Tuesday, 19 June 2018

कविता - पेंसिल से शिक्षण

*पेंसिल से शिक्षण*

सुनो पेंसिल क्या कहती,
करो वो जो पेंसिल कहती।

पेंसिल बाहर से हो सुंदर रंगबिरंगा,
या बिल्कुल हो प्लेन-सादा,
इससे फ़र्क नहीं पड़ता है,
लिखने का असली काम तो,
भीतर का काला लीड ही करता है।

इसी तरह शरीर से कोई भी हो,
सुंदर- गोरा -काला या भद्दा,
इससे ज्यादा फ़र्क नहीं पड़ता,
अन्तःकरण के गुणों, प्रतिभा और क्षमता से ही,
मनुष्य का असली व्यक्तित्व है निखरता,
उसी से वो सफ़ल या असफ़ल है बनता।

कटर की ब्लेड से छिलकर,
दर्द की असीम इंतहा झेलकर,
तभी पेंसिल की नोक बाहर आ पाती,
कागज़ पर अपनी छाप छोड़ पाती।

विपरीत परिस्थितियों और कठिनाइयों से ही,
मनुष्य का असली व्यक्तित्व निखरता,
अनगढ़ से व्यक्तित्व सुगढ़ बनता,
जीवन पर अपनी छाप छोड़ पाता।

गलतियां ही न हो,
ऐसा हो नहीं सकता,
पूर्ण परफ़ेक्ट इस जगत में,
कोई हो नहीं सकता,
पेंसिल कहती सदा रबर रखो साथ,
अपनी भूल सुधार के,
आगे बढ़ने का रास्ता करो साफ़।

शरीरबल को ही सबकुछ  न समझो,
आत्मबल को भी तप से उभार लो,
रूप से ज्यादा गुण को निखार लो,
जीवन को मनचाहा सुंदर आकार दो।

असम्भव को सम्भव करके दिखाओ,
अपनी प्रतिभा-निखार हेतु कष्ट उठाओ,
श्रेष्ठ व्यक्तित्व और कृतित्व अपनाओ,
कठिनाइयों में भी आगे बढ़ते जाओ।

🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन

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