प्रश्न - *क्या सद्गुरु अपने शिष्यों पर शक्तिपात करते है? शक्तिपात क्या सचमुच होता है? उदाहरण सहित बताएं...*
उत्तर - अयोग्य और कुपात्र को कोई जब संसार में जॉब नहीं देता तो भला अयोग्य और कुपात्र शिष्य को कोई सद्गुरु अपनी शक्तियां भला कैसे हस्तांतरित करेगा?
क्या कच्चे घड़े में कोई गंगा जल भरेगा? क्या गन्दे बर्तन में खीर परोसी जायेगी भला?...स्वयं विचार करें...
एक स्त्री ने गोरखनाथ जी के लिए खीर बनाई और जैसे ही कमण्ड में भरने गयी तो पीछे हट गई। बोली कमंडल में तो गोबर लगा है खीर खराब हो जाएगी, पहले दो कमंडल धोकर कर साफ कर दूं। उसने कमण्ड धोकर साफ किया फ़िर उसमें खीर डाली। गोरक्षनाथ नाथ ने कहा, देवी इसी तरह सद्गुरु और इष्ट होता है, बिना पात्रता शक्तिपात नहीं करता।
*शक्तिपात केवल सत्पात्र शिष्य पर ही सम्भव है।*
योग शास्त्रों में शक्तिपात की चर्चा बहुत हैं समर्थ गुरु शक्तिपात के द्वारा अपने शिष्यों को स्वल्प काल में आशाजनक सामर्थ्य प्रदान कर देते हैं। सिद्ध योगी तोतापुरी जी महाराज ने श्रीराम कृष्ण परमहंस को शक्तिपात करके थोड़े ही समय में समाधि अवस्था तक पहुँचा दिया था। श्रीपरमहंसजी ने अपने शिष्य विवेकानन्द को शक्तिपात द्वारा ही आत्मसाक्षात्कार कराया या और वे क्षण भर में नास्तिक से आस्तिक बन गये थे। योगी मछीन्द्रनाथ ने गुरु गोरखनाथ को अपनी व्यक्ति गत शक्ति देकर ही स्वल्प काल में उच्चकोटि योगी बना दिया था। योग और अध्यात्मार्ग में ऐसे अगणित उदाहरण मौजूद हैं जिनमें समर्थ गुरुओं के अनुग्रह से सत्पात्र शिष्यों ने बहुत कुछ पाया हैं शिष्यों द्वारा सेवा के अनेकों कष्टसाध्य उदाहरण धर्म पुराणों में भरे पड़े हैं। इस प्रक्रिया के पीछे एक बहुत बड़ा रहस्य छिपा पड़ा हैं। शिष्य की श्रद्धा, कर्तव्य बुद्धि, कष्ट सहिष्णुता, उदारता एवं धैर्य की परीक्षा इससे हो जाती है और पात्र-कुपात्र का पता चल जाता हैं। जब धन दान के लिए सत्पात्र याचक तलाश किये जाते हैं तो प्राण-दान जैसा महान् दान कुपात्रों को क्यों दिया जाय? सत्पात्र ही किसी महत्त्वपूर्ण वस्तु का सदुपयोग कर सकते हैं। कुपात्र उच्च तत्त्व का न तो महत्व समझते हैं और न उन्हें ग्रहण करने में समुचित रुचि ही लेते हैं। ठेल ठाले कर कोई कुछ दे भी दे तो उसका स्वल्प काल में ही अपव्यय कर डालते हैं इसलिए अध्यात्म क्षेत्र में प्रगति करने के लिए जहाँ समर्थ गुरु की नितान्त आवश्यकता रहती हैं वहाँ शिष्य की श्रद्धा एवं सत्पात्रता भी अभीष्ट हैं। दोनों ही पक्ष स्वस्थ हों तो प्रगति पथ की एक बड़ी समस्या हल हो जाती हैं।
*गुरु का योगदान*
अच्छी जमीन में भी पौधे तब उगते और बढ़ते हैं जब बीज, खाद और पानी की बाहर से व्यवस्था की जाती हैं। गुरु का कर्तव्य बीज, खाद और पानी की समुचित व्यवस्था करके शिष्य की मनोभूमि को हरी भरी बनाना होता हैं। माली जो प्रयत्न अपने बगीचे को हरा भरा बनाने के लिए करता है वही कार्य एक कर्तव्यनिष्ठ गुरु को भी अपने शिष्यों के लिए करना पड़ता हैं। सद्गुरु जानते है कि किस शिष्य की मनोभूमि में क्या फ़लीभूत होगा, उसी के आधार पर गुरु शिष्य को साधना सरल या उच्चस्तरीय बताते है, और प्राण संचार या शक्तिपात करते है।
🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन
उत्तर - अयोग्य और कुपात्र को कोई जब संसार में जॉब नहीं देता तो भला अयोग्य और कुपात्र शिष्य को कोई सद्गुरु अपनी शक्तियां भला कैसे हस्तांतरित करेगा?
