

अर्थात:- प्रिय वाक्य बोलने से सभी जीव संतुष्ट हो जाते हैं, अतः प्रिय वचन ही बोलने चाहिएं। ऐसे वचन बोलने में कंजूसी कैसी।


5. सेवितव्यो महावृक्ष: फ़लच्छाया समन्वित:।

यदि देवाद फलं नास्ति,छाया केन निवार्यते।।

अर्थात:- विशाल वृक्ष की सेवा करनी चाहिए क्योंकि वो फल और छाया दोनो से युक्त होता है। यदि दुर्भाग्य से फल नहीं हैं तो छाया को भला कौन रोक सकता है।



6. देवो रुष्टे गुरुस्त्राता गुरो रुष्टे न कश्चन:।

गुरुस्त्राता गुरुस्त्राता गुरुस्त्राता न संशयः।।

अर्थात:- भाग्य रूठ जाए तो गुरु रक्षा करता है, गुरु रूठ जाए तो कोई नहीं होता। गुरु ही रक्षक है, गुरु ही रक्षक है, गुरु ही रक्षक है, इसमें कोई संदेह नहीं।


7. अनादरो विलम्बश्च वै मुख्यम निष्ठुर वचनम

पश्चतपश्च पञ्चापि दानस्य दूषणानि च।।

अर्थात:- अपमान करके दान देना, विलंब से देना, मुख फेर के देना, कठोर वचन बोलना और देने के बाद पश्चाताप करना- ये पांच क्रियाएं दान को दूषित कर देती हैं।


8. अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविन:।

चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशोबलं।।

अर्थात:- बड़ों का अभिवादन करने वाले मनुष्य की और नित्य वृद्धों की सेवा करने वाले मनुष्य की आयु, विद्या, यश और बल -ये चार चीजें बढ़ती हैं।

 

9. दुर्जन:परिहर्तव्यो विद्यालंकृतो सन ।

मणिना भूषितो सर्प:किमसौ न भयंकर:।।

अर्थात:- दुष्ट व्यक्ति यदि विद्या से सुशोभित भी हो अर्थात वह विद्यावान भी हो तो भी उसका परित्याग कर देना चाहिए। जैसे मणि से     सुशोभित सर्प क्या भयंकर नहीं होता?

10. हस्तस्य भूषणम दानम, सत्यं कंठस्य भूषणं।

श्रोतस्य भूषणं शास्त्रम,भूषनै:किं प्रयोजनम।।

अर्थात:- हाथ का आभूषण दान है, गले का आभूषण सत्य है, कान की शोभा शास्त्र सुनने से है, अन्य आभूषणों की क्या आवश्यकता है।


11. यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा, शास्त्रं तस्य करोति किं।

लोचनाभ्याम विहीनस्य, दर्पण:किं करिष्यति।।

अर्थात:- जिस मनुष्य के पास स्वयं का विवेक नहीं है, शास्त्र उसका क्या करेंगे। जैसे नेत्रविहीन व्यक्ति के लिए दर्पण व्यर्थ है।


12. न कश्चित कस्यचित मित्रं न कश्चित कस्यचित रिपु:

व्यवहारेण जायन्ते, मित्राणि रिप्वस्तथा।।

अर्थात:- न कोई किसी का मित्र होता है, न कोई किसी का शत्रु। व्यवहार से ही मित्र या शत्रु बनते हैं ।


13. नीरक्षीरविवेके हंस आलस्यं त्वं एव तनुषे चेत।

विश्वस्मिन अधुना अन्य:कुलव्रतम पालयिष्यति क:

अर्थात:- ऐ हंस, यदि तुम दूध और पानी को भिन्न करना छोड़ दोगे तो तुम्हारे कुलव्रत का पालन इस विश्व मे कौन करेगा। भाव यदि बुद्धिमान

व्यक्ति ही इस संसार मे अपना कर्त्तव्य त्याग देंगे तो निष्पक्ष व्यवहार कौन करेगा।



14. दुर्जन:स्वस्वभावेन परकार्ये विनश्यति।

नोदर तृप्तिमायाती मूषक:वस्त्रभक्षक:।।

अर्थात:-दुष्ट व्यक्ति का स्वभाव ही दूसरे के कार्य बिगाड़ने का होता है। वस्त्रों को काटने वाला चूहा पेट भरने के लिए कपड़े नहीं काटता।


15. सत्यं ब्रूयात प्रियं ब्रूयात न ब्रूयात सत्यं प्रियम।

प्रियं च नानृतं ब्रूयात एष धर्म: सनातन:।।

अर्थात:- सत्य बोलो, प्रिय बोलो,अप्रिय लगने वाला सत्य नहीं बोलना चाहिये। प्रिय लगने वाला असत्य भी नहीं बोलना चाहिए।


16. काव्यशास्त्रविनोदेन कालो गच्छति धीमतां।

व्यसनेन च मूर्खाणां निद्रया कलहेन वा।।

अर्थात:- बुद्धिमान लोग काव्य-शास्त्र का अध्ययन करने में अपना समय व्यतीत करते हैं, जबकि  मूर्ख लोग निद्रा, कलह और बुरी आदतों में अपना समय बिताते हैं।


17. पृथ्वियां त्रीणि रत्नानि जलमन्नम सुभाषितं।

मूढ़े: पाधानखंडेषु रत्नसंज्ञा विधीयते।।

अर्थात:- पृथ्वी पर तीन रत्न हैं- जल,अन्न और शुभ वाणी । पर मूर्ख लोग पत्थर के टुकड़ों को रत्न की संज्ञा देते हैं।


18. भूमे:गरीयसी माता,स्वर्गात उच्चतर:पिता।

जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गात अपि गरीयसी।।


अर्थात:- भूमि से श्रेष्ठ माता है, स्वर्ग से ऊंचे पिता हैं, माता और मातृभूमि स्वर्ग से भी श्रेष्ठ हैं।



19. शैले शैले न माणिक्यं,मौक्तिम न गजे गजे।


साधवो नहि सर्वत्र,चंदन न वने वने।।

अर्थात:- प्रत्येक पर्वत पर अनमोल रत्न नहीं होते, प्रत्येक हाथी के मस्तक में मोती नहीं होता। सज्जन लोग सब जगह नहीं होते और प्रत्येक वन में चंदन नही पाया जाता ।


20. न विना परवादेन रमते दुर्जनोजन:।

काक:सर्वरसान भुक्ते विनामध्यम न तृप्यति।।


अर्थात:- लोगों की निंदा किये बिना दुष्ट व्यक्तियों को आनंद नहीं आता। जैसे कौवा सब रसों का भोग करता है परंतु गंदगी के बिना उसकी तृप्ति नहीं होती ।

प्रश्न - वर्तमान में अस्त व्यस्त परिस्थितियों में रहने वाले दम्पत्ति, जिन्होंने कभी साधना नहीं की आजतक क्या वो दम्पत्ति सुप्रजनन के तहत सुसंस्कारी व श्रेष्ठ सन्तान गायत्री परिवार द्वारा चलाये प्रशिक्षण को करके और बताए नियमो के अनुपालन को करके गढ़ सकते हैं?

 प्रश्न - वर्तमान में अस्त व्यस्त परिस्थितियों में रहने वाले दम्पत्ति, जिन्होंने कभी साधना नहीं की आजतक क्या वो दम्पत्ति  सुप्रजनन के तहत सुसंस्कारी व श्रेष्ठ सन्तान गायत्री परिवार द्वारा चलाये प्रशिक्षण को करके और बताए नियमो के अनुपालन को करके गढ़ सकते हैं?


