प्रश्न - *दी प्रणाम, मैं दो साल से साधना एवम स्वाध्याय कर रहा हु पर मेरा अपने ऊपर नियंत्रण नही रहता मुझे बहुत ज्यादा गुस्सा आता है और जब भी गुस्सा आता है तो मैं अपना नियंत्रण खो देता हूं और गुस्से में किसी को कुछ भी बोल देता हूं / अपमानित या अभद्रतापूर्ण भाषा का प्रयोग कर देता हूं और ऐसा ज्यादा तर अपने घर बाले के साथ होता है मेरी अपनी माता पिता भाई, बहन, पत्नी के साथ ज्यादा गुस्सा आता है और जब गुस्सा आता है तो ग़ुस्से में क्रोध वस कुछ भी बोल देता हूं और फिर दुखी होता हूं बहुत ज्यादा दुख होता है हृदय बहुत रोता है, और हर बार संकल्प लेता हूं कि दुबारा ऐसी गलती नही करूँगा लेकीन हमेसा वही गलती दुहराता हु कृप्या मार्गदर्शन दें*
उत्तर - आत्मीय भाई, तुम्हारी चेतना जागृत है। कम से कम तुम्हे अहसास तो है कि तुम क्रोध रूपी गलती कर रहे हो।
अभी कई दिनों पहले मैं एक मीटिंग में थी, एक जूनियर सदस्य के कुछ बोलने पर सीनियर सदस्य जो कि करीब पंद्रह से बीस वर्षों से स्वाध्याय और साधना कर रहे है। अभद्रता का परिचय देते हुए क्रोध में तमतमाये चेहरे के साथ उस जूनियर सदस्य को कटु वचनों की बौछार करते हुए चुप करवा दिया। सबने देखा सुना लेकिन मीटिंग की गम्भीरता को देखते हुए चुप रहे। अफ़सोस यह है कि उन्हें अपनी इस गलती का अहसास भी न होगा।
देखो भाई *क्रोध* ऐसा हुनर है :-
जिसमें *फँसते* भी हम है,
*उलझते* भी हम है,
*पछताते* भी हम है,
और *पिछड़ते* भी हम है।
*क्रोध* वो आग है जो दूसरों को जलाने से पहले स्वयं को जलाती है। दूसरों को नीचा दिखाने से पहले स्वयं को नीचा कर देती है।
उत्तेजना से मनुष्य की विवेक-शक्ति धीरे-धीरे समाप्त होने लगती है। उसकी दूरदर्शिता कुण्ठित हो जाती है। उत्तेजना की दशा में कोई भी मनुष्य किसी बात पर सही निर्णय नहीं कर पाता और बिना आगे-पीछे की सोचे वह चाहे जो कुछ करने पर उतारू हो जाता है। परिणाम यह होता है कि धीरे-धीरे उसकी यही स्थिति बन जाती है जिसमें विवेक और दूरदर्शिता से निर्णय किए बिना ही उत्तेजना के दौर में काम होने लगता है।
*मानव स्वभाव की यह विशेषता है कि उससे बार-बार जिस तत्त्व का सम्पर्क होता है वह उसी के अनुरूप बनने लगता है। उत्तेजना के बार-बार आने वाले दौरे से मनुष्य का स्वभाव ही उत्तेजक बन जाता है। विवेकशीलता दूरदर्शिता कुंठित हो जाती है। आवेश की आंधी में आध्यात्मिक एवं मानसिक शक्तियां शिथिल एवं निष्क्रिय होने लग जाती हैं। उत्तेजक स्वभाव बन जाने से दया, क्षमा, सन्तोष, शान्ति, प्रतिभा आदि सद्वृत्तियां भी तिरोहित हो जाती हैं।*
उत्तेजना मानव स्वभाव का एक ऐसा दोष है जो पैतृक संस्कारों, वातावरण, संगति एवं खराब स्वास्थ्य आदि के कारण अपना घर कर लेती है। जो भी हो किन्तु जिसके स्वभाव में उत्तेजना ने घर कर लिया उसे जल्दी ही इससे छुटकारे के लिए प्रयत्न करना चाहिए अन्यथा यह विष-वृक्ष सम्पूर्ण जीवन पर छा कर उसे नीरस, शुष्क, भयंकर, दयनीय एवं नारकीय बना देगा।
साधना से ऊर्जा उत्तपन्न होती है, वह ऊर्जा मनुष्य के समस्त गुणों तक पहुंचती है और उसे बढ़ा देती है। उदाहरण यदि घर के समस्त बिजली के उपकरण खुले हों तो विद्युत से सब चल पड़ेंगे। एयरकंडीशनर भी और हीटर भी, पंखे भी और ओवन भी। इसमें विद्युत ऊर्जा का क्या दोष कि एयरकंडीशनर के साथ हीटर भी क्यों चल रहा है? इसी तरह उपासना से प्राप्त ऊर्जा का क्या दोष यदि सद्गुणों के साथ दुर्गुण क्रोध भी बढ़ रहा है?
