Friday, 28 December 2018

प्रश्न - *दी, शराब समर्थक कहते हैं कि देवता सोमरस पीते थे, वो वास्तव में शराब होती थी? क्या यह सत्य है या उनका मतिभ्रम? कृपया बताएं*

प्रश्न - *दी, शराब समर्थक कहते हैं कि देवता सोमरस पीते थे, वो वास्तव में शराब होती थी? क्या यह सत्य है या उनका मतिभ्रम? कृपया बताएं*

उत्तर - आत्मीय बहन, वेदों में सुरापान को मादक और शराब तुल्य माना है। और सोमरस को च्यवनप्राश की तरह औषधीय पेय माना गया है।

क्योंकि सोमरस पान और सुरापान वैदिक संस्कृत शब्द हैं तो  लोग कन्फ़्यूज़ हो जाते हैं।

अक्सर शराब के समर्थक यह कहते सुने गए हैं कि देवता भी तो शराब पीते थे? सोमरस क्या था, शराब ही तो थी। प्राचीन वैदिक काल में भी सोमरस के रूप में शराब का प्रचलन था? या शराब जैसी किसी नशीली वस्तु का उपयोग करते थे देवता? कहीं वे सभी भांग तो नहीं पीते थे, जैसा कि शिव के बारे में प्रचलित है कि वे भांग पीते थे। लेकिन किसी भी पुराण या शास्त्र में उल्लेख नहीं मिलता है कि शिवजी भांग पीते थे। इसी तरह की कई भ्रांत धारणाएं हिन्दू धर्म में प्रचलित कर दी गई हैं जिसके दुष्परिणाम देखने को मिल भी रहे हैं।
*दरअसल, सोमरस, मदिरा और सुरापान तीनों में फर्क है*। ऋग्वेद में शराब की घोर निंदा करते हुए कहा गया है-

।।हृत्सु पीतासो युध्यन्ते दुर्मदासो न सुरायाम्।।

अर्थात : सुरापान करने या नशीले पदार्थों को पीने वाले अक्सर युद्ध, मार-पिटाई या उत्पात मचाया करते हैं।

यदि सोमरस शराब नहीं थी तो फिर क्या था? जानिए अगले पन्ने पर...

सोम वेदों में वर्णित एक विषय है जिसका( वैदिक संस्कृत में) प्रमुख अर्थ उल्लास, सौम्यता और चन्द्रमा है। ऋग्वेद और सामवेद में इसका बार-बार उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद के 'सोम मण्डल' में ११४ सूक्त हैं, जिनमे १०९७ मंत्र हैं - जो सोम के ऊर्जादायी गुण का वर्णन करते हैं। पाश्चात्य विद्वानों ने इस सोम को अवेस्ता-भाषा में लिखे, 'होम' से जोड़ा है जो प्राचीन ईरानी-आर्य लोगों का पेय था।

सनातन परंपरा में वेदों के व्याखान के लिए प्रयुक्त निरुक्त में सोम को दो अर्थों बताया गया है [1]। पहले सोम को एक औषधि कहा गया है जो स्वादिष्ट और मदिष्ट (नंदप्रद) है, और दूसरे इसको चन्द्रमा कहा गया है। इन दोनो अर्थों को दर्शाने के लिए ये दो मंत्र हैं:

स्वादिष्ठया मदिष्ठया पवस्व सोम धारया। इन्द्राय पातवे सुतः॥ (ऋक् ९.१.१, सामवेद १)
सोमं मन्यते पपिवान्यत्सम्पिषन्त्योषधिम्। सोमं यं ब्रह्माणो विदुर्न तस्याश्नाति कश्चन॥ (ऋक् १०.८५.३)'
निरूक्त में ही ओषधि का अर्थ 'उष्मा धोने वाला' यानि 'क्लेश धोने वाला' है।

वेदों की इन ऋचाओं से जाना जा सकता है कि सोमरस क्या था। ऋग्वेद की एक ऋचा में लिखा गया है कि 'यह निचोड़ा हुआ शुद्ध दधिमिश्रित सोमरस, सोमपान की प्रबल इच्छा रखने वाले इन्द्रदेव को प्राप्त हो।।