उत्तर - जब जागो तब सवेरा, Something is better than nothing.. कुछ न प्राप्त करने से कुछ प्राप्त करना बेहतर है।


कलियुग के अनेकों हानि है, मग़र एक लाभ है। यहां सतयुग से सौ गुना कम साधना व प्रयास करने पर सफलता मिल जाती है। सतयुग में दस वर्ष के कठोर तप का परिणाम कलियुग में एक वर्ष की साधना से प्राप्त किया जा सकता है। एक तरह से एक साथ दस फ़्री का ऑफर है।


अतः जो माता पिता समझदार हैं व विज्ञान की व अध्यात्म की थोड़ी भी समझ रखते है तो वह अवश्य प्रशिक्षण लेकर लाभान्वित हो सकते हैं।


गर्भस्थ को शिक्षित करने के लिए गर्भिणी स्कूल, गुरुकुल नहीं जा सकती और न ही 24 घण्टे के लिए कोई शिक्षक घर पर प्रशिक्षण हेतु बुला सकती है।


जिस प्रकार गर्भस्थ बाह्य भोजन ग्रहण नहीं कर सकता वैसे ही बाह्य शिक्षण ग्रहण नहीं कर पाता है। गर्भिणी की जगह कोई दूसरा ख़ाकर गर्भ को पोषण नहीं दे सकता। गर्भस्थ के पिता के जुड़ाव व प्रभाव को कोई अन्य उतपन्न नहीं कर सकता।


गर्भिणी के खाये भोजन से उसे पोषण मिलता है, गर्भिणी के सोचे व चिंतन में आये विचार गर्भस्थ के मन का निर्माण करेंगे। गर्भिणी द्वारा जप किये मन्त्र व ध्यान गर्भ को प्राणवान व ऊर्जावान बनाएगा।


जिस प्रकार अन्न से भोजन व मन बनता है, वैसे ही विचारों से गर्भस्थ का मन व तन दोनो निर्मित होता है।


अतः सभी सन्तान उतपत्ति के इच्छुक दम्पत्ति को गर्भसंस्कार के महत्त्व व उस संस्कार के बाद नौ महीने तक गर्भस्थ के मौखिक व भावनात्मक प्रशिक्षण को सीखना अनिवार्य है। प्रयत्न व पुरुषार्थ से लाभ अवश्य मिलेगा।


युद्ध के समय थोड़े प्रयास व थोड़ी योग्यता में सैनिक भर्ती हो जाती है, जबकि अच्छे सामान्य समय मे सैनिक भर्ती कठिन व अधिक योग्यता मांगती है।


कलियुग की विदाई व सतयुग के आगमन का समय है, युद्धस्तर पर कार्य चल रहा है। अच्छी आत्माएं अच्छे गर्भ की तलाश में है। थोड़ा प्रयास व पुरुषार्थ करें अच्छी आत्माओं के लिए अपने विचार, गर्भ व घर को थोड़ा भी अच्छा बना ले तो अच्छी व श्रेष्ठ आत्माएं गर्भ में जरूर अवतरित होंगी। 


🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती

डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन

प्रश्न - गर्भसंस्कार को अत्यंत साधारण भाषा में समझाइए? यह क्यों आवश्यक है?

 प्रश्न - गर्भसंस्कार को अत्यंत साधारण भाषा में समझाइए? यह क्यों आवश्यक है?


उत्तर - यदि मैं आपसे पूंछू कि गर्भ संस्कार क्यों करवाना चाहिए? तो शायद आप उत्तर न दे सकें।


लेक़िन यदि मैं आप से पूंछू कि विद्यारम्भ संस्कार क्यों करवाना चाहिए तो आपके पास उत्तर होगा कि बच्चे की शिक्षा का शुभारंभ हम वैदिक मंत्रों से करते हैं व उन्हें स्कूल पढ़ने के लिए भेजते हैं। उन्हें शिक्षित, सभ्य व कमाने योग्य बनाने हेतु शिक्षा अनिवार्य है।


लेक़िन क्या आप जानते हैं कि बच्चे की असली शिक्षा व संस्कार गर्भ से शुरू हो जाता है। बड़ी उम्र के बच्चे से अधिक तेजी से गर्भस्थ बच्चा सीखता है। कभी सोचा है जैसी भाषा(हिंदी, इंग्लिश, स्पेनिश, कन्नड़, तेलगु, पंजाबी) इत्यादि में से किसी भी भाषा मे बोलने वालों के घर जन्मा बच्चा उनकी भाषा का ज्ञान गर्भ में ही तो सीखता है। आपके गुणों को गर्भ में ही सीख कर जन्म लेता है।


इस पर ढेर सारी चिकित्सीय साइंटिफिक रिसर्च यूट्यूब पर उपलब्ध है देख सकते हो।


गर्भ संस्कार गर्भस्थ के शिक्षा के प्रारम्भ का शुभारंभ है। अब गर्भस्थ को शिक्षित व संस्कारित करने हेतु मौखिक टूल्स गर्भसमवाद, कहानी, स्वाध्याय, ध्यान, भजन, संगीत, मन्त्र जप इत्यादि का सहारा लेना है।


गर्भस्थ के शिक्षक-प्रशिक्षक माता व पिता एवं परिवार जन को ही बनना पड़ता है।


गर्भ संस्कार विद्यारम्भ संस्कार की तरह शिक्षण प्रारम्भ का वैदिक परंपरा अनुसार श्रीगणेश (शुरुआत) है।


मौखिक शिक्षण, वैचारिक शिक्षण व भावनात्मक शिक्षण माता-पिता द्वारा -  प्रारम्भ (श्रीगणेश) - *गर्भ संस्कार*


लिखित शिक्षण व पुस्तकीय शिक्षण स्कूली टीचर द्वारा प्रारम्भ (श्रीगणेश) - *विद्यारम्भ संस्कार*


आध्यात्मिक ज्ञान व साधना का ज्ञान सद्गुरु के द्वारा प्रारम्भ (श्रीगणेश) - *उपनयन व गुरु दीक्षा संस्कार*


संस्कार मात्र प्रारम्भ मुहूर्त है, उसके बाद निरंतरतरता अनिवार्य है।


गर्भस्थ शिशु के माता पिता अपने गर्भस्थ शिशु को सही संस्कार व शिक्षण दे सकें इस हेतु ट्रेनिंग गायत्री परिवार करवाता है, साथ ही उन्हें शिक्षण के लिए आवश्यक स्वाध्याय की पुस्तक व साधना भी बताता है। समस्त मौखिक व भावनात्मक टूल्स व तकनीक समझाता है।


https://youtu.be/9KvKquhZA18


🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती

डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन

Friday 25 June 2021

प्रश्न - *मृत्यु पश्चात देहदान की उपयोगिता अनुपयोगिता पर भी शास्त्रीय और वैज्ञानिक विवेचन करें।*

 प्रश्न - *मृत्यु पश्चात देहदान की उपयोगिता  अनुपयोगिता पर भी शास्त्रीय और वैज्ञानिक विवेचन करें।*


उत्तर-  हमारे धर्मग्रन्थ लोककल्याण के लिए देहदान/अंगदान को सर्वश्रेष्ठ मानते हैं। इसकी इजाजत देते हैं।


देहदान का अर्थ है "देह का दान" अर्थात किसी उत्तम कार्य अपना जीवन ही दे देना। राजकुमार "सत्त्व" ने साथ सावकों को भूख से मरने से बचाने के लिए अपने "शरीर का त्याग कर दिया" था। "दधीचि" ने अपना "शरीर इसलिए त्याग दिया था ताकि उनकी हड्डियों से धनुष बनाया जा सके" जिससे दैत्यों का संहार हो सके। "राजा शिवि" ने "कपोत" को बचाने के लिए अपने शरीर को प्रस्तुत कर दिया था।


अनेक समुदायों में देह को नदी में प्रवाहित करने की परंपरा है, ताकि पानी में रहने वाले विभिन्न जीवों को आहार उपलब्ध हो सके।


पारसी समुदाय में मृत्यु के उपरांत देह को एक 'कुएं' में रखने की परंपरा है, ताकि पक्षी उस देह को आहार बना सकें।


अंत्येष्टि क्रिया तो मात्र देह से आत्मा का मोह भंग करके मुक्त व शान्त करने की प्रक्रिया है। यदि जो जीवित रहते देह के मोह को भंग कर देहदान/अंगदान कर दे, तो उसे अंत्येष्टि द्वारा मोह भंग की आवश्यकता नहीं रहती। वह पुराने वस्त्र दान की तरह आत्मा के देह रूपी वस्त्र का दान कर मुक्त हो जाता है।


*क्या है वर्तमान समय मे अंगदान व देहदान?*

भारतीय चिकित्सा संघ के अध्यक्ष डॉ. के. के. अग्रवाल कहते हैं कि यह वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा जैविक ऊतकों या अंगों को एक मृत या जीवित व्यक्ति से निकालकर उन्हें किसी दूसरे के शरीर में प्रत्यारोपित किया जाता है। इस पूरी प्रक्रिया को हार्वेस्टिंग के रूप में जाना जाता है। इसे ही सरल शब्दों में अंगदान कहा जाता है। समस्त मानव देह उपयोगी है, इसका कई तरह से उपयोग कर एक देह से आठ लोगो को जीवन दान मिल सकता है।


सही मायनों में देखा जाए तो अंगदान करना बड़े पुण्य का काम है, क्योंकि आप एक मरते हुए शख्स को जिंदगी दे रहे हैं। धर्म से संबंधित सभी मान्यताएं, जो अंगदान न करने की बात करती हैं, महज अंधविश्वास है, जिन्हें नजरअंदाज कर हर किसी को अंगदान के लिए आगे आना चाहिए। 

कहां करें अंगदान

अंगदान के लिए दो तरीके हो सकते हैं। कई एनजीओ और अस्पतालों में अंगदान से जुड़ा काम होता है। इनमें से कहीं भी जाकर आप फॉर्म भरकर दे सकते हैं कि आप मरने के बाद अपने कौन-से अंग दान करना चाहते हैं। संस्था की ओर से आपको एक डोनर कार्ड मिल जाएगा। फॉर्म बिना भरे भी आप अंगदान कर सकते हैं। 


