*गायत्री मन्त्रलेखन एक महान साधना*
मंत्र जप के समय हाथ की माला के मनके फिराने वाली उँगलियाँ और उच्चारण करने वाली जिह्वा ही प्रयुक्त होती है किन्तु मन्त्र लेखन में हाथ, आँख, मन, मस्तिष्क आदि अवयव व्यस्त रहने से चित्त वृत्तियाँ अधिक एकाग्र रहती हैं तथा मन भटकने की सम्भावनायें अपेक्षाकृत कम होती हैं। मन को वश में करके चित्त को एकाग्र करके मंत्रलेखन किया जाय तो अनुपम लाभ मिलता है। इसी कारण मंत्र लेखन को बहुत महत्त्व मिला है।
मंत्र लेखन साधना में जप की अपेक्षा कुछ सुविधा रहती है। इसमें षट्कर्म आदि नहीं करने पड़ते। किये जायें तो विशेष लाभ होता है, किन्तु किसी भी स्वच्छ स्थान पर हाथ मुँह धोकर, धरती पर तखत या मेज- कुर्सी पर बैठ कर भी मंत्र लेखन का क्रम चलाया जा सकता है। स्थूल रूप कुछ भी बने पर किया जाना चाहिए परिपूर्ण श्रद्धा के साथ। पूजा स्थली पर आसन पर बैठ कर मंत्र लेखन जप की तरह करना सबसे अच्छा है। मंत्र लेखन की कॉपी की तरह यदि उस कार्य के लिए कलम भी पूज उपकरण की तरह अलग रखी जाय तो अच्छा है। सामान्य क्रम भी लाभकारी तो होता ही है।
संक्षेप में गायत्री मंत्र लेखन के नियम निम्न प्रकार हैं-
१. गायत्री मंत्र लेखन करते समय गायत्री मंत्र के अर्थ का चिन्तन करना चाहिए।
२. मंत्र लेखन में शीघ्रता नहीं करनी चाहिए।
३. स्पष्ट व शुद्ध मंत्र लेखन करना चाहिए।
४. मंत्र लेखन पुस्तिका को स्वच्छता में रखना चाहिए। साथ ही उपयुक्त स्थान पर ही रखना चाहिए।
५. मंत्र लेखन किसी भी समय किसी भी स्थिति में व्यस्त एवं अस्वस्थ व्यक्ति भी कर सकते हैं।
गायत्री मंत्र लेखन से लाभ-
१. मंत्र् लेखन में हाथ, मन, आँख एवं मस्तिष्क रम जाते हैं। जिससे चित्त एकाग्र हो जाता है और एकाग्रता बढ़ती चली जाती है।
२. मंत्र लेखन में भाव चिन्तन से मन की तन्मयता पैदा होती है इससे मन की उच्छृंखलता समाप्त होकर उसे वशवर्ती बनाने की क्षमता बढ़ती है। इससे आध्यात्मिक एवं भौतिक कार्यों में व्यवस्था व सफलता की सम्भावना बढ़ती है।
३. मंत्र के माध्यम से ईश्वर के असंख्य आघात होने से मन पर चिर स्थाई आध्यात्मिक संस्कार जम जाते हैं जिनसे साधना में प्रगति व सफलता की सम्भावना सुनिश्चित होती जाती है।
४. जिस स्थान पर नियमित मंत्र लेखन किया जाता है उस स्थान पर साधक के श्रम और चिन्तन के समन्वय से उत्पन्न सूक्ष्म शक्ति के प्रभाव से एक दिव्य वातावरण पैदा हो जाता है जो साधना के क्षेत्र में सफलता का सेतु सिद्ध होता है।
५. मानसिक अशान्ति चिन्तायें मिट कर शान्ति का द्वार स्थायी रूप से खुलता है।
६. मंत्र योग का यह प्रकार मंत्र जप की अपेक्षा सुगम है। इससे मंत्र सिद्धि में अग्रसर होने में सफलता मिलती है।
७. इससे ध्यान करने का अभ्यास सुगम हो जाता है।
८. मंत्र लेखन का महत्त्व बहुत है। इसे जप की तुलना में दस गुना अधिक पुण्य फलदायक माना गया है।
