प्रश्न - *श्वेता बेटा, ये बताओ परमात्मा के राज्य का योग्य उत्तराधिकारी कौन बनता है? परमात्मा अनुदान-वरदान किसपे लुटाता है?उपासना-साधना के साथ आराधना क्यों जरूरी है?*
बेटे, मैं पिछले 35 सालों से साधनारत हूँ, दिव्य अनुभूतियां हुई हैं। जब मैं मेरे मित्रों को आराधना-लोकसेवा-प्रचार प्रसार हेतु कहता हूँ तो वो बोलते है, भाई साहब घर में बैठकर साधना हम कर रहे हैं भगवान स्वतः सब अच्छा करेंगें। उन्हें प्रेरित करने का उपाय बताओ।
उत्तर - प्रणाम बाबूजी चरण स्पर्श🙏🏻, आप एक कहानी के माध्यम से उन्हें अपनी बात समझा सकते हैं।
एक राजा के तीन योग्य पुत्र थे, सभी एग्जाम में एक समान नम्बर लाते थे, एक से बढ़कर एक साधक थे, एक से बढ़कर एक योद्धा थे, एक से बढ़कर एक राजनीतिज्ञ थे। लेकिन राज्य किसके हाथ मे सौंपा जाय, यह तो अनुभव और जीवन जीने की कला पर निर्णय होना था। राजा ने सबसे सलाह ली, जिनमें एक बुद्धिमान किसान की युक्ति राजा को पसन्द आयी।
तीनो राजकुमार को बुलाकर एक एक बोरा गेहूँ का दाना दिया। बोला मैं तीर्थ यात्रा में जा रहा हूँ कुछ वर्षों में लौटूंगा। मुझे मेरे गेहूँ तुमसे वापस चाहिए होगा।
पहले राजकुमार ने पिता की अमानत तिज़ोरी में बन्द कर दी, पहरेदार सैनिक लगवा दिए।
दूसरे ने सैनिक बुलाये और बोरी को खाली जमीन में फिकवा दिया, और भगवान से प्रार्थना कि हे भगवान जैसे आप प्रत्येक जीव का ख्याल रखते हो, इन बीजों का भी रखना। मैं तुम्हारी पूजा करता हूँ इसलिए तुम इन बीजों को पौधे बना देना और खाद-पानी दे देना। न जमीन के खर-पतवार हटाये और न ही स्वयं खाद पानी दिया, सब कुछ भगवान भरोसे छोड़के साधना में लग गया।
तीसरा राजकुमार किसानों को बुलवाया, उनसे खेती के गुण धर्म समझा। उचित भूमि का चयन किया, स्वयं किसान-मज़दूरों के साथ लगकर जमीन तैयार की, गेहूं बोया और नियमित खाद पानी दिया। रोज यज्ञ गायत्री मंत्र और महामृत्युंजय मंत्र से खेत पर करता, बची हुई राख खेत मे छिड़कर भगवान से प्रार्थना करता भगवान मेरे खेत की रक्षा करना और पिता के गेंहू मैं लौटा सकूँ इस योग्य बनाना। फ़सल अच्छी हुई और गेहूं अन्य किसानों से उत्तम क़्वालिटी का निकला। अन्य किसानों ने बीज मांगा तो उसने सहर्ष भेंट कर दिए, साथ में बीजो में प्राण भरे इस हेतु साधना और यज्ञ सिखा दिया। सभी किसानों की खेती अच्छी हुई तो आसपास के समस्त गांवों में भी खेती के गुण, साधना-स्वाध्याय के गुण, यज्ञ इत्यादि सिखा दिया। खेतों में अनाज के साथ साथ लोगों के हृदय में अध्यात्म की खेती लहलहा उठी। सर्वत्र राजकुमार की जय हो उठी।
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पांच वर्ष बाद राजा लौटा, बड़े पुत्र को बुलाया और गेहूं मांगा तो तिज़ोरी खोली गयी। घुन ने गेंहू को राख कर दिया था। राजा बोला जिसने जीवित सम्भवनाओ के बीज को मृत कर दिया। वो इस राज्य को भी मृत कर देगा। तुम अयोग्य उत्तराधिकारी साबित हुए।