*एक सावधानी बरतें* - स्वेच्छा से अंगदान व देहदान उत्तम है। यदि स्वेच्छा से हुआ तो दान के बाद शरीर से मोहबन्धन टूट जाता है। व आत्मा मुक्त हो चली जाती है।


लेकिन व स्वार्थी और सांसारिक मनुष्य जिनका देह से अत्यंत मोह है, उनकी बिना अनुमति के उनका देहदान समस्या खड़ी कर सकता है। वह मृत्यु के बाद छाया शरीर मे अपने शरीर के आसपास मंडराती रहती हैं, यदि उनकी सम्मान सहित अर्थी व अंत्येष्टि क्रिया, श्राद्ध तर्पण न हो तो क्रुद्ध हो जाती हैं। अतः देहदान अनुमति लेकर स्वेच्छा से होना चाहिए।


परमार्थी लोग वस्त्र की तरह शरीर का त्याग करते हैं, जिस प्रकार पुराने वस्त्र किसी को दान देने पर मोह नहीं करते वैसे ही वह देह रूपी वस्त्र दान देकर उसका मोह नहीं करते।


जीवन(देह रूपी वस्त्र धारण) व मरण(देह रूपी वस्त्र का त्याग) मात्र है। हमने भी अंगदान/देहदान करने का सङ्कल्प लिया है, यदि मरकर भी किन्ही आठ लोगो के जीवन को बचा सकूँ तो इसे बड़ा पुण्य व श्रेष्ठ कार्य मानूंगी व स्वयं को धन्य समझूंगी।


हमने जीवित रहते हुए ही अपना श्राद्ध एवं तर्पण शांतिकुंज में कर लिया है, जब भी अवसर मिलता है पुनः कर लेती हूँ। हमारे शास्त्र में स्वयं के श्राद्ध व तर्पण की व्यवस्था है। अतः जीने के साथ साथ मेरी मरने के बाद वाली तैयारी भी पूरी है।


🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती

डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन

Thursday 24 June 2021

प्रश्न - *मुर्दा गाड़ने या जलाने में क्या फर्क है? कौन सी विधि अंतिम क्रिया हेतु आध्यात्मिक वैज्ञानिक तथ्य व प्रमाण में उचित है? प्रकृति व मृतक दोनों के लिए लाभप्रद है।*

 प्रश्न - *मुर्दा गाड़ने या जलाने में क्या फर्क है? कौन सी विधि अंतिम क्रिया हेतु आध्यात्मिक वैज्ञानिक तथ्य व प्रमाण में उचित है? प्रकृति व मृतक दोनों के लिए लाभप्रद है।*


उत्तर- मुर्दा गाड़ने की जगह जलाना ही श्रेयस्कर है।


*आध्यात्मिक कारण* - मृत्यु के अवसर पर उसका छाया शरीर (सूक्ष्म आवरण) लिए बाहर निकलता है। इससे मनुष्य की छाया कृति एक तरह से शरीर की व इंद्रियों की फोटो कॉपी होता है। वह देख सुन व समझ तो सकता है, लेकिन कर्मेन्द्रियाँ न होने का कारण कर्म फल अपने सुधार नहीं सकता।


कई घरों में मृत्यु के पश्चात मृतक के छाया शरीर को देखने की घटनाएं सामने आती हैं।


यदि घर में भक्ति पूर्ण व उस मृतक की शांति हेतु ज्ञान चर्चा न हो तो वह छाया शरीर धारी मृतक की प्रेतात्मा क्रुद्ध होती है। लेकिन जब उसकी मुक्ति व सद्गति के लिए परिजन प्रयास करते हैं तो वह संतुष्ट व शांत होती है।


ऋषियों द्वारा ऐसा अनुमान किया गया है कि मरने के प्रायः 36 घण्टे बाद जीव छायामय शरीर को भी प्रायः छोड़ देता है। तब छाया शरीर स्थूल शरीर के पास रहकर धीरे धीरे नष्ट हो जाता है। 


स्थूल शरीर के प्रति छाया शरीर का लगाव व आकर्षण रहता है।


जो मुर्दे गाड़े जाते हैं, उनके छाया शरीर तब तक नष्ट नहीं होते जब तक उनका शरीर क्रमशः मिट्टी में कीटाणुओं द्वारा स्वतः नष्ट न करके मिट्टी में मिला दिया जाय।


जो मुर्दे जलाए जाते हैं उनके छाया शरीर जल्दी नष्ट हो जाते हैं क्योंकि स्थूल शरीर के अभाव में उनका नष्ट होने का क्रम तीव्रता से होता है। 


यह एक प्रमुख कारण है मुर्दा गाड़ने की अपेक्षा जलाना श्रेयस्कर है।


*चिकित्सीय कारण* - शरीर बीमारियों का चलता फिरता गृह होता है। अग्नि रोगाणुओं को जलाने में सक्षम है। मुर्दे जलाने से रोगाणु भी मर जाते हैं व उनका विस्तार रुक जाता है।

मुर्दे गाड़ने से रोगाणुओं को और अधिक पनपने का सड़ते शरीर मे अवसर मिलता है और वह मिट्टी व नमी के कारण विस्तारित होते हैं। जीव वनस्पतियों तक पहुंच कर और पर्यावरण में मिलकर अधिक से अधिक लोगो को रोगी बनाते हैं।


*प्राकृतिक कारण* - मुर्दों को गाड़ने की प्रक्रिया में पृथ्वी जगह घेरती है। यदि सवा सौ करोड़ के लिए कब्रो का निर्माण होगा तो पृथ्वी कब्रो से पट जाएगी फिर लोग रहेंगे कहाँ? खेती कहाँ होगी? लोग भूखे मरेंगे? इतनी ज्यादा सड़ती लाशें पृथ्वी की मिट्टी को  रोगाणुओं से जहरिला बना देंगी। 


गोमय समिधा (गोबर के उपले), घी, हवन सामग्री और थोड़ी मात्रा में तुलसी काष्ठ से चिताग्नि देकर मुर्दा जलाना सर्वश्रेष्ठ है। इस प्रकार औषधियों के साथ जलाने से एक प्रकार का यज्ञ होगा इससे पर्यावरण शुद्ध होगा व मृतक शरीर नष्ट होगा। छाया शरीर नष्ट होगा।


विद्युत शवगृह भी सही उपाय है, मुर्दे शरीर को नष्ट करके मुक्त करने का, इससे रोगाणु व शरीर दोनो नष्ट हो जाएंगे।


संदर्भ पुस्तक - मरणोत्तर जीवन, तथ्य एवं सत्य 3.67


🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती

डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन

प्रश्न - *मृतक परिजनों के श्राद्ध करने या उनके नाम पर स्मारक बनाने से क्या मृतक परिजनों को पुण्य लाभ होता है? उनके कर्मबन्धन कटते हैं? स्वर्ग लाभ मिलता है?*

 प्रश्न - *मृतक परिजनों के श्राद्ध करने या उनके नाम पर स्मारक बनाने से क्या मृतक परिजनों को पुण्य लाभ होता है? उनके कर्मबन्धन कटते हैं? स्वर्ग लाभ मिलता है?*


उत्तर- जिस प्रकार भोजन जो करता है पेट उसी का पहले भरता है। इसी तरह श्राद्ध करने या स्मारक बनाने का पुण्यफल उसे मिलता है जो सन्तान श्राद्ध करता या स्मारक बनवाता है। यह दान पुण्य से मृतक परिजन के कर्मबन्धन व प्रारब्ध नहीं काटे जा सकते व उनके लिये स्वर्ग लाभ की व्यवस्था नहीं की जा सकती। 


यह तो निश्चित सत्य है कि सन्तान के शुभ कर्मों तप दान से पितरों को शांति व संतुष्टि मिलती है, पितृ ऋण उतरता है। लेक़िन इन सब कर्मो से पुत्र का समस्त पुण्य मृतक पितर को नहीं मिलता। अदला बदली नहीं होती। जो कर्म जो करता है उसका फल वही भरता है। जो बोयेंगे वही काटेंगे।


मृतक आत्माएं जब यह देखती है कि उनके पूर्व सम्बन्धी उनकी कुशलता व उनकी आत्मा की शांति, तुष्टि व तृप्ति के लिए प्रार्थना , तप, दान व पुण्य कर रहे हैं तो उन्हें संतोष होता है व अच्छा महसूस होता है। वह अपना आशीर्वाद देती हैं, व अदृश्य सहायता करती हैं जो सम्भव हो वह लाभ पहुचाने की कोशिश करते हैं। पितर जब हमारे अदृश्य सहायक बनते है तो परिवार में सुख शांति आती है।


मृतक आत्मा के सम्बन्धी जब उन्हें याद करके रोना-धोना करते हैं, शोक प्रदर्शन करने से मृतक को दुःख होता है उनकी शांति में बाधा पहुंचती है।


