विषय - आत्म निर्माण से परिवार निर्माण व राष्ट्रनिर्माण
परमपूज्य गुरुदेव कहते हैं कि सबसे बड़ा पुण्य परमार्थ है, स्वयं के मूलतत्व को जानना कि "मैं क्या हूँ?' और स्वनिर्माण- आत्मनिर्माण करना। अप्प दीपो भव - आत्मप्रकाशित होना।
बुझा हुआ दीपक, न स्वयं के आसपास का अंधेरा मिटा सकता है, न किसी के जीवन को रौशन कर सकता है और न हीं दूसरे दीपक को जला सकता है। यदि क्रमशः परिवार निर्माण, समाज निर्माण व राष्ट्र निर्माण करना है तो उसकी पहली शर्त आत्मनिर्माण को करना होगा।
जब तक स्वयं की पहचान शरीर तक रखेंगे पशुवत आचरण रहेगा। जब अपनी पहचान मात्र मन तक रखेंगे तो मात्र भोगी बनकर रह जाएंगे और जब अपनी पहचान अपने मूल स्वरूप आत्मा को समझेंगे तभी हम आत्मनिर्माण कर सकेंगे।
जीवन संग्राम हो या साधना समर उसे लड़ने व जीतने के लिए शरीर रूपी उपकरण स्वस्थ होना ही चाहिए। जंग लगी तलवार से युद्ध नहीं जीता जाता वैसे ही अस्वस्थ शरीर से जीवन संग्राम व साधना समर नहीं लड़ा जा सकता।
साधना कैप्सूल
आहार शुद्धि से प्राणों के सत की शुद्धि होती है, सत्व शुद्धि से स्मृति निर्मल और स्थिरमति (जिसे प्रज्ञा कहते हैं) प्राप्त होती है। स्थिर बुद्धि से जन्म-जन्मांतर के बंधनों और ग्रंथियों का नाश होता है और बंधनों और ग्रंथियों से मुक्ति ही मोक्ष है। अत: आहार शुद्धि प्रथम नियम और प्रतिबद्धता है।
आहार केवल मात्र वही नहीं जो मुख से लिया जाए, आहार का अभिप्राय है स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीर को पुष्ट और स्वस्थ रखने के लिए इस दुनिया से जो खाद्य लिया जाए।
1. कान के लिए आहार है शब्द या ध्वनि। अच्छा सुनें व कान भरने वालो से दूर रहें। सत्संग करें।
2. त्वचा के लिए आहार है स्पर्श। उन लोगों के स्पर्श से बचें जो मन मे विकार उतपन्न करें।
3. नेत्रों के लिए आहार है दृश्य या रूप जगत। अच्छा देखें, दूसरों में अच्छाइयां देखें।
4. नाक के लिए आहार है गंध या सुगंध। अच्छा सुंगंधित वातावरण मन को शांत व व्यवस्थित बनाता है। कृतिम परफ्यूम व गन्ध मन को उत्तेजक व वासनामय बनाती है, इससे बचें।
5. जिह्वा के लिए आहार है अन्न और रस। जिह्वा को साधें, स्वास्थ्यकर खाये व बोलने से पहले दो बार सोचसमझकर बोलें। मीठे वचन मन की पीड़ा हरते हैं, कटु वचन मन को लहू लुहान कर देते हैं।
6. मन के लिए आहार है उत्तम विचार और ध्यान। जैसे विचारों का संग्रह मन करेगा वैसा बनेगा। वासनामय विचार का संग्रह मनुष्य को व्यभिचारी बना देते हैं, श्रेष्ठ विचारों का संग्रह मनुष्य को महान बनाता है। विचार बीज है और कर्म उसका पौधा, जो जैसा विचारों का चिंतन मनन करता है वैसबन जाता है।
अत: ज्ञानेन्द्रियों के जो 5 दोष हैं जिससे चेतना में विकार पैदा होता है, उनसे बचें। आत्मशोधन के माध्यम से जो अवांछनीय स्वयं में दोष दुर्गुण हैं उन्हें निकाले, श्रेष्ठ गुणों को जीवन में समावेशित करें। एकाग्रता का अभ्यास करें और स्वयं को प्रतिपल निखारे।
आत्मनिर्माण से व्यक्तित्व पूर्णता को प्राप्त करता है, ऐसा व्यक्ति परिवार का संरक्षक बनता है, समाज का उद्धारक बनता है और राष्ट्र का रक्षक बनता है।
दीप से दीप जलता है, अच्छे व्यक्ति का प्रभाव दुसरो को अच्छाई के लिए प्रेरित करता है। धीरे धीरे अच्छे लोगो का समूह खड़ा होता है और एक अच्छे समाज का निर्माण होता है। अच्छे लोग मिलकर महान व शशक्त राष्ट्र निर्माण में सहयोगी बनते हैं।
🙏🏻श्वेता, DIYA
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