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दूसरे को बुलाया, तो भगवान को कोसने लगा। बोला गुरुजी झूठे है, भगवान पक्षपाती है। गुरुजी ने कहा था भगवान भक्त की रक्षा करता है, लेकिन भगवान ने मेरे गेंहू के बीजो की रक्षा नहीं की और न हीं उन्हें पौधा बनाया। जो प्रकृति का निर्माता है उसने मेरे बीजों के साथ पक्षपात किया। राजा पिता ने कहा, तूने तो जीवन की शिक्षा पाई ही नहीं केवल पुस्तको का कोरा ज्ञान अर्जित किया। *कर्मप्रधान सृष्टि को समझा ही नहीं, ईश्वर उसकी मदद करता है जो अपनी मदद स्वयं करता हैं।* उपासना के साथ साधना और आराधना भी करनी होती है ये समझा ही नहीं। उपासना रूपी सम्भावना को साधना -आत्मशोधन/मिट्टी की परख/निराई-गुणाई की ही नहीं। तू अयोग्य है। तू मेरा राज्य भी भगवान भरोसे चलाएगा। तूने तो धर्म का मर्म ही नहीं समझा, तू अयोग्य साबित हुआ।
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तीसरे पुत्र को बुलाया, लेकिन यह क्या कई सारे ग्रामवासी बैलगाड़ियों में गेहूँ लिए आये चले जा रहे हैं। राजकुमार और राजा जी की जय बोलते हुए। राजा ने कहा, बेटा मुझे केवल मेरा गेहूँ वापस चाहिए गांव वालों से नहीं।
राजुकमार ने मुस्कुरा के पिता को प्रणाम करके कहा- पिताजी आपके द्वारा दिये सम्भवनाओ के बीज अत्यंत उच्च कोटि के थे, हम सबने मेहनत करके उसको विस्तारित कर दिया। ये इतनी सारी बोरियां उसी सम्भवनाओ/गेंहू के बीज से उपजी है। यह सब आपकी ही है, इन्होंने ने लाखों लोगों की क्षुधा भी शांत की। धन्यवाद पिताश्री आपने मुझे सेवा का सौभाग्य दिया।
पिता पुत्र पर गौरान्वित हुआ, हृदय से लगा लिया और अपने राज्य का उत्तराधिकार सहर्ष सौंप दिया।
उपासना-साधना और आराधना का यही मर्म है। ज्ञान हो या धन उपयोग न हुआ तो सड़ ही जाता है, सदुपयोग हुआ तो वृद्धि होती है। मनुष्य जीवन अनन्त सम्भवनाओ के बीज लेकर मिला है, अब तय हमें करना है कि तिज़ोरी में अपने तक सीमित रखना है, भगवान भरोसे छोड़ना है या इसे विस्तारित करना है। आराधना का मर्म समझे बिना उपासना-साधना अधूरी है। उत्तम बीज भी जरूरी है(उपासना के दो चरण जप और ध्यान), खेत की निराई गुणाई और खाद-पानी(साधना के तीन चरण आत्मशोधन-योगप्राणायाम-स्वाध्याय) और अन्य किसानों तक बीज, खेती के गुण पहुंचाना(आराधना - समाजसेवा, पर्यावरण संरक्षण, वैचारिक प्रदूषण दूर करना, युगसाहित्य पढ़ना और दूसरों को पढ़ने के लिए प्रेरित करना)
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बाबूजी, यह बात बच्चो को जरूर कहिएगा, कि युगनिर्माण रिटायरमेंट प्लान या फुर्सत में करने की चीज़ नहीं है। यह सीमा पर छिड़े युद्ध और किसान की खेती तरह है, जिसमें युवाओं के जोश और प्रौढ़ के होश की जरूर है। दोनो को मिलकर आज अभी इसी वक्त से युगनिर्माण में उम्रभर मेहनत-श्रम करना है, जिससे सतयुग की वापसी तय हो सके। मनुष्य में देवत्व और धरती पर स्वर्ग का अवतरण हो सके।
🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन
बेटे, मैं पिछले 35 सालों से साधनारत हूँ, दिव्य अनुभूतियां हुई हैं। जब मैं मेरे मित्रों को आराधना-लोकसेवा-प्रचार प्रसार हेतु कहता हूँ तो वो बोलते है, भाई साहब घर में बैठकर साधना हम कर रहे हैं भगवान स्वतः सब अच्छा करेंगें। उन्हें प्रेरित करने का उपाय बताओ।
उत्तर - प्रणाम बाबूजी चरण स्पर्श🙏🏻, आप एक कहानी के माध्यम से उन्हें अपनी बात समझा सकते हैं।
एक राजा के तीन योग्य पुत्र थे, सभी एग्जाम में एक समान नम्बर लाते थे, एक से बढ़कर एक साधक थे, एक से बढ़कर एक योद्धा थे, एक से बढ़कर एक राजनीतिज्ञ थे। लेकिन राज्य किसके हाथ मे सौंपा जाय, यह तो अनुभव और जीवन जीने की कला पर निर्णय होना था। राजा ने सबसे सलाह ली, जिनमें एक बुद्धिमान किसान की युक्ति राजा को पसन्द आयी।
तीनो राजकुमार को बुलाकर एक एक बोरा गेहूँ का दाना दिया। बोला मैं तीर्थ यात्रा में जा रहा हूँ कुछ वर्षों में लौटूंगा। मुझे मेरे गेहूँ तुमसे वापस चाहिए होगा।
पहले राजकुमार ने पिता की अमानत तिज़ोरी में बन्द कर दी, पहरेदार सैनिक लगवा दिए।
दूसरे ने सैनिक बुलाये और बोरी को खाली जमीन में फिकवा दिया, और भगवान से प्रार्थना कि हे भगवान जैसे आप प्रत्येक जीव का ख्याल रखते हो, इन बीजों का भी रखना। मैं तुम्हारी पूजा करता हूँ इसलिए तुम इन बीजों को पौधे बना देना और खाद-पानी दे देना। न जमीन के खर-पतवार हटाये और न ही स्वयं खाद पानी दिया, सब कुछ भगवान भरोसे छोड़के साधना में लग गया।
तीसरा राजकुमार किसानों को बुलवाया, उनसे खेती के गुण धर्म समझा। उचित भूमि का चयन किया, स्वयं किसान-मज़दूरों के साथ लगकर जमीन तैयार की, गेहूं बोया और नियमित खाद पानी दिया। रोज यज्ञ गायत्री मंत्र और महामृत्युंजय मंत्र से खेत पर करता, बची हुई राख खेत मे छिड़कर भगवान से प्रार्थना करता भगवान मेरे खेत की रक्षा करना और पिता के गेंहू मैं लौटा सकूँ इस योग्य बनाना। फ़सल अच्छी हुई और गेहूं अन्य किसानों से उत्तम क़्वालिटी का निकला। अन्य किसानों ने बीज मांगा तो उसने सहर्ष भेंट कर दिए, साथ में बीजो में प्राण भरे इस हेतु साधना और यज्ञ सिखा दिया। सभी किसानों की खेती अच्छी हुई तो आसपास के समस्त गांवों में भी खेती के गुण, साधना-स्वाध्याय के गुण, यज्ञ इत्यादि सिखा दिया। खेतों में अनाज के साथ साथ लोगों के हृदय में अध्यात्म की खेती लहलहा उठी। सर्वत्र राजकुमार की जय हो उठी।
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पांच वर्ष बाद राजा लौटा, बड़े पुत्र को बुलाया और गेहूं मांगा तो तिज़ोरी खोली गयी। घुन ने गेंहू को राख कर दिया था। राजा बोला जिसने जीवित सम्भवनाओ के बीज को मृत कर दिया। वो इस राज्य को भी मृत कर देगा। तुम अयोग्य उत्तराधिकारी साबित हुए।