उचित यह है कि मृतक परिजन के साथ मोह बन्धन शीघ्रातिशीघ्र तोड़ लेना चाहिए। केवल मृतक आत्मा की शांति मुक्ति की उच्च प्रार्थना किया जाय। उनके नाम पर जप, दान व पुण्य किया जाय।


मृतक परिजन के नाम पर वृक्षारोपण बहुत शुभ फल देता है। मृतक परिजनों को उनके नाम पर लगाये वृक्ष को देखकर उन्हें सुकून व शांति मिलती है।


संदर्भ पुस्तक - मरणोत्तर जीवन , तथ्य एवं सत्य 3.66


🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती

डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन

Wednesday 23 June 2021

जीवन समुद्र में, लहरों का शोर तो होगा ही,

 जीवन समुद्र में,

लहरों का शोर तो होगा ही,

सुख दुःख की लहरों का,

आना जाना तो रहेगा ही।


कभी कभी तो,

चक्रवाती तूफ़ान तो आएगा ही,

सदा ज्वार व भाटे का,

आगमन निर्गमन तो होगा ही।


यह समुद्र कभी शांत न होगा,

मछलियों का जन्मना-मरना लगा रहेगा ही,

यही समुद्र किसी के लिए,

कभी सुखकर तो कभी दुःखकर रहेगा ही।


हे मन, यहां घबराने से काम न चलेगा,

साहस से सुमद्र में तो उतरना पड़ेगा ही,

यह समुद्र ही जीवन है,

जीना है तो सुख दुःख का आना जाना,

सहज हृदय से स्वीकारना पड़ेगा ही।


मुस्कुराते हुए जीवन नाव में,

जीवन गीता गाना है,

या जीवन नाव में,

दुखड़ा रोना है,

यह निर्णय तुम्हारा है।


यदि गाओगे तो सफर में आनन्द मिलेगा,

रोवोगे तो सफर में हृदय शूल से दुःखेगा,

समुद्र को न तुम्हारे गाने से फर्क पड़ेगा,

न तुम्हारे रोने से फर्क पड़ेगा।


याद रखो,

तुम समुद्र पर निर्भर हो,

समुद्र तुम पर निर्भर नहीं,

जीवन के सफ़र में,

कुछ भी सदा स्थिर नहीं,

अच्छा पल भी एक न एक दिन गुजर जाएगा,

बुरा पल भी एक न एक दिन चला जायेगा।


💐श्वेता चक्रवर्ती

डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन

मैं अजर अमर अविनाशी हूँ, बस एक यात्रा में हूँ।

 मैं अजर अमर अविनाशी हूँ,

बस एक यात्रा में हूँ।


गर्भ से पहले भी,

मैं अस्तित्व में थी,

जब गर्भ में थी,

तो भी मैं वही शाश्वत परमात्मा का अंश थी, 

जब शरीर मे जन्म हुआ,

 तो भी उस शरीर में  मैं ही थी,

उस शरीर की हलचल,

मुझसे ही थी,

स्कूल की शिक्षा, जॉब और विवाह,

सभी घटनाक्रम की साक्षी,

मैं ही थी,

भोजन, शयन व प्रत्येक कर्म को होते,

साक्षी भाव से देख रही थी,

जब यह शरीर बाल्यकाल में था,

तो भी मैं पूर्ण शशक्त व अस्तित्व में थी,

जब यह शरीर युवावस्था में था,

तो भी मैं पूर्ण शशक्त व अस्तित्व में थी,

जब यह शरीर वृद्धावस्था में होगा,

तो भी मैं पूर्ण शशक्त व अस्तित्व में रहूंगी,

जब यह शरीर छूटेगा,

तो भी मैं पूर्ण शशक्त व अस्तित्व में रहूंगी,

बस फर्क यह होगा पहले शरीर के भीतर थी,

अब बाहर रहूंगी,

मेरे हटते ही,

शरीर निढाल व निष्क्रिय होगा,

भला शरीर रूपी गाड़ी,

बिना ड्राइवर के कैसे चल सकेगा?

उसे जलाया जाएगा,

एक मुट्ठी राख में वह तब्दील होगा,

प्रत्येक घटना की मैं साक्षी रहूंगी,

पुनः नए शरीर में प्रवेश की प्रतीक्षा होगी,

कर्मफलनुसार पुनः एक नई यात्रा प्रारंभ होगी।


👏श्वेता, DIYA

Sunday 20 June 2021

वह शक्ति हमे दो गायत्री माँ अम्बे

 *वह शक्ति हमे दो गायत्री माँ अम्बे*


वह शक्ति हमे दो गायत्री माँ अम्बे,

कर्तव्य मार्ग पर चल सकें,

अधिकारों की उपेक्षा कर,

राष्ट्रपुरोहित की भूमिका निभा सकें।


वह शक्ति हमे दो गायत्री माँ अम्बे,

नींव का पत्थर बन सकें,

प्रशंशा, सुविधा व सम्मान की लालच छोड़कर,

कर्तव्य राष्ट्रपुरोहित के निभा सकें।


वह शक्ति हमे दो गायत्री माँ अम्बे,

मोती के धागे बन सकें,

बाहर किसी को भले न दिखें,

मग़र भीतर से मिशन को सम्हाल सकें।


वह शक्ति हमे दो गायत्री माँ अम्बे,

समर्पित शिष्य बन जीवन धन्य कर सकें,

गुरु अनुशासन में स्वयं को ढाल सकें,

गुरुमय गायत्रीमय जीवन जी सकें।


वह शक्ति हमे दो गायत्री माँ अम्बे,

मोक्ष की लालच में न पड़े,

सम्मान, यश, सुविधा पाने की अंधी दौड़ से बचें,

धर्म पालन में निःश्वार्थी बने।


वह शक्ति हमे दो गायत्री माँ अम्बे,

गुरु इच्छानुसार राष्ट्रपुरोहित बन सकें।


🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती

डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन

प्रश्न - अंग्रेजो की क्लर्क स्तर की शिक्षा पद्धति को पुनः गौरवशाली गुरुकुल में कैसे बदलें?

 प्रश्न - अंग्रेजो की क्लर्क स्तर की शिक्षा पद्धति को पुनः गौरवशाली गुरुकुल में कैसे बदलें?


उत्तर - उल्टे को पुनः उलटने के लिए,  सर्वप्रथम वर्तमान शिक्षा पद्धति के साथ घर घर बाल संस्कार शाला चले।


न मुगलों ने हमें परास्त किया और न ही अंग्रेजो ने, हमें परास्त किया हमारी असंगठित सामाजिक व्यवस्था व ऊंच नीच और छुआछूत में बटी समाज व्यवस्था ने... स्वार्थ में अंधी सोच ने... व निज स्वार्थ के लिए जयचन्दों व मीरजाफर जैसे देशद्रोहियों ने...


हमें पुनः आज़ादी तभी मिली जब हम संगठित हुए व राष्ट्रभक्ति से ओतप्रोत हुए, देशहित स्वार्थ छोड़ा और लाखों लोगों ने कुर्बानी दी...


मुगलों ने हिंदुओ को कायर बनाया और अंग्रेजो ने हिंदुओ को क्लर्क स्तर की सोच वाला सेवक बनाया।


आधुनिक तरीके से गुरुकुल विकसित करने के लिए बड़े स्तर का इन्वेस्टमेंट चाहिए और योगी स्तर के गुरु, जो इस चुनौती को स्वीकार कर सकें और ऐसे ऐसे शिष्यों को गढ़े जो चहुं ओर अपना वर्चस्व दिखा सकें। *हिंदू लोगो को क्रिश्चन लोगों की तरह शिक्षा व चिकित्सा क्षेत्र में बड़ा इन्वेस्टमेंट करना होगा। कायरता को साहस में और क्लर्क की मानसिकता को तोड़कर सभी क्षेत्रों में लीडर गढ़ने की जरूरत है। चार अंकों की सैलरी, एक गाड़ी, विवाह और बच्चे पैदा मात्र करने के रद्दी स्वार्थी स्वप्न को तोड़कर कुछ कर गुजरने का माद्दा, राष्ट्र चरित्र व देशभक्ति बच्चों व युवाओं में गढ़ने की जरूरत है।*


कार्य कठिन है मगर असम्भव नहीं, सोच बदलना आसान नहीं है, लेकिन प्रज्ञावतार परम पूज्य गुरुदेव ने युगनिर्माण योजना की स्थापना ही सोच बदलने के लिए किया है।


चंद्रगुप्त को चाणक्य को ही तराशना होगा, शिवाजी को समर्थ गुरु रामदास ही निखार सकते हैं, राक्षसों के कुल मेभी भक्त प्रह्लाद गुरु नारद ही गढ़ सकते हैं। परमपूज्य गुरुदेव हम सबको क्रमशः चाणक्य, नारद व समर्थ रामदास की भूमिका में देखना चाहते हैं, इसलिए वह राष्ट्र पुरोहित गढ़ने में जुटे है। बस स्वयं से प्रश्न पूँछे क्या हम उसके लिए समर्पण को तैयार हैं? गुरु साहित्य का नित्य पठन, नित्य बताई साधना और नित्य उनकी बताई योजना के कुछ अंश के क्रियान्वयन हेतु प्रयासरत हैं? पांच कदम गुरु की ओर हमारा और हज़ार कदम गुरुदेव हमारी ओर बढ़ा देंगे। मग़र क्या हम वह पांच कदम बढ़ाने को तैयार हैं?