साधारण कापी और साधारण कलम स्याही से गायत्री मंत्र लिखने का नियम उसी प्रकार बनाया जा सकता है जैसा कि दैनिक जप एवं अनुष्ठान का व्रत लिया जाता है। सरलता यह है कि नियत समय पर- नियत मात्रा में करने का उसमें बन्धन नहीं है और न यही नियम है कि इसे स्नान करने के उपरान्त ही किया जाय। इन सरलताओं के कारण कोई भी व्यक्ति अत्यन्त सरलता पूर्वक इस साधना को करता रह सकता है।
मंत्र लेखन में सबसे बड़ी अच्छाई यह है कि उसमें सब ओर से ध्यान एकाग्र रहने की व्यवस्था रहने से अधिक लाभ होता है। जप में केवल जिह्वा का ही उपयोग होता है और यदि माला जपनी है तो उंगलियों को काम करना होता है। ध्यान साथ- साथ न चल रहा हो तो पन इधर- उधर भटकने लगता है ।। किन्तु मंत्र लेखन से सहज ही कई इन्द्रियों का संयम निग्रह बन पड़ता है ।। हाथों से लिखना पड़ता है। आंखें लेखन पर टिकी रहती हैं। मस्तिष्क का उपयोग भी इस क्रिया में होता है। ध्यान न रहेगा तो पंक्तियाँ टेढ़ी एवं अक्षर सघन विरत एवं नीचे- ऊँचे, छोटे- बड़े होने का डर रहेगा। ध्यान न टिकेगा तो मंत्र अशुद्ध लिखा जाने लगेगा। अक्षर कुछ से कुछ बनने लगेंगे। लेखन में सहज ही ध्यान का समावेश अधिक होने लगता है। जप और ध्यान के समन्वय से ही उपासना का समुचित फल मिलने की बात कही गई है। यह प्रयोजन मंत्र लिखने में अनायास ही पूरा होता रहता है।
🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन
मंत्र जप के समय हाथ की माला के मनके फिराने वाली उँगलियाँ और उच्चारण करने वाली जिह्वा ही प्रयुक्त होती है किन्तु मन्त्र लेखन में हाथ, आँख, मन, मस्तिष्क आदि अवयव व्यस्त रहने से चित्त वृत्तियाँ अधिक एकाग्र रहती हैं तथा मन भटकने की सम्भावनायें अपेक्षाकृत कम होती हैं। मन को वश में करके चित्त को एकाग्र करके मंत्रलेखन किया जाय तो अनुपम लाभ मिलता है। इसी कारण मंत्र लेखन को बहुत महत्त्व मिला है।
मंत्र लेखन साधना में जप की अपेक्षा कुछ सुविधा रहती है। इसमें षट्कर्म आदि नहीं करने पड़ते। किये जायें तो विशेष लाभ होता है, किन्तु किसी भी स्वच्छ स्थान पर हाथ मुँह धोकर, धरती पर तखत या मेज- कुर्सी पर बैठ कर भी मंत्र लेखन का क्रम चलाया जा सकता है। स्थूल रूप कुछ भी बने पर किया जाना चाहिए परिपूर्ण श्रद्धा के साथ। पूजा स्थली पर आसन पर बैठ कर मंत्र लेखन जप की तरह करना सबसे अच्छा है। मंत्र लेखन की कॉपी की तरह यदि उस कार्य के लिए कलम भी पूज उपकरण की तरह अलग रखी जाय तो अच्छा है। सामान्य क्रम भी लाभकारी तो होता ही है।
संक्षेप में गायत्री मंत्र लेखन के नियम निम्न प्रकार हैं-
१. गायत्री मंत्र लेखन करते समय गायत्री मंत्र के अर्थ का चिन्तन करना चाहिए।
२. मंत्र लेखन में शीघ्रता नहीं करनी चाहिए।
३. स्पष्ट व शुद्ध मंत्र लेखन करना चाहिए।
४. मंत्र लेखन पुस्तिका को स्वच्छता में रखना चाहिए। साथ ही उपयुक्त स्थान पर ही रखना चाहिए।