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दूसरे को बुलाया, तो भगवान को कोसने लगा। बोला गुरुजी झूठे है, भगवान पक्षपाती है। गुरुजी ने कहा था भगवान भक्त की रक्षा करता है, लेकिन भगवान ने मेरे गेंहू के बीजो की रक्षा नहीं की और न हीं उन्हें पौधा बनाया। जो प्रकृति का निर्माता है उसने मेरे बीजों के साथ पक्षपात किया। राजा पिता ने कहा, तूने तो जीवन की शिक्षा पाई ही नहीं केवल पुस्तको का कोरा ज्ञान अर्जित किया। *कर्मप्रधान सृष्टि को समझा ही नहीं, ईश्वर उसकी मदद करता है जो अपनी मदद स्वयं करता हैं।* उपासना के साथ साधना और आराधना भी करनी होती है ये समझा ही नहीं। उपासना रूपी सम्भावना को साधना -आत्मशोधन/मिट्टी की परख/निराई-गुणाई की ही नहीं। तू अयोग्य है। तू मेरा राज्य भी भगवान भरोसे चलाएगा। तूने तो धर्म का मर्म ही नहीं समझा, तू अयोग्य साबित हुआ।
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तीसरे पुत्र को बुलाया, लेकिन यह क्या कई सारे ग्रामवासी बैलगाड़ियों में गेहूँ लिए आये चले जा रहे हैं। राजकुमार और राजा जी की जय बोलते हुए। राजा ने कहा, बेटा मुझे केवल मेरा गेहूँ वापस चाहिए गांव वालों से नहीं।
राजुकमार ने मुस्कुरा के पिता को प्रणाम करके कहा- पिताजी आपके द्वारा दिये सम्भवनाओ के बीज अत्यंत उच्च कोटि के थे, हम सबने मेहनत करके उसको विस्तारित कर दिया। ये इतनी सारी बोरियां उसी सम्भवनाओ/गेंहू के बीज से उपजी है। यह सब आपकी ही है, इन्होंने ने लाखों लोगों की क्षुधा भी शांत की। धन्यवाद पिताश्री आपने मुझे सेवा का सौभाग्य दिया।
पिता पुत्र पर गौरान्वित हुआ, हृदय से लगा लिया और अपने राज्य का उत्तराधिकार सहर्ष सौंप दिया।
उपासना-साधना और आराधना का यही मर्म है। ज्ञान हो या धन उपयोग न हुआ तो सड़ ही जाता है, सदुपयोग हुआ तो वृद्धि होती है। मनुष्य जीवन अनन्त सम्भवनाओ के बीज लेकर मिला है, अब तय हमें करना है कि तिज़ोरी में अपने तक सीमित रखना है, भगवान भरोसे छोड़ना है या इसे विस्तारित करना है। आराधना का मर्म समझे बिना उपासना-साधना अधूरी है। उत्तम बीज भी जरूरी है(उपासना के दो चरण जप और ध्यान), खेत की निराई गुणाई और खाद-पानी(साधना के तीन चरण आत्मशोधन-योगप्राणायाम-स्वाध्याय) और अन्य किसानों तक बीज, खेती के गुण पहुंचाना(आराधना - समाजसेवा, पर्यावरण संरक्षण, वैचारिक प्रदूषण दूर करना, युगसाहित्य पढ़ना और दूसरों को पढ़ने के लिए प्रेरित करना)
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बाबूजी, यह बात बच्चो को जरूर कहिएगा, कि युगनिर्माण रिटायरमेंट प्लान या फुर्सत में करने की चीज़ नहीं है। यह सीमा पर छिड़े युद्ध और किसान की खेती तरह है, जिसमें युवाओं के जोश और प्रौढ़ के होश की जरूर है। दोनो को मिलकर आज अभी इसी वक्त से युगनिर्माण में उम्रभर मेहनत-श्रम करना है, जिससे सतयुग की वापसी तय हो सके। मनुष्य में देवत्व और धरती पर स्वर्ग का अवतरण हो सके।
🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन
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