अप्प दीपो भव - राष्ट्रपुरोहित बनने हेतु कठिन व श्रेष्ठ जीवन साधना करने हेतु तैयार हो जाओ। टकसाल बन जाओ।


समुद्र की ज्वार-भाटे से बाहर आयी लाखों तट पर तड़फती मछलियों को तुम पुनः समुद्र में अकेले नहीं डाल सकते, मग़र कुछ की जान तो वापस समुद्र में डाल कर बचा सकते हो।


दुनियां की समस्याओं का ऊंचा ढेर देखकर विचलित मत हो, अपितु उन समस्याओं के ढेर में से जो तुम हल कर सकते हो उस पर फोकस कर कार्य शुरू करो।


युगनिर्माण बहुत बड़ी योजना है, किस योजना में योगदान दे सकते हैं बस उसमें जुटने की जरूरत है। 


बस मरते वक़्त अफसोस नहीं होना चाहिए कि जो कर सकते थे वो नहीं किया... समस्या गिनने में रह गए लेकिन कोई समाधान का हिस्सा न बन सके...

अपितु मरते वक्त संतुष्टि व खुशी होना चाहिए कि दुनियां में व्याप्त लाखों समस्याओं में से कुछ के समाधान हेतु हमने जीवन खर्च किया, अच्छे उद्देश्यों के लिए जीवन जिया।


🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती

डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन

Friday 18 June 2021

प्रश्न :- ईश्वर मोक्ष ही क्यों देते है जीवन मे आनंद क्यों नही ।

 प्रश्न :- ईश्वर मोक्ष ही क्यों देते है जीवन मे आनंद क्यों नही ।


उत्तर - धरती न स्वयंमेव आम देती है और न बबूल, वह वही देती है जो हम मेहनत से बोते हैं। जो बोते हैं वही काटते हैं।


इसी तरह ईश्वर स्वयंमेव न मोक्ष देते हैं और न ही आनन्द, आप प्रार्थना व तप करके जिस उद्देश्य के लिए कर्म बीज बोते हैं वही फल मिलता है।


🙏🏻श्वेता, DIYA

प्रश्न - सतोगुण , रजोगुण और तमोगुण का क्या अर्थ है?? अत्यंत सरल शब्दों में समझाएं।

 प्रश्न - सतोगुण , रजोगुण और तमोगुण का क्या अर्थ है?? अत्यंत सरल शब्दों में समझाएं।


उत्तर - सबसे पहले समझते हैं कि मनुष्य की निजी विशेषता व स्वभाव से उतपन्न व्यवहारिक विशेषता को "गुण" कहते हैं।


अब मनुष्य के अंदर तो अनेकों गुण हैं, तो उन गुणों को तीन समूहों में विभाजित किया गया जिसे क्रमशः सतोगुण, रजोगुण एवं तमोगुण कहा गया।


"सतोगुण" - सतोगुण समूह में उन गुणों को रखा गया जो मनुष्य को मानव से महामानव, देवमानव की ओर अग्रसर करता है। उदाहरण - दया, ममता, सम्वेदना, निःश्वार्थ सेवा-सहयोग, निःश्वार्थ दान, परोपकार, शांति इत्यादि। इन गुणों से मनुष्य प्रशन्नचित्त व आत्मसंतुष्टि रहता है। आत्मउर्जा से भरा रहता है।


"रजोगुण" - रजोगुण के अंतर्गत मनुष्य के उन गुणों के समूह को रखा जाता है जहाँ मनुष्य केवल अपना व अपने परिवार के भोग व विलास के लिए प्रयत्नशील रहता है,  इस उपक्रम में उसके भीतर मन को चंचल करने वाले और उसमें काम,क्रोध,लोभ,द्वेश आदि विकार उत्पन्न हो जाते हैं। स्वार्थपरता में पुण्यलाभ के लिए दान पुण्य किया जाता है। अधिकतर तो मानव ही रहता है और कुछ मानव से महामानव की ओर कुछ हद तक अग्रसर हो जाता है।


"तमोगुण" - तमोगुण के अंतर्गत वह गुण समूह आता है जो ज्ञान को आच्छादित करके प्रमाद में अर्थात् अंतःकरण की व्यर्थ चेष्टाओँ में लगाता है। नशीली वस्तु इत्यादि का सेवन, घण्टो टीवी देखना, चुगली व निंदा करना, आलस्य प्रमाद करना, झूठ बोलना, स्वयं को व दुसरो को नुकसान पहुंचाना। मानव से इनकी चेतना नीचे स्तर पर निम्नगामी मानवपशु से मानव पिशाच तक जा सकती है।


सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण प्रकृति से उत्पन्न हुए तीनों गुण ही इस अविनाशी जीवात्मा को शरीर में बाँधते हैं। 


🙏🏻श्वेता, DIYA

Saturday 12 June 2021

प्रश्न - तीन माह में मेरी शादी होने वाली है, आप मुझे सुखमय वैवाहिक जीवन हेतु सलाह दें।

 प्रश्न - तीन माह में मेरी शादी होने वाली है, आप मुझे सुखमय वैवाहिक जीवन हेतु सलाह दें।

उत्तर - वैवाहिक जीवन में सुखी रहने के उपाय:-


1- बिन मांगें सलाह न दें

2- जीवनसाथी को प्रधानमंत्री की तरह महत्त्वपूर्ण माने, बिना तथ्य तर्क और प्रमाण के कोई भी प्रपोजल जीवनसाथी के समक्ष न ले जाएं।

3- जीवनसाथी एक मनुष्य है, उसका रिमोट कंट्रोल ढूंढने का प्रयास न करें। उसे नियंत्रित करने की कोशिश न करें।

4- आपने मनुष्य से शादी की है, तो उसमें देवी-देवताओं जैसे परफेक्ट गुण-स्वभाव-कर्म न तलाशें।

5- जीवनसाथी अन्तर्यामी परमात्मा नहीं है, जो आपकी भावनाओं को बिन बोले समझ लेगा। मनुष्य है अतः उसे बोलकर अपनी भावनाएं जताएं और समझाएं।

6- अपने जीवनसाथी की तुलना अन्य पुरुष/स्त्री से करने की भूल न करें।

7- जो मिला है उसी के साथ खुश रहें। लेन-देन प्रकृति का नियम है, समझौता विवाह की प्रथम शर्त है। यह याद रखें।


दूसरों को हैंडल करना सीखें, ससुराल व परिवार में सब आपको जाते ही आपकी इच्छानुसार स्वीकार लेंगे ऐसी कल्पना भी न करें। सबके साथ आपका व्यवहार और आपके साथ सबका व्यवहार जैसे जैसे मेल खायेगा वैसे वैसे एक दूसरे को स्वीकार कर सकेंगे। ऑपरेशन के बाद भी वक्त लगता है टाँके जुड़ने में, ऐसे ही दो अलग परिवार के दो लोग जो विवाह के दौरान एक हुए हैं उन्हें एक होने में वक्त लगेगा। धैर्य रखना होगा। एक दूसरे का सच्चा मित्र बनना होगा।


जब भी रिलेशनशिप में विपत्ति आये धैर्यपूर्वक उसे सुलझाने की कोशिश करना, उलझने व समस्या गिनने में समय व्यर्थ मत करना।


अपने जीवन लक्ष्य को समझना, किसी न किसी कार्य मे व्यस्त रहना। कलियुग है अतः स्वयं की सुरक्षा व अस्तित्व के रक्षण के लिए स्वयं को योग्य बनाना।


निःश्वार्थ प्रेम, सेवा भाव, अच्छे व्यवहार व मधुर बोली से लोगों का दिल जीता जा सकता है, ओल्ड फैशन आइडिया है लेकिन आज भी काम करता है।


निम्नलिखित पुस्तकों का स्वाध्याय सुखी गृहस्थी के निर्माण में सहायक है:-

1- गृहस्थ में प्रवेश से पूर्व उसकी जिम्मेदारी समझें

2- गृहस्थ एक तपोवन

3- मित्रभाव बढाने की कला

4- भाव संवेदना गंगोत्री

5- प्रबन्ध व्यवस्था एक विभूति एक कौशल

6- व्यवस्था बुद्धि की गरिमा

7- जीवन जीने की कला

👏 श्वेता, DIYA

प्रश्न - मैं 39 उम्र का विवाहित पुरुष हूँ, सुंदर लड़कियों को देखने से स्वयं को कैसे रोकूँ? मन को नियन्त्रित कैसे करूं?

