Wednesday, 6 June 2018

प्रश्न - *महापुरुष जब इतने महान होते हैं, तो वो अपने रक्तसम्बन्धी, स्वयं जनमें बच्चो, खानदान और रिश्तेदारों को क्यों नहीं महान बना पाते? क्यों कोई अन्य घर मे जन्मा व्यक्ति शिष्यत्व में सर्वश्रेष्ठ साबित होकर उनका उत्तराधिकार ग्रहण करता है?*

प्रश्न - *महापुरुष जब इतने महान होते हैं, तो वो अपने रक्तसम्बन्धी, स्वयं जनमें बच्चो, खानदान और रिश्तेदारों को क्यों नहीं महान बना पाते? क्यों कोई अन्य घर मे जन्मा व्यक्ति शिष्यत्व में सर्वश्रेष्ठ साबित होकर उनका उत्तराधिकार ग्रहण करता है?*

उत्तर - *यदि दिया तले अंधेरा है तो क्या दिए के प्रकाश के महत्त्व को नकार देंगे क्या*? दिया सर्वत्र प्रकाश देता है लेकिन अपने नीचे के अंधेरे को नहीं हटा पाता। उसे हटाने हेतु दूसरे दीपक की जरूरत होती है।

कुशल से कुशल सर्जन जो दुनियाँ को अपने ज्ञान और ऑपरेशन की कला से जीवनदान देता है, वो भी अपनी सन्तानों का ऑपरेशन नहीं कर पाता। उसे दूसरे चिकित्सक की सलाह लेनी पड़ती है।

*कोई भी महापुरुष जन्मजात ज्ञानी नहीं होता। वो श्रेष्ठ आत्मा होते हुए भी अणु से विभु की ओर बढ़ने के लिए नानाप्रकार के तप, ध्यान, स्वाध्याय इत्यादि उपक्रम करके महान बनता है।*

*महापुरुष शरीर स्तर पर एक मनुष्य ही होते हैं, केवल उनकी चेतना, ज्ञान और तपस्या महान होती है। जो लोग उनके शरीर से जुड़े होते हैं, जो उन्हें खाते पीते, बीमार होते, मल-मूत्र त्याग करने जाते देखते हैं। वो उनकी तुलना शारीरिक क्षमता से करने के कारण उनकी महानता से परिचित नहीं होते।* यहां घर की मुर्गी वाली बात चरितार्थ होती है। *लेकिन जो व्यक्ति शिष्य बनने आता है उसका महापुरुष गुरु के शरीर से कोई लेना देना नहीं होता। वो तो गुरुचेतना से जुड़ने आता है, इसलिए प्रकाशित हो जाता है।*

शरीर से जुड़कर प्रकाश नहीं मिलता, उसकी चेतना से जुड़कर प्रकाश मिलता है। जितनी योग्यता गुरु की आवश्यक है उससे कहीं अधिक योग्यता शिष्य के समर्पण की आवश्यक है। *शिष्य का गुरु के प्रति समर्पण, "करिष्ये वचनम तव" वाला भाव ही गुरुचेतना से जुड़ने का कनेक्शन होता है। समर्पण नहीं तो कनेक्शन नहीं, जितना समर्पण और मेहनत उतना अनुदान वरदान। सीधा सा हिसाब है।*

*महापुरुष गुरु अपने अनुदान वरदान सबके लिए लुटाने को तैयार है लेकिन अनुदान वरदान लेने के लिए कोई झुकने को तैयार हो तब न। झरने से पानी पीना है तो उसके नीचे अंजुली रखनी पड़ेगी।* अब झरने के ऊपर खड़े होकर प्यास बुझाने का क्रम नहीं हो सकता। रक्तसम्बन्धी, संताने और रिश्तेदार जो शिष्य बनेंगे केवल वही गुरुचेतना से जुड़कर लाभान्वित हो पाएंगे और जो अधिकार मांगेंगे या हिस्सा मांगेंगे वो खाली हाथ ही रहेंगे। महापुरुष की दृष्टि में कोई अपना-पराया नहीं रह जाता, वो ईश्वर की तरह पुत्र और अन्य व्यक्ति की सन्तान के बीच न्याय में कोई फर्क नहीं रखता।

*रही बात तपस्या के बंटवारे की वो सम्भव नहीं है, क्योंकि तपस्या तप से अर्जित की जाती है।* जैसे सांसारिक जगत को ही देख लें अमिताभ बच्चन की एक्टिंग हो या सचिन तेंदुलकर की बैटिंग स्किल हो इसे सीखा तो शिष्य बनके जा सकता है। लेकिन उत्तराधिकार में दिया नहीं जा सकता। बैट, कमाई, धन इत्यादि जड़ पदार्थ उत्तराधिकार में हस्तांतरित होते हैं। इसी तरह आध्यात्मिक सम्पदा तप, ज्ञान, बुद्धि और ऊर्जा केवल अर्जित की जाती है, गुरु के साथ शिष्य के समर्पण और मेहनत के संयोजन से यह सम्भव होता है।

उम्मीद है आपकी शंका का समाधान हो गया होगा कि क्यों महापुरुष के बच्चे उतने ज्ञानी और महान अपने पिता समान नहीं बन पाते? जबकि अन्य घर मे जन्मा और शिष्य बनने आया व्यक्ति ज्ञान और तप में उसी महापुरुष गुरु का उत्तराधिकारी बन जाता है। जब पुत्र भी शिष्य बनता है तो वो भी पिता के समान महान बन सकता है या उससे भी आगे जा सकता है। शिष्यत्व और समर्पण के साथ तपशील और कठिन परिश्रम तो जरूरी है।

🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन

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