(ऋग्वेद-1/5/5) ...हे वायुदेव! यह निचोड़ा हुआ सोमरस तीखा होने के कारण दुग्ध में मिश्रित करके तैयार किया गया है। आइए और इसका पान कीजिए।। (ऋग्वेद-1/23/1)

।।शतं वा य: शुचीनां सहस्रं वा समाशिराम्। एदुनिम्नं न रीयते।। (ऋग्वेद-1/30/2)... अर्थात नीचे की ओर बहते हुए जल के समान प्रवाहित होते सैकड़ों घड़े सोमरस में मिले हुए हजारों घड़े दुग्ध मिल करके इन्द्रदेव को प्राप्त हों।

इन सभी मंत्रों में सोम में दही और दूध को मिलाने की बात कही गई है, जबकि यह सभी जानते हैं कि शराब में दूध और दही नहीं मिलाया जा सकता। भांग में दूध तो मिलाया जा सकता है लेकिन दही नहीं, लेकिन यहां यह एक ऐसे पदार्थ का वर्णन किया जा रहा है जिसमें दही भी मिलाया जा सकता है।  अर्थात वह हानिकारक वस्तु तो नहीं थी। देवताओं के लिए समर्पण का यह मुख्य पदार्थ था और अनेक यज्ञों में इसका बहुविध उपयोग होता था। सबसे अधिक सोमरस पीने वाले इन्द्र और वायु हैं। पूषा आदि को भी यदा-कदा सोम अर्पित किया जाता है, जैसे वर्तमान में पंचामृत अर्पण किया जाता है।

अगले पन्ने पर आखिर सोम शराब नहीं है तो फिर क्या और कहां है...

सोम नाम से एक लता होती थी : मान्यता है कि सोम नाम की लताएं पर्वत श्रृंखलाओं में पाई जाती हैं। राजस्थान के अर्बुद, उड़ीसा के महेन्द्र गिरी, हिमाचल की पहाड़ियों, विंध्याचल, मलय आदि अनेक पर्वतीय क्षेत्रों में इसकी लताओं के पाए जाने का उल्लेख मिलता है। कुछ विद्वान मानते हैं कि अफगानिस्तान की पहाड़ियों पर ही सोम का पौधा पाया जाता है। यह बिना पत्तियों का गहरे बादामी रंग का पौधा है।

'संजीवनी बूटी' : कुछ विद्वान इसे ही 'संजीवनी बूटी' कहते हैं। सोम को न पहचान पाने की विवशता का वर्णन रामायण में मिलता है। हनुमान दो बार हिमालय जाते हैं, एक बार राम और लक्ष्मण दोनों की मूर्छा पर और एक बार केवल लक्ष्मण की मूर्छा पर, मगर 'सोम' की पहचान न होने पर पूरा पर्वत ही उखाड़ लाते हैं। दोनों बार लंका के वैद्य सुषेण ही असली सोम की पहचान कर पाते हैं।

यदि हम ऋग्वेद के नौवें 'सोम मंडल' में वर्णित सोम के गुणों को पढ़ें तो यह संजीवनी बूटी के गुणों से मिलते हैं इससे यह सिद्ध होता है कि सोम ही संजीवनी बूटी रही होगी। ऋग्वेद में सोमरस के बारे में कई जगह वर्णन है। एक जगह पर सोम की इतनी उपलब्धता और प्रचलन दिखाया गया है कि इंसानों के साथ-साथ गायों तक को सोमरस भरपेट खिलाए और पिलाए जाने की बात कही गई है।

ईरान और आर्यावर्त : माना जाता है कि सोमपान की प्रथा केवल ईरान और भारत के वह इलाके जिन्हें अब पाकिस्तान और अफगानिस्तान कहा जाता है यहीं के लोगों में ही प्रचलित थी। इसका मतलब पारसी और वैदिक लोगों में ही इसके रसपान करने का प्रचलन था। इस समूचे इलाके में वैदिक धर्म का पालन करने वाले लोग ही रहते थे। 'स' का उच्चारण 'ह' में बदल जाने के कारण अवेस्ता में सोम के बदले होम शब्द का प्रयोग होता था और इधर भारत में सोम का।