 प्रश्न - मैं 39 उम्र का विवाहित पुरुष हूँ, सुंदर लड़कियों को देखने से स्वयं को कैसे रोकूँ? मन को नियन्त्रित कैसे करूं?


उत्तर - सुंदर पुष्प को या सुंदर बच्चे को या सुंदर स्त्री को देखना व सराहना गलत नहीं है। लेकिन यदि मन की नीयत सही नहीं है व वासनात्मक दृष्टि है तो अनुचित है।


वासना व इच्छाएं राजा महाराजा जिनकी हज़ारों सुंदर रानियां थीं उनकी पूरी नहीं हुई तो साधारण इंसान की पूरी होगी अनेकों रिश्ते बनाकर यह सोचना मूर्खता होगी।


एक बार श्री माँ से अरविंद आश्रम में एक शिष्य ने यह व्यथा कही कि मैं सन्यासी हूँ मगर मेरी दृष्टि युवा स्त्री को देखकर कलुषित हो जाती है, व हृदय में वासना उभर जाती है। मेरी सहायता कीजिये।


श्री माँ ने उसे मातृभाव साधना बताई, कहा थोड़ा अभ्यास करो और सभी स्त्रियों में मां दुर्गा को विराजमान समझो। ज्यों ही स्त्री दिखे उसे मन ही मन माँ दुर्गा समझ प्रणाम करो। माँ दुर्गा से प्रार्थना करो कि मां प्रत्येक युवा स्त्री में तुझे देख सकूँ और मुझमें मातृभाव जाग सके यह शक्ति दें। युवा सन्यासी ने श्री माँ की बताई विधि से माता दुर्गा से प्रार्थना करना शुरू किया, करुणामयी माँ दुर्गा की कृपा हुई और वह फिर जब भी किसी युवा स्त्री को देखता तो बस माँ कह के मन ही मन उसके चरणों मे प्रणाम करता। शुरू शुरू में कठिनाई हुई मग़र अभ्यस्त होने पर वह पुत्रवत भाव जगा सका, सबमें माता को देख सका।


जब दृष्टि बदली तो उसकी सृष्टि बदल गयी, जब नीयत बदली तो मन नियंत्रण में हो गया।यही मातृ भाव साधना आपकी भी मदद करेगी। सभी सुंदर लड़कियों में माता दुर्गा/गायत्री के दर्शन होंगे तो वात्सल्य व ममत्व उभरेगा और वासना मिट जाएगी।


🙏🏻श्वेता, DIYA

Friday 11 June 2021

प्रश्न - गर्भ धारण के कितने दिनों बाद जीवात्मा गर्भ में प्रवेश करती है?

 प्रश्न - गर्भ धारण के कितने दिनों बाद जीवात्मा गर्भ में प्रवेश करती है?


उत्तर - अध्यात्म व विज्ञान सभी इस सम्बंध में एकमत नहीं है। गर्भोपनिषद  कहता है कि सातवें माह में गर्भ स्थित पिंड जीव युक्त हो जाता है।


विज्ञान कहता है हृदय की धड़कन यह सिद्ध करती है कि प्राण प्रवेश कर गया है।


अन्य धर्म ग्रंथ, तंत्र ग्रंथ व पुनर्जन्म से सम्बंधित ग्रंथ व परामनोविज्ञान कहता है कि गर्भ के 7 वें सप्ताह (लगभग 40 दिन बाद) से 7 वें महीने के अंदर गर्भ में कभी भी प्राण(जीवात्मा) प्रवेश कर सकती है। अतः 7 वें सप्ताह से ही गर्भ को जीवात्मा युक्त माना जा सकता है।


जीवात्मा का स्वयं गर्भ चुनना या ईश्वरीय न्याय व्यवस्था के अंतर्गत निर्धारित गर्भ में ही प्रवेश मिलने के 50-50 % चांसेस होते हैं। पूर्वजन्म के कर्मानुसार जीवात्मा के अच्छे कर्म होते हैं तभी स्वतः गर्भ चुनने का अवसर मिलता है। जैसे संचित कर्म व चित्त वैसे प्रकार के माता पिता के यहां गर्भ में प्रवेश मिलता है। अपवाद रूप में ही कभी कभी विपरीत प्रवृत्ति के बच्चे पैदा होते यह पूर्व जन्म के ऋणानुबंध का असर होता है।


प्राकृतिक घटनाएं गुफाएं तैयार करती हैं, वहां जीव प्रवेश कर अपना आश्रय बना लेते हैं। इसी तरह स्त्री पुरूष गर्भस्थ पिण्ड का निर्माण करते हैं, व उनकी चित्त, मानसिक तरंगे व घर का वातावरण सिग्नल आकाश में भेजते हैं, उनकी उन तरंगों, विचारों व मनोभावों से आकर्षित हो शरीर की तलाश में घूम रही जीवात्मा उनमें प्रवेश करते हैं।


इसलिए परमपूज्य गुरुदेव पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य ने कहा है, नए जोड़ो को जैसी आत्मा गर्भ में आकर्षित करनी है वैसे ही चिंतन, विचार व मनोभाव व घर का वातावरण गर्भधारण के कम से कम 9 माह पूर्व से गर्भ धारण के 9 वें महीने तक बनाएं रखें। इससे मनोवांछित गुणों की सन्तान पाई जा सकती है।


🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती

डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन

प्रश्न - शरीर पंचतत्वों से किस प्रकार बना है? वह पंचतत्व शरीर में कहाँ व क्या हैं?

 प्रश्न - शरीर पंचतत्वों से किस प्रकार बना है? वह पंचतत्व शरीर में कहाँ व क्या हैं?


उत्तर - पृथ्वी, जल, अग्नि(तेज), वायु, आकाश इन पंचतत्वों से शरीर बना है।


*पृथ्वी तत्व* - जो कुछ भी शरीर में ठोस, कठिन है व दृश्य है, वह सब पृथ्वी तत्व है- उदाहरण - चमड़ी, मांस, मज्जा इत्यादि।

पृथ्वी तत्व धारण करने का कार्य करता है।


*जल तत्व* - जो कुछ भी शरीर में द्रव्य, तरल है व दृश्य है, वह सब जल तत्व है- उदाहरण - रक्त, विभिन्न अंतःस्रावी ग्रन्थियों से बहते रस व हार्मोन इत्यादि।

जल तत्व एकत्रित करने का कार्य करता है।


*अग्नि तत्व* - जो कुछ भी शरीर में उष्णता, गर्मी व तेज़ है, वह सब अग्नि तत्व है- उदाहरण - शरीर का तापमान,  जठराग्नि, पाचन की विभिन्न अग्नियां, रोगप्रतिरोधक श्वेत रक्त कणों द्वारा अपरिचित विषाणुओं को नष्ट करने के लिए रगड़ द्वारा शरीर गर्म करना इत्यादि।

अग्नि प्रकाशित, पाचन, गर्म व तेज उतपन्न करने का कार्य करता है।


*वायु तत्व* - जो कुछ भी शरीर में प्रवाह है, संचार है, गति है व श्वांस है, वह सब वायु तत्व है- उदाहरण - श्वांस, पाचन के दौरान प्रयुक्त वायु, नाक से फेफड़े, फेफड़े से हृदय तक प्राण वायु पहुंचना व रँक्त में मिलकर पूरे शरीर में संचार करना इत्यादि।

वायु तत्व व्यूहन अर्थात अवयवों को यथास्थान प्रतिष्ठित करने का कार्य करता है।


*आकाश तत्व* - जो कुछ भी शरीर में छिद्र है, रिक्त स्थान है, वह सब आकाश तत्व है। उदाहरण - कान के पास पर्दे के पास का रिक्त स्थान, पेट मे व्रत उपवास के दौरान निर्मित रिक्त स्थान इत्यादि।

