Wednesday, 4 July 2018

सच्चा धर्म आत्मीयता का विस्तार और मानव कल्याण

*सच्चा धर्म आत्मीयता का विस्तार और मानव कल्याण*

*जब हमको कोई छोटा नगण्य और मूल्यहीन दिखता है, तो उसके दो कारण होते हैं, उसे या तो हम दूर से देख रहे हैं या गुरुर(अहंकार) से देख रहे हैं।*

राजसूय यज्ञ में युधिष्ठिर को कोई कुयोग्य और पूर्णतया बुरा व्यक्ति नही दिखा और दुर्योधन को कोई सुयोग्य और अच्छा व्यक्ति नहीं दिखा। हमारे हृदय में यदि किसी के प्रति घृणा भरी हो तो हम उसकी अच्छाई देख न सकेंगे और यदि हमारे हृदय में किसी के प्रति प्रेम भरा हो तो हम उसकी बुराई देख न सकेंगें। *जैसी हमारी अंतर्दृष्टि होगी वैसी ही हमे सृष्टि दिखेगी।*

*धर्म तो सारी मानवता का कल्याण चाहता है। धर्म तो अपने विरोधी तक को हंसकर गले लगाता है। धर्म वह होता है, जो दुश्मन को भी कहता है कि दोस्त! अगर तुम मुझे मारना ही चाहते हो, तो अवश्य मारना लेकिन पहले मेरे साथ हंसकर जरा दो बातें तो कर लो, उसके बाद तुम अपना काम कर लेना।*

ऐसा होता है धर्म। धर्म कहता है—इस प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष जगत में जड़-चेतना का तुच्छ से तुच्छ अंश भी ऐसा नहीं है, जिसके लिए क्रोध किया जा सके। बल्कि इस जगत का हर अंश उतने ही प्रेम का हकदार है, उतनी ममता का हकदार है, जितना कि ईश्वर। अगर उस अंश को हमारे द्वारा प्यार नहीं किया जाता, उसके प्रति करुणा, ममता नहीं दर्शायी जाती तो यह सरासर अन्याय ही होगा—


*सर्वदेव नमस्कारं केशवं प्रति गच्छति ।*


वास्तव में धर्म का एक ही रूप है और वह है, सारी सृष्टि का कल्याण। सारी मानवता की निर्लिप्त भाव से सेवा और सहानुभूति। यह जीवन सारा का सारा उसी का है। इसमें अपने लिए, कुछ भी नहीं, अगर हम धर्म के अंदर प्रविष्ट हो जाएं तो, जीवन का हर क्षण धर्म बन सकता है। धर्म हमारी आत्मा बन सकती है, धर्म हमारा शरीर बन सकता है, धर्म हमारी बुद्धि बन सकती है, धर्म हमारा मन बन सकता है और हम स्वयं धर्म बन सकते हैं, बशर्ते हम धर्म को धारण करें। अगर हम धर्म को धारण नहीं करते हैं, तो धर्म हमारा परित्याग कर देता है, हम धर्म विहीन हो जाते हैं, और धर्म विहीन जीवन, अस्तित्व विहीन कर देता है:—


*धर्म एव हतोहन्ति, धर्मो रक्षति रक्षतः ।*

धर्म मार्ग - प्रेम का मार्ग है, प्रेम गली अति सांकरी जा में दो न समाये। या तो भगवान रहेगा या *मैं* रहेगा।

*जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहि।*

घृणा और प्रेम एक साथ नहीं रह सकते । धर्म तो प्रभु का दास बन समर्पित भक्त बनने का नाम है, धर्म मे स्वामित्व अधिकार जताना तो होता ही नहीं है।

*न मैं रहूँ न मेरी आरजू रहे, बस तू रहे और तेरी आरजू रहे।*

रेफरेन्स बुक - http://literature.awgp.org/book/dharm_path/v1.1

🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन

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