Friday, 16 July 2021

प्रश्न - मूर्ति पूजा के सम्बंध में कहे जाने वाले इस दोहे पर आपकी क्या राय है?

 प्रश्न - मूर्ति पूजा के सम्बंध में कहे जाने वाले इस दोहे पर आपकी क्या राय है?


पाहन पूजे हरि मिले, तो मैं पूजूँ पहार।

ताते ये चाकी भली, पीस खाय संसार॥


कबीर दास जी कहते हैं, यदि पत्थर पूजने से भगवान मिलते, तो मैं पहाड़ पूजता। इससे अच्छा तो पत्थर की चाकी है जिससे कम से कम आटा तो पीसकर संसार खाता है।


उत्तर- दोहे का प्रश्न पूँछा है तो प्रति उत्तर में एक दोहा से ही शुरुआत करना चाहती हूँ..


गुलाब दिए जो बदले में प्रेम मिले,

तो मैं दूँ ढ़ेर सारे गुलदस्ता उपहार।

ताते यह गोभी का फूल भला,

इसकी सब्जी बना खाये संसार।।


 श्वेता कहती हैं कि यदि गुलाब के पुष्प से प्रेम मिलता हो तो हम हज़ारों गुलदस्ते उपहार में दे दें। लेकिन गुलाब के पुष्प से अच्छा तो गोभी का फूल है जिससे सब्जी बनाकर पूरा परिवार खायेगा। अतः अब प्रेम सम्बंध हो या ईश्वर पूजन गुलाब के पुष्प की जगह गोभी का फूल उपयोग में लें...😍😍😍😁😁😁 


मज़ाक बहुत हुआ, असली मुद्दे पर आते हैं।

प्रतीक :-

 गुलाब का पुष्प एक लिफ़ाफ़े की तरह है जो किसी के प्रेम का वाहक प्रतीक बनता है। 


वाहक :-

शरीर वैसे तो बिना आत्मा शव है, लेकिन जब तक उसमें आत्मा है, वह आत्मा का लिफ़ाफ़ा/वाहन बनता है। 


सहारा :-

अक्षर वैसे तो निराकार ध्वनि है, लेक़िन सभी भाषा वादियों ने उसे एक आकार दे दिया, जिससे पढ़ने लिखने में आसानी हो।


इसीतरह निराकार भगवान के प्रतीक उनके विग्रह/मूर्ति के पूजन का विधान है। मूर्ति को दुकान से लाकर यूँ ही उसकी पूजा शुरू नहीं की जाती। उसकी विधिवत प्राण प्रतिष्ठा होती है, उसमें भावनात्मक रूप से साधक जुड़ता है, तब वह मूर्ति ईश्वर प्रतीक बनती है। एक आध्यात्मिक विधिव्यवस्था है। भक्ति की शक्ति से मूर्ति सजीव होती है, प्रेमी के प्रेम भाव से गुलाब का पुष्प जीवंत प्रेम प्रतीक बनता है।


प्रतीक सभी धर्मों में पूजे जाते हैं, क्रॉस व क्राइस्ट की मूर्ति इसाई धर्म मे , कब्र पूजन मुस्लिम धर्म में इत्यादि।


माता की मूर्ति हो या फोटो में अपनी माता को देख हम उन्हें याद करते हैं। भाई यदि सैनिक हो और छुट्टी न मिले तो स्त्री उसके फोटो को राखी बांधती है और विवाहिता उसका फ़ोटो देखकर करवा चौथ का व्रत तोड़ती है। फ़ोटो के साथ ही पूरे प्रतीक के साथ सजीव भावना से नियम पूरे किये जाते हैं।


कबीर निराकार निर्गुण साधक थे, वह यह समझा रहे थे कि मात्र मूर्ति को सबकुछ मत समझो, मूर्ति पूजन की प्राण प्रतिष्ठा की, भावनाओ की महत्ता व साधना की गुणवत्ता को भी समझो। अध्यात्म के मर्म व योग को भी समझो। मात्र अध्यात्म की प्राइमरी क्लास में मत रुक जाना, आगे सगुण साधना से निर्गुण साधना की ओर भी बढ़ना। 


🙏🏻श्वेता, DIYA

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