आकाश तत्व का कार्य अवकाश प्रदान करना है।


संदर्भ पुस्तक - दुर्लभ 108 उपनिषद, गर्भोपनिषद


🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती

डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन

Wednesday 9 June 2021

यदि तुम भयभीत हो तो सच्चे अध्यात्म से अभी दूर हो

 *यदि तुम भयभीत हो तो सच्चे अध्यात्म से अभी दूर हो*


मन में साहस व धैर्य रखिये

भरोसा ईश्वर पर पूरा कीजिये, 

संघर्षों व विपत्तियों से डटकर लड़िये,

लड़कर ही विजेता या शहीद बनिये।


यह धरती वीरों के लिए ही सुखदायी है,

कायरों के लिए यह धरती हमेशा दुःखदायी है,

अतः वीरता व साहस जगाइये,

बिना लड़े हार मत मानिए।


जो डर गया,

वह मर गया,

जो मन से हार गया,

वह जीवन हार गया,

डर को साहस से बदल दो,

मन में साहसी विचारों को भर दो,

जीवन संघर्ष की चुनौतियों को,

सहर्ष स्वीकार लो,

सूझबूझ व समझदारी से,

इन को अपने नियंत्रण में ले लो।


ईश्वर उसी की मदद कर सकता है,

जो अपनी मदद स्वयं करता है,

आध्यात्मिक होने का अर्थ ही कर्मयोगी होना है,

आध्यात्मिक होने का अर्थ ही निडर होना है।


यदि तुम भयभीत हो,

तो तुम अभी अध्यात्म से दूर हो,

यदि तुम चिंतित हो,

तो तुम ईश्वर की शक्ति से अपरिचित हो।


भय को मिटाना है,

तो ईश्वर पर पूरा विश्वास करना होगा,

जीवन को आनन्दमय जीना है,

तो संघर्ष में भी श्रीकृष्ण की तरह मुस्कुराना होगा।


जीवन युद्ध मे भी,

गीता का संदेश याद रखना होगा,

बुद्धिरथ का सारथी सद्गुरु को बनाकर,

अपना युद्ध स्वयं ही लड़ना होगा।


🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती

डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन

प्रश्न - मंत्रजप, स्वाध्याय व सत्संग के बावजूद अपेक्षित व्यक्तित्व में परिवर्तन क्यों नहीं होता?

 प्रश्न - मंत्रजप, स्वाध्याय व सत्संग के बावजूद अपेक्षित व्यक्तित्व में परिवर्तन क्यों नहीं होता?


उत्तर - सामान्यतया मन [चेतना] के तीन स्तर माने गए हैं- सचेतन, अवचेतन और अचेतन मन। 


*सचेतन:* यह मन का लगभग दसवां हिस्सा होता है, जिसमें स्वयं तथा वातावरण के बारे में जानकारी (चेतना) रहती है। दैनिक कार्यों में व्यक्ति मन के इसी भाग को व्यवहार में लाता है।


*अचेतन:* यह मन का लगभग 90 प्रतिशत हिस्सा है, जिसके कार्य के बारे में व्यक्ति को जानकारी नहीं रहती। यह मन की स्वस्थ एवं अस्वस्थ क्रियाओं पर प्रभाव डालता है। इसका बोध व्यक्ति को आने वाले सपनों से हो सकता है। इसमें व्यक्ति की मूल-प्रवृत्ति से जुड़ी इच्छाएं जैसे कि भूख, प्यास, यौन इच्छाएं दबी रहती हैं। मनुष्य मन के इस भाग का सचेतन इस्तेमाल नहीं कर सकता। यदि इस भाग में दबी इच्छाएं नियंत्रण-शक्ति से बचकर प्रकट हो जाएं तो कई लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं जो बाद में किसी मनोरोग का रूप ले लेते हैं।


*अर्धचेतन या पूर्वचेतन:* यह मन के सचेतन तथा अचेतन के बीच का हिस्सा है, जिसे मनुष्य चाहने पर इस्तेमाल कर सकता है, जैसे स्मरण-शक्ति का वह हिस्सा जिसे व्यक्ति प्रयास करके किसी घटना को याद करने में प्रयोग कर सकता है।


शिक्षा बुद्धि द्वारा सचेतन मन से ली जाती है, इसमें भावनाओं की उपस्थिति गौण रहती है। विद्या में बुद्धि के साथ भावनाओं की उपस्थिति अनिवार्य है।


आध्यात्मिक विद्या में बुद्धि गौण व भावनाएं मुख्य होती हैं।


उदाहरण - हम यदि बुद्धि स्तर पर सचेतन मन से समझते हैं कि क्रोध नहीं करना चाहिए। लेकिन जब समय आता है तो  क्रोध आ जाता है ऐसा क्यों? कभी समझा है ऐसा क्यों होता है?


भावनाएं अवचेतन मन का क्षेत्र है, और स्वाध्याय सत्संग आप सचेतन मन को करवा रहे हैं। ये तो ऐसा हुआ कि क्रोध महल के अंदर बैठा राजा कर रहा है और क्रोध न करने का ज्ञान द्वारपाल को दिया जा रहा हो। द्वारपाल तो क्रोध करता नहीं, वह सक्षम भी नहीं है राजा को सम्हालने व शिक्षा देने में... इसलिए आपने देखा होगा बुद्धिमान व उच्च शैक्षिक डिग्री वाले भी निज भावनाओ के उफान को सम्हालने व मन को नियंत्रित करने में सक्षम नहीं होते। क्योंकि शैक्षिक डिग्री द्वारपाल ने ली है, राजा जी तक ज्ञान पहुंचा नहीं।


तो प्रश्न यह उठता है कि मन के भीतर के 90% अवचेतन मन राजा जी के पास कोई ज्ञान कैसे पहुँचे? सचेतन मन द्वारपाल तो जाने न देगा। राजा जी को कुछ समझाना सहज भी न होगा।


तब हमें सेल्फ हिप्नोसिस करना होगा एक बात को बार बार दोहराना होगा। मन का द्वारपाल सचेतन मन को बोर  करना होगा, यदि बार बार कोई बात बोलोगे तब वह सचेतन मन रूपी द्वारपाल बोर होकर सो जाएगा, तब अंतर्मन अवचेतन जाग उठेगा। बार बार दोहराने से वह बात जो स्वयं को समझाना चाहते हो अंतर्मन राजा जी को समझ आ जायेगी, राजा जी एक दिन में कुछ न समझेंगे उन्हें भी बार बार कई दिनों तक एक विचार समझाना होगा। एक बार जो बात राजा को समझ आ गयी फिर अपेक्षित परिवर्तन व्यक्तित्व में घटेगा।


इसलिए मन्त्रजप व ध्यान को बार बार करने को कहा जाता है। जिद्दी सचेतन मन द्वारपाल को सुलाकर अंतर्मन तक वह विचार, मन्त्र व ध्यान पहुंच गया तो कमाल होगा। तब मन्त्र जप में ध्यान न भटकेगा, तब स्वतः ध्यान लगने लगेगा। तब वह विचार व्यक्तित्व का हिस्सा बन जायेगा।


🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती

डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन

Monday 7 June 2021

एलोपैथी चिकित्सक व आयुर्वेद चिकित्सक की अनूठी चुनौती

 *एलोपैथी चिकित्सक व आयुर्वेद चिकित्सक की अनूठी चुनौती*


बीसवीं सदी में दो मेधावी व कुशाग्र बुद्धि अत्यंत मेहनती मित्रों की बचपन से ही चिकित्सा क्षेत्र में अभिरुचि थी, एक ने एलोपैथी चुना व दूसरे ने आयुर्वेद चुना।  उस समय हमारा देश अंग्रेजो का गुलाम था।


दोनों ने अपने क्षेत्र में प्रसिद्धि कमाई, एलोपैथ चिकित्सक जब लंदन से पुरस्कृत हो लौटे तो उन्होंने अपने आयुर्वेद मित्र को आजमाने/उनके आयुर्वेद ज्ञान को चुनौती देने का मन बनाया।


 एलोपैथ चिकित्सक ने अपने नौकर के पुत्र की जान बचाई थी, वह बहुत कृतज्ञ था। तो उस नौकर को बोला हमारे मित्र वाराणसी में रहते हैं उन्हें यह पत्र दे देना। 


यह लो पैसा रास्ते के लिए, ध्यान रखना लखनऊ से वाराणसी जाते वक्त तुम्हें पैदल यात्रा व बैलगाड़ी से यात्रा करनी है, केवल इमली के पेड़ के नीचे ठहरना है व इमली के पत्ते व इमली को नित्य भोजन में खानां है। जितने दुःख कष्ट अब तक तुम्हें मिले उन्हें सोचना। वह नौकर जब घर से निकला तब स्वस्थ था, मग़र अत्यधिक इमली के सेवन व इमली के पेड़ के संग समय व्यतीत करने पर कोढ़ रोग से ग्रस्त हो गया। जगह जगह फोड़े व मवाद से शरीर भर गया। वह किसी भी तरह आयुर्वेद वैद्य मित्र के पास पहुंचा व पत्र दिया।


पत्र में लिखा था - यह कोढ़ ग्रस्त मेरे नौकर को ठीक आपको करना है,मग़र आप इसे अपने पास रोक नहीं सकते, इसे तुरंत वापस भेजना है।


वैद्य मित्र ने उस नौकर से सब हाल पूँछा, इमली के सेवन व रास्ते मे इमली के पेड़ के नीचे ठहरने की बात पता चली।