उपासना के बाद - साधना जरूरी हैं। *बिजली के उपकरणों की तरह हमारे मन के उपकरणों को ऑन या ऑफ करने की विधि व्यवस्था है ध्यान, प्राणायाम और स्वाध्याय। स्वाध्याय केवल पुस्तको का नहीं होता। स्व-अर्थात स्वयं और अध्याय अर्थात अध्ययन करना।*
*अगर कुछ गड़बड़ खाओगे तो पेट मे गैस बनेगी, वो गैस थोड़ी हुई तो केवल घर मे ही दुर्गंध देगी, घर मे ही रिलीज़ करोगे और केवल घर वाले परेशान होंगे। और पेट में गैस यदि ज्यादा बनने लगी तो समाज में कहीं भी कभी भी निकलेगी और दुर्गंध के कारण शर्मिंदगी उठानी पड़ेगी। यदि रोज सङ्कल्प लोगे कि अब मैं किसी के सामने गैस नहीं छोड़ूंगा तो सङ्कल्प अवश्य टूटेगा। लेकिन यदि यह सङ्कल्प लोगे कि गैस की जड़ अर्थात उल्टा सीधा खाना नहीं खाओगे, और शुद्ध सात्विक खाओगे और पेट का ख्याल रखोगे तो सङ्कल्प पूरा होगा।* जब पेट में गैस बनेगी ही नहीं, तो फिर न घर मे गैस छूटेगी न बाहर।
इसी तरह यदि केवल गुस्सा न करने का संकल्प लोगे तो यह सङ्कल्प रोज टूटेगा। क्योंकि दिमाग़ के ख़राब होने पर गुस्से का प्रकटीकरण होगा ही।
तो करना क्या है, आइये इसे समझते हैं:-
बहुधा बीमारी से उठने पर अथवा स्वास्थ्य के कमजोर होने पर मनुष्य के स्वभाव में चिड़चिड़ापन, झल्लाहट अथवा बात-बात में उत्तेजना होने लगती है। खराब स्वास्थ्य होने से मनुष्य की मानसिक स्थिति कमजोर हो जाती है जिससे स्वभाव वैसा ही बन जाता है। क्रोध रूपी उत्तेजना से छुटकारा पाने के लिए सर्वप्रथम अपने स्वास्थ्य का सुधार करना आवश्यक है। स्वास्थ्य खराब हो तो चिकित्सा, आहार-विहार का संयम, व्यायाम, योगासन आदि से सुधारने का प्रयत्न करना चाहिये। स्वास्थ्य ठीक होने पर उत्तेजक स्वभाव स्वतः ठीक हो जाता है।
अधिक से अधिक निश्चिन्त एवं प्रसन्नचित्त रहने का प्रयत्न करना चाहिए। हर समय चिन्ताओं, उलझनों में डूबे रहने पर, बेसिर-पैर की अनावश्यक बातों पर सोच-विचार करते रहने पर छोटे-छोटी बातों में ही मनुष्य का मन प्रगति करता है, जिससे मस्तिष्क की प्रौढ़ता, उर्वरता शक्ति कुंठित हो जाती है। ऐसे व्यक्तियों को छोटी-छोटी बातों पर झल्लाहट होने लगती है। मित्रों की छोटी-छोटी हंसी-मजाक की बातों में भी वे षड्यन्त्र का आभास अपमान, तिरस्कार की कल्पना करके तिल का ताड़ बना लेते हैं। इससे भी धीरे-धीरे मनुष्य का उत्तेजक स्वभाव बन जाता है। अतः अपना दृष्टिकोण उदार और विशाल बनाना चाहिए। सब पर विश्वास, सबमें घुलने-मिलने की आदत सबके प्रति आत्मीयता, शुभ कामनाएं, सद्भावनाएं मनुष्य के मस्तिष्क को प्रौढ़, विशाल और गम्भीर बनाती हैं।