वेदों में 'सोम' शब्द पेय के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, पौधे के रूप में प्रयुक्त हुआ है और देवता के अर्थ में भी यही शब्द प्रयुक्त हुआ है। सोमपान से अमरता की प्राप्ति होती है (अमृता, ऋग्वेद ८.४८.३)। इन्द्र और अग्नि को प्रचुर मात्रा में सोमपान करते हुए बताया गया है। वेदों में मानव के लिए भी सोमपान की स्वीकृति है-

अपाम सोमममृता अभूमागन्म ज्योतिरविदाम देवान् ।
किं नूनमस्मान्कृणवदरातिः किमु धूर्तिरमृत मर्त्यस्य ॥ऋग्वेद ८.४८.३॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती ने इसका अर्थ इस प्रकार किया है-

सोम (अच्छा फल जो खाद्य है किन्तु मादक नहीं है) अपाम (हम तुम्हारा पान करते हैं)
अमृता अभूम् (आप जीवन के अमृत हो) ज्योतिर् आगन्म (भगवान का प्रकाश या शारीरिक शक्ति पाते हैं)
अविदाम देवान् (अपनी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करते हैं)
किं नूनं अस्मान् कृणवद् अरातिः (इस अवस्था में, हमारा आन्तरिक शत्रु मेरा क्या बिगाड़ सकता है?)
किमु धूर्तिरमृत मर्त्यस्य (भगवन्! हिंसक लोग भी मेरा क्या बिगाड़ सकते हैं?)

*कुछ विद्वानों का मानना है, सोम चंद्रमा का दूसरा नाम है, चन्द्रमा अमृत तत्व देता है, सोम अर्थात अमृत, और अमृत लता अर्थात अमृता जिसका दूसरा नाम गिलोय है, वास्तव में सोम लता है अमृता लता है।*

अमृता औषधिराज है, इसके विभिन्न प्रयोग है।

इसकी पत्तियों से बना अमृत रस ही सोम रस है, जो समस्त क्लेश (ज्वर) नाशक है।

*बहुवर्षायु, दीर्घायु कारी तथा अमृत के समान गुणकारी होने से इसका नाम अमृता है।*

इसका नियमित सेवन करने पर कोई व्यक्ति जीवन मे कभी बीमार नहीं हो सकता, दुनियाँ में जितने प्रकार के ज्वर, डेंगू, चिंगनगुनियाँ और खांसी जुकाम है सबकी काट यह अमृता/सोम लता है।

चिकित्सक के परामर्श से ज्वर होने पर 5 दिन के कोर्स में दो-दो गोली सुबह शाम दोपहर इस औषधिराज को लेकर स्वस्थ हो सकते हैं।

इस औषधि को चन्द्र/सोम मंन्त्र से होमने/आहुति देने पर पूरे घर की शारीरिक मानसिक रोगों से रक्षा होती है:-

*ॐ क्षीरपुत्राय विद्महे, अमृत तत्वाय धीमहि। तन्नो चन्द्रः प्रचोदयात।।*

यह अमृत औषधि रोकप्रतिरोधक क्षमता बढ़ाती है, यदि बच्चे और बड़े जब मौसम बदलता है और बीमारियों का प्रकोप बढ़ता है, उस समय सुबह शाम इसका सेवन करते है, तो पूरे वर्ष बीमार नहीं पड़ते, कभी अन्य एंटीबायोटिक की जरूरत नहीं पड़ती।

*अमृता वटी के नाम से यह औषधि दवाई के रूप में शान्तिकुंज फ़ार्मेसी हरिद्वार में भी उपलब्ध है।* इस अमृता की लता गमले में घर मे लगाया जा सकता है, इसकी पत्तियों की चाय या रस पिया जा सकता है।

🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन

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