वैद्य मित्र ने एक पत्र लिखकर नौकर के हाथ मे दे दिया। और बोला इन पत्तों को पहचानों यह तुलसी है, नीम है व गिलोय है। रास्ते मे लौटते वक़्त यदि ठीक होना चाहते हो तो मात्र नीम के पेड़ के नीचे विश्राम करना। नित्य नीम , तुलसी व गिलोय जहां जो मिले कच्चा खा लेना। बहुत कड़वाहट हो तो उसके बाद मुंह मे थोड़ा गुड़ खाकर  मुंह का स्वाद ठीक कर लेना। नित्य जितने अच्छे पल तुम्हें जीवन मे मिले उन्हें सोचना। गायत्री मंत्र व महामृत्युंजय मंत्र का उगते सूर्य का ध्यान करते हुए जपना व भावना करना कि तुम सूर्य के समान तेजस्वी, ओजस्वी, वर्चस्वी, स्वस्थ व दीर्घायु बन रहे हो। फोड़ो पर नीम या तुलसी के पत्तो को मसलकर उसका रस लगा लेना। 


वह नौकर लौटा व वैद्य की बताये नियम पालन करते हुए एलोपैथ चिकित्सक मित्र के पास पहुंचा व पत्र दिया।


पत्र में लिखा था - किसी भी जीव को मनोविनोद के लिए कष्ट देना अच्छा नहीं। आपके नौकर को स्वस्थ कर दिया है, व पहले से अधिक तन्दरुस्त व शक्तिशाली प्रतीत हो रहा होगा। उसका तेजोमय चेहरा स्वयं देख सकते हो। आयुर्वेद जीवन विज्ञान है, जीवन जीने की कला है। यह मात्र रोग की चिकित्सा नहीं है, यह तो शारीरिक, मानसिक व आध्यात्मिक रोगों को जड़ से मिटाने की कला व विज्ञान है।


एलोपैथ चिकित्सक मित्र निरुत्तर थे, एवं आयुर्वेद के आगे नतमस्तक थे।


यह कहानी मेरे पिताजी ने मुझे बचपन में सुनाई थी। वह सरकारी शिक्षा विभाग में जॉब करते थे, मग़र आयुर्वेद व जड़ी बूटी का अच्छा ज्ञान था। जब रिटायर होकर गांव गए तो लोगों को निःशुल्क आयुर्वेद व जड़ी बूटी से ठीक कर देते थे। पेट दर्द को तो घर के पास एक जामुनी कलर की एक घास छोटी छोटी गोल पत्तियों को पीस कर उसके सेवन से ठीक करवा देते थे।




🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती,

डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन

Sunday 6 June 2021

किसी की गलतियों के गड़े मुर्दे मत उखाड़िये, यदि वह व्यक्ति सुधरना चाहता है तो उसकी हृदय से हर सम्भव मदद कीजिये।

 *किसी की गलतियों के गड़े मुर्दे मत उखाड़िये, यदि वह व्यक्ति सुधरना चाहता है तो उसकी हृदय से हर सम्भव मदद कीजिये।*


मनुष्य अनगढ़ व गलतियों का पुतला होता है, लेक़िन भूलवश या आवेशग्रस्त गलती करके सुधारने वाला और भविष्य में वह गलती न दोहराने वाला महान होता है।


यदि कोई सच्चे मन से सुधरने का प्रयास करे, तो उसकी सहायता करें। उसकी पिछली गलतियों को याद करा करा के उसे अपमानित न करें। जब भगवान बुद्ध व भगवान नारद ने क्रमशः अंगुलिमाल व रत्नाकर डाकू को सुधरने का अवसर दिया है। तो हमें भी उनकी तरह लोगो को सुधरने का मौका देना चाहिए, उनकी सहायता करनी चाहिए।


विश्वामित्र को उनके पिछले दोष नहीं गिनाए जाते, अपितु उनके सुधरने व तपस्वी बनने के बाद किये उनके महान योगदान के लिए याद किया जाता है। 


गड़े मुर्दे किसी की गलतियों के मत उखाड़िये, यदि वह व्यक्ति सुधरना चाहता है तो उसे मदद कीजिये। यही युगनिर्माण है, अनगढ़ को सुगढ़ बनाना, बिगड़े को सुधरने में सहायक बनना। 


🙏🏻श्वेता, DIYA

Friday 4 June 2021

मन्त्रचिकित्सा मानसिक स्वास्थ्य व पर्यावरण शोधन हे

 *मन्त्रचिकित्सा मानसिक स्वास्थ्य व पर्यावरण शोधन हेतु*


प्रदूषण हर क्षेत्र में है, उनमें से एक क्षेत्र है ध्वनि प्रदूषण। 


ध्वनि का सीधा सम्बंध भावनाओं को तरंगित करने से है। इसलिए यह स्थूल और सूक्ष्म शरीर के साथ साथ कारण शरीर के उत्कर्ष व उन्नयन का आधार भी बन जाता है। तनाव मिटाने, मनःशक्ति संवर्धन व स्नायुतंत्रों को रिलैक्स करने में इसकी उपयोगिता देखी गयी है।


ध्वनियों का प्रभाव जलचर, थलचर, नभचर वर्ग के प्राणी, सभी प्रकार के जीव वनस्पतियों पर भी पड़ता है। वायु मंडल के परिशोधन व ध्वनि प्रदूषण को दूर करने में सकारात्मक ऊर्जा उतपन्न करने वाली ध्वनियां सहायक हैं।


गायत्री मंत्र व महामृत्युंजय मंत्र जैसे शक्तिशाली गेय मंत्रों के सही उच्चारण व सही धुन पर गाने से उतपन्न स्वरलहरी का विशेष प्रभाव उतपन्न होता है।


फसलों व वृक्षों के आसपास यह विशेष गेय मंत्रों की ध्वनि लहर तरंगों को नियमित प्रेषित कर अधिक फसल, उपयोगी फल उतपन्न किये जा सकते हैं।


गर्भवती स्त्री यदि गेय मन्त्र नियमित जपे व सुने तो गर्भस्थ शिशु मानसिक रूप से स्वस्थ, प्रखर बुद्धि व निर्मल हृदय का बनता है। जच्चा-बच्चा दोनो तनावमुक्त महसूस करते हैं व शरीर मे अच्छे हार्मोन्स निकलते हैं जिससे तन व मन स्वस्थ होते हैं।


विद्यार्थी, जॉब करने वाले, व्यवसायी व गृहणियों की मानसिक थकान को दूर करने व ऊर्जावान बनने के लिए इन गेय मंत्रों का जप व श्रवण अत्यंत लाभप्रद है।


घर में सब सामूहिक 24 गायत्री मन्त्र एक साथ उच्चारण कर दीपयज्ञ या यज्ञ के माध्यम से विशेष लाभ ले सकते हैं।


मन्त्र बॉक्स किचन व ड्राइंग रूम में हल्की मधुर आवाज में भी बजाने पर एक प्रकार की सकारात्मक ध्वनि तरंगों के निर्माण में सहायक होता है।


संदर्भ - शब्द ब्रह्म नाद ब्रह्म (वांग्मय 19)


🙏🏻श्वेता, DIYA

मन्त्रशक्ति को प्रचंड बनाने के लिए त्रिविध उपचार

 ⚡ *मन्त्रशक्ति को प्रचंड बनाने के लिए त्रिविध उपचार*-


मन्त्र में..

🌪️वायु तत्व शक्ति जोड़ने के लिए- प्राणायाम

💦जल तत्व शक्ति जोड़ने के लिए - स्नान, आचमन व अर्घ्यदान

🔥अग्नि तत्व शक्ति जोड़ने के लिए-

दीपक, धूपबत्ती व यज्ञ


उपरोक्त त्रिविध उपचार करके मन्त्र शक्ति को प्रचंड करने का उपक्रम किया जाता है।


⚡ *मन्त्र में शक्ति व सिद्धि चार अग्नि परीक्षाओं को देने के बाद आता है।*


1- अभीष्ट लक्ष्य व ईष्ट में अटूट श्रद्धा व विश्वास

2- चारित्रिक श्रेष्ठता व संयमित जीवन

3- मानसिक एकाग्रता

4- शब्द शक्ति- अमुक अक्षरों का एक विशिष्ट क्रम में गूढ़ सिद्धांतो पर तत्त्वदर्शियों आध्यात्मिक वैज्ञानिकों(अध्यात्मवेताओ) द्वारा किया गया शब्द शास्त्र आधारित गुंथन।


रेफरेंस - शब्द ब्रह्म नाद ब्रह्म (वाङ्गमय 19)


🙏🏻श्वेता, DIYA

प्रश्न - रुद्र गायत्री मंत्र में *वक्राय* (vakraya) उच्चारण सही है या *वक्त्राय* (vaktraya) ?किसी भी देवताओं के गायत्री मंत्र में ' विद्यमहे’, ' धीमही’ और 'प्रचोदयात्’ का क्या अर्थ है?

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