जॉब की समस्या और आर्थिक समस्याओं का बुद्धिमानी और बहादुरी से सामना करना चाहिए। लेकिन जॉब और आर्थिक समस्या को घर मे लेकर नहीं आना चाहिए। जिस प्रकार बाहर के जूते चप्पल उतारकर घर मे प्रवेश करते हो, उसी तरह जॉब और आर्थिक समस्या की टेंशन घर के बाहर उतारकर घर में प्रवेश करना। सुबह ऑफिस जाते वक़्त घर की समस्या घर में छोड़कर ऑफिस जाना। ऑफिस की टेंशन पर साक्षी भाव से काम करना।
तुम्हारी समस्या है कि तुम घटना से तादात्म्य बिठा लेते हो और समस्या का अंग बन जाते हो, जैसे टीवी सीरियल देखते देखते कई लोग रोने लगते है क्योंकि स्वयं को वो उस नकली नाटक का हिस्सा मान लेते हैं। जबकि बुद्धिमान पुरुष/स्त्री उस नाटक को साक्षी भाव से देखते हैं, तो रोने की जरूरत नहीं पड़ती। जिंदगी को साक्षी भाव से देखो, उसपर कार्य करो। मस्त रहो और आनन्दित जीवन जियो। अच्छे विचारों का भोजन मष्तिष्क को नित्य देते रहो।
🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन
उत्तर - आत्मीय भाई, तुम्हारी चेतना जागृत है। कम से कम तुम्हे अहसास तो है कि तुम क्रोध रूपी गलती कर रहे हो।
अभी कई दिनों पहले मैं एक मीटिंग में थी, एक जूनियर सदस्य के कुछ बोलने पर सीनियर सदस्य जो कि करीब पंद्रह से बीस वर्षों से स्वाध्याय और साधना कर रहे है। अभद्रता का परिचय देते हुए क्रोध में तमतमाये चेहरे के साथ उस जूनियर सदस्य को कटु वचनों की बौछार करते हुए चुप करवा दिया। सबने देखा सुना लेकिन मीटिंग की गम्भीरता को देखते हुए चुप रहे। अफ़सोस यह है कि उन्हें अपनी इस गलती का अहसास भी न होगा।
देखो भाई *क्रोध* ऐसा हुनर है :-
जिसमें *फँसते* भी हम है,
*उलझते* भी हम है,
*पछताते* भी हम है,
और *पिछड़ते* भी हम है।
*क्रोध* वो आग है जो दूसरों को जलाने से पहले स्वयं को जलाती है। दूसरों को नीचा दिखाने से पहले स्वयं को नीचा कर देती है।
उत्तेजना से मनुष्य की विवेक-शक्ति धीरे-धीरे समाप्त होने लगती है। उसकी दूरदर्शिता कुण्ठित हो जाती है। उत्तेजना की दशा में कोई भी मनुष्य किसी बात पर सही निर्णय नहीं कर पाता और बिना आगे-पीछे की सोचे वह चाहे जो कुछ करने पर उतारू हो जाता है। परिणाम यह होता है कि धीरे-धीरे उसकी यही स्थिति बन जाती है जिसमें विवेक और दूरदर्शिता से निर्णय किए बिना ही उत्तेजना के दौर में काम होने लगता है।