५. मंत्र लेखन किसी भी समय किसी भी स्थिति में व्यस्त एवं अस्वस्थ व्यक्ति भी कर सकते हैं।
गायत्री मंत्र लेखन से लाभ-
१. मंत्र् लेखन में हाथ, मन, आँख एवं मस्तिष्क रम जाते हैं। जिससे चित्त एकाग्र हो जाता है और एकाग्रता बढ़ती चली जाती है।
२. मंत्र लेखन में भाव चिन्तन से मन की तन्मयता पैदा होती है इससे मन की उच्छृंखलता समाप्त होकर उसे वशवर्ती बनाने की क्षमता बढ़ती है। इससे आध्यात्मिक एवं भौतिक कार्यों में व्यवस्था व सफलता की सम्भावना बढ़ती है।
३. मंत्र के माध्यम से ईश्वर के असंख्य आघात होने से मन पर चिर स्थाई आध्यात्मिक संस्कार जम जाते हैं जिनसे साधना में प्रगति व सफलता की सम्भावना सुनिश्चित होती जाती है।
४. जिस स्थान पर नियमित मंत्र लेखन किया जाता है उस स्थान पर साधक के श्रम और चिन्तन के समन्वय से उत्पन्न सूक्ष्म शक्ति के प्रभाव से एक दिव्य वातावरण पैदा हो जाता है जो साधना के क्षेत्र में सफलता का सेतु सिद्ध होता है।
५. मानसिक अशान्ति चिन्तायें मिट कर शान्ति का द्वार स्थायी रूप से खुलता है।
६. मंत्र योग का यह प्रकार मंत्र जप की अपेक्षा सुगम है। इससे मंत्र सिद्धि में अग्रसर होने में सफलता मिलती है।
७. इससे ध्यान करने का अभ्यास सुगम हो जाता है।
८. मंत्र लेखन का महत्त्व बहुत है। इसे जप की तुलना में दस गुना अधिक पुण्य फलदायक माना गया है।
साधारण कापी और साधारण कलम स्याही से गायत्री मंत्र लिखने का नियम उसी प्रकार बनाया जा सकता है जैसा कि दैनिक जप एवं अनुष्ठान का व्रत लिया जाता है। सरलता यह है कि नियत समय पर- नियत मात्रा में करने का उसमें बन्धन नहीं है और न यही नियम है कि इसे स्नान करने के उपरान्त ही किया जाय। इन सरलताओं के कारण कोई भी व्यक्ति अत्यन्त सरलता पूर्वक इस साधना को करता रह सकता है।
मंत्र लेखन में सबसे बड़ी अच्छाई यह है कि उसमें सब ओर से ध्यान एकाग्र रहने की व्यवस्था रहने से अधिक लाभ होता है। जप में केवल जिह्वा का ही उपयोग होता है और यदि माला जपनी है तो उंगलियों को काम करना होता है। ध्यान साथ- साथ न चल रहा हो तो पन इधर- उधर भटकने लगता है ।। किन्तु मंत्र लेखन से सहज ही कई इन्द्रियों का संयम निग्रह बन पड़ता है ।। हाथों से लिखना पड़ता है। आंखें लेखन पर टिकी रहती हैं। मस्तिष्क का उपयोग भी इस क्रिया में होता है। ध्यान न रहेगा तो पंक्तियाँ टेढ़ी एवं अक्षर सघन विरत एवं नीचे- ऊँचे, छोटे- बड़े होने का डर रहेगा। ध्यान न टिकेगा तो मंत्र अशुद्ध लिखा जाने लगेगा। अक्षर कुछ से कुछ बनने लगेंगे। लेखन में सहज ही ध्यान का समावेश अधिक होने लगता है। जप और ध्यान के समन्वय से ही उपासना का समुचित फल मिलने की बात कही गई है। यह प्रयोजन मंत्र लिखने में अनायास ही पूरा होता रहता है।
🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन
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