क्या कच्चे घड़े में कोई गंगा जल भरेगा? क्या गन्दे बर्तन में खीर परोसी जायेगी भला?...स्वयं विचार करें...
एक स्त्री ने गोरखनाथ जी के लिए खीर बनाई और जैसे ही कमण्ड में भरने गयी तो पीछे हट गई। बोली कमंडल में तो गोबर लगा है खीर खराब हो जाएगी, पहले दो कमंडल धोकर कर साफ कर दूं। उसने कमण्ड धोकर साफ किया फ़िर उसमें खीर डाली। गोरक्षनाथ नाथ ने कहा, देवी इसी तरह सद्गुरु और इष्ट होता है, बिना पात्रता शक्तिपात नहीं करता।
*शक्तिपात केवल सत्पात्र शिष्य पर ही सम्भव है।*
योग शास्त्रों में शक्तिपात की चर्चा बहुत हैं समर्थ गुरु शक्तिपात के द्वारा अपने शिष्यों को स्वल्प काल में आशाजनक सामर्थ्य प्रदान कर देते हैं। सिद्ध योगी तोतापुरी जी महाराज ने श्रीराम कृष्ण परमहंस को शक्तिपात करके थोड़े ही समय में समाधि अवस्था तक पहुँचा दिया था। श्रीपरमहंसजी ने अपने शिष्य विवेकानन्द को शक्तिपात द्वारा ही आत्मसाक्षात्कार कराया या और वे क्षण भर में नास्तिक से आस्तिक बन गये थे। योगी मछीन्द्रनाथ ने गुरु गोरखनाथ को अपनी व्यक्ति गत शक्ति देकर ही स्वल्प काल में उच्चकोटि योगी बना दिया था। योग और अध्यात्मार्ग में ऐसे अगणित उदाहरण मौजूद हैं जिनमें समर्थ गुरुओं के अनुग्रह से सत्पात्र शिष्यों ने बहुत कुछ पाया हैं शिष्यों द्वारा सेवा के अनेकों कष्टसाध्य उदाहरण धर्म पुराणों में भरे पड़े हैं। इस प्रक्रिया के पीछे एक बहुत बड़ा रहस्य छिपा पड़ा हैं। शिष्य की श्रद्धा, कर्तव्य बुद्धि, कष्ट सहिष्णुता, उदारता एवं धैर्य की परीक्षा इससे हो जाती है और पात्र-कुपात्र का पता चल जाता हैं। जब धन दान के लिए सत्पात्र याचक तलाश किये जाते हैं तो प्राण-दान जैसा महान् दान कुपात्रों को क्यों दिया जाय? सत्पात्र ही किसी महत्त्वपूर्ण वस्तु का सदुपयोग कर सकते हैं। कुपात्र उच्च तत्त्व का न तो महत्व समझते हैं और न उन्हें ग्रहण करने में समुचित रुचि ही लेते हैं। ठेल ठाले कर कोई कुछ दे भी दे तो उसका स्वल्प काल में ही अपव्यय कर डालते हैं इसलिए अध्यात्म क्षेत्र में प्रगति करने के लिए जहाँ समर्थ गुरु की नितान्त आवश्यकता रहती हैं वहाँ शिष्य की श्रद्धा एवं सत्पात्रता भी अभीष्ट हैं। दोनों ही पक्ष स्वस्थ हों तो प्रगति पथ की एक बड़ी समस्या हल हो जाती हैं।
*गुरु का योगदान*
अच्छी जमीन में भी पौधे तब उगते और बढ़ते हैं जब बीज, खाद और पानी की बाहर से व्यवस्था की जाती हैं। गुरु का कर्तव्य बीज, खाद और पानी की समुचित व्यवस्था करके शिष्य की मनोभूमि को हरी भरी बनाना होता हैं। माली जो प्रयत्न अपने बगीचे को हरा भरा बनाने के लिए करता है वही कार्य एक कर्तव्यनिष्ठ गुरु को भी अपने शिष्यों के लिए करना पड़ता हैं। सद्गुरु जानते है कि किस शिष्य की मनोभूमि में क्या फ़लीभूत होगा, उसी के आधार पर गुरु शिष्य को साधना सरल या उच्चस्तरीय बताते है, और प्राण संचार या शक्तिपात करते है।
🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन
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