*मानव स्वभाव की यह विशेषता है कि उससे बार-बार जिस तत्त्व का सम्पर्क होता है वह उसी के अनुरूप बनने लगता है। उत्तेजना के बार-बार आने वाले दौरे से मनुष्य का स्वभाव ही उत्तेजक बन जाता है। विवेकशीलता दूरदर्शिता कुंठित हो जाती है। आवेश की आंधी में आध्यात्मिक एवं मानसिक शक्तियां शिथिल एवं निष्क्रिय होने लग जाती हैं। उत्तेजक स्वभाव बन जाने से दया, क्षमा, सन्तोष, शान्ति, प्रतिभा आदि सद्वृत्तियां भी तिरोहित हो जाती हैं।*
उत्तेजना मानव स्वभाव का एक ऐसा दोष है जो पैतृक संस्कारों, वातावरण, संगति एवं खराब स्वास्थ्य आदि के कारण अपना घर कर लेती है। जो भी हो किन्तु जिसके स्वभाव में उत्तेजना ने घर कर लिया उसे जल्दी ही इससे छुटकारे के लिए प्रयत्न करना चाहिए अन्यथा यह विष-वृक्ष सम्पूर्ण जीवन पर छा कर उसे नीरस, शुष्क, भयंकर, दयनीय एवं नारकीय बना देगा।
साधना से ऊर्जा उत्तपन्न होती है, वह ऊर्जा मनुष्य के समस्त गुणों तक पहुंचती है और उसे बढ़ा देती है। उदाहरण यदि घर के समस्त बिजली के उपकरण खुले हों तो विद्युत से सब चल पड़ेंगे। एयरकंडीशनर भी और हीटर भी, पंखे भी और ओवन भी। इसमें विद्युत ऊर्जा का क्या दोष कि एयरकंडीशनर के साथ हीटर भी क्यों चल रहा है? इसी तरह उपासना से प्राप्त ऊर्जा का क्या दोष यदि सद्गुणों के साथ दुर्गुण क्रोध भी बढ़ रहा है?
उपासना के बाद - साधना जरूरी हैं। *बिजली के उपकरणों की तरह हमारे मन के उपकरणों को ऑन या ऑफ करने की विधि व्यवस्था है ध्यान, प्राणायाम और स्वाध्याय। स्वाध्याय केवल पुस्तको का नहीं होता। स्व-अर्थात स्वयं और अध्याय अर्थात अध्ययन करना।*
*अगर कुछ गड़बड़ खाओगे तो पेट मे गैस बनेगी, वो गैस थोड़ी हुई तो केवल घर मे ही दुर्गंध देगी, घर मे ही रिलीज़ करोगे और केवल घर वाले परेशान होंगे। और पेट में गैस यदि ज्यादा बनने लगी तो समाज में कहीं भी कभी भी निकलेगी और दुर्गंध के कारण शर्मिंदगी उठानी पड़ेगी। यदि रोज सङ्कल्प लोगे कि अब मैं किसी के सामने गैस नहीं छोड़ूंगा तो सङ्कल्प अवश्य टूटेगा। लेकिन यदि यह सङ्कल्प लोगे कि गैस की जड़ अर्थात उल्टा सीधा खाना नहीं खाओगे, और शुद्ध सात्विक खाओगे और पेट का ख्याल रखोगे तो सङ्कल्प पूरा होगा।* जब पेट में गैस बनेगी ही नहीं, तो फिर न घर मे गैस छूटेगी न बाहर।
इसी तरह यदि केवल गुस्सा न करने का संकल्प लोगे तो यह सङ्कल्प रोज टूटेगा। क्योंकि दिमाग़ के ख़राब होने पर गुस्से का प्रकटीकरण होगा ही।
तो करना क्या है, आइये इसे समझते हैं:-
बहुधा बीमारी से उठने पर अथवा स्वास्थ्य के कमजोर होने पर मनुष्य के स्वभाव में चिड़चिड़ापन, झल्लाहट अथवा बात-बात में उत्तेजना होने लगती है। खराब स्वास्थ्य होने से मनुष्य की मानसिक स्थिति कमजोर हो जाती है जिससे स्वभाव वैसा ही बन जाता है। क्रोध रूपी उत्तेजना से छुटकारा पाने के लिए सर्वप्रथम अपने स्वास्थ्य का सुधार करना आवश्यक है। स्वास्थ्य खराब हो तो चिकित्सा, आहार-विहार का संयम, व्यायाम, योगासन आदि से सुधारने का प्रयत्न करना चाहिये। स्वास्थ्य ठीक होने पर उत्तेजक स्वभाव स्वतः ठीक हो जाता है।
अधिक से अधिक निश्चिन्त एवं प्रसन्नचित्त रहने का प्रयत्न करना चाहिए। हर समय चिन्ताओं, उलझनों में डूबे रहने पर, बेसिर-पैर की अनावश्यक बातों पर सोच-विचार करते रहने पर छोटे-छोटी बातों में ही मनुष्य का मन प्रगति करता है, जिससे मस्तिष्क की प्रौढ़ता, उर्वरता शक्ति कुंठित हो जाती है। ऐसे व्यक्तियों को छोटी-छोटी बातों पर झल्लाहट होने लगती है। मित्रों की छोटी-छोटी हंसी-मजाक की बातों में भी वे षड्यन्त्र का आभास अपमान, तिरस्कार की कल्पना करके तिल का ताड़ बना लेते हैं। इससे भी धीरे-धीरे मनुष्य का उत्तेजक स्वभाव बन जाता है। अतः अपना दृष्टिकोण उदार और विशाल बनाना चाहिए। सब पर विश्वास, सबमें घुलने-मिलने की आदत सबके प्रति आत्मीयता, शुभ कामनाएं, सद्भावनाएं मनुष्य के मस्तिष्क को प्रौढ़, विशाल और गम्भीर बनाती हैं।
जॉब की समस्या और आर्थिक समस्याओं का बुद्धिमानी और बहादुरी से सामना करना चाहिए। लेकिन जॉब और आर्थिक समस्या को घर मे लेकर नहीं आना चाहिए। जिस प्रकार बाहर के जूते चप्पल उतारकर घर मे प्रवेश करते हो, उसी तरह जॉब और आर्थिक समस्या की टेंशन घर के बाहर उतारकर घर में प्रवेश करना। सुबह ऑफिस जाते वक़्त घर की समस्या घर में छोड़कर ऑफिस जाना। ऑफिस की टेंशन पर साक्षी भाव से काम करना।
तुम्हारी समस्या है कि तुम घटना से तादात्म्य बिठा लेते हो और समस्या का अंग बन जाते हो, जैसे टीवी सीरियल देखते देखते कई लोग रोने लगते है क्योंकि स्वयं को वो उस नकली नाटक का हिस्सा मान लेते हैं। जबकि बुद्धिमान पुरुष/स्त्री उस नाटक को साक्षी भाव से देखते हैं, तो रोने की जरूरत नहीं पड़ती। जिंदगी को साक्षी भाव से देखो, उसपर कार्य करो। मस्त रहो और आनन्दित जीवन जियो। अच्छे विचारों का भोजन मष्तिष्क को नित्य देते रहो।
🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन
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