Monday, 23 July 2018

प्रश्न - *ईर्ष्या और अपेक्षाओं से मुक्ति के लिए कौन सी साधना करूँ? स्वयं को संसार मे भटकने से कैसे बचाऊं?मार्गदर्शन करें...*

प्रश्न - *ईर्ष्या और अपेक्षाओं से मुक्ति के लिए कौन सी साधना करूँ? स्वयं को संसार मे भटकने से कैसे बचाऊं?मार्गदर्शन करें...*

उत्तर - आत्मीय बहन, आपका श्रेष्ठ मन उच्च आत्मिक स्थिति तक पहुंचना चाहता है, इसलिए यह श्रेष्ठ प्रश्न पूंछ रहा है।

*सबसे पहले यह समझते है कि ईर्ष्या और अपेक्षाओं का जन्म ही मन में क्यों होता है? इसकी जड़ क्या है? आइये इसका root cause analysis करते हैं*...

ईर्ष्या तन नहीं कर सकता क्योंकि यह जड़ है। ईर्ष्या आत्मा भी नहीं कर सकती क्योंकि वो सबसे परे है। *ईर्ष्या मन की उपज तो है, अब मन में ईर्ष्या उपजी भी तो क्यों?*

*मन तो बचपन से दी गयी परवरिश और दिए सँस्कार से बना है।* सांसारिक शिक्षा से मिला सँस्कार गला तोड़ प्रतियोगिता और ईर्ष्या का गुण बचपन मे ही विकसित कर देता है। अपनी कमी देखना सिखाता नहीं और दूसरों पर दोष मढ़ना सिखाता है। हमें झूठी पहचान और मुखौटे में कैद कर देता है, उदाहरण टॉपर, इंजीनियर, वकील, डॉक्टर, सैनिक, व्यवसायी इत्यादि न जाने क्या क्या बनने को ही सबकुछ बनना बता देता है, सफलता का पैमाना बताता है। साथ ही अधिकार मांगना सिखाता है, कर्तव्यपरायणता तो कोई सिखाता ही नहीं। शारीरिक रखरखाव सफाई सिखाई जाती है लेकिन अन्तःकरण की सफ़ाई तो किसी ने सिखाया ही नहीं।

कभी किसी ने  हमें *अच्छा इंसान बनने को प्रेरित* ही नहीं किया, कभी *आत्मा सर्वभूतेषु* समझाया ही नहीं।

*पाश्चात्य शिक्षा ने हमें दुनियां को बाज़ार बताया और हमें व्यवसायी , लूटो खाओ और आगे बढ़ो यही सिखाया।*

अध्यात्म शिक्षा का पहला शिक्षण ही *गायत्री मंत्र* है, जिसके माध्यम से पूरे विश्व को कुटुंब - *वसुधैव कुटुम्बकम* और स्वयं को परिवार का सदस्य बताया। परिवार में तो आत्मीयता और प्रेम सहकार मांगता है। अधिकारों की उपेक्षा और कर्तव्यों का पालन जरूरी है। इंसानियत और भाव सम्वेदना जरूरी है। इसलिए धरती हो या घर आध्यात्मिक व्यक्ति उसे स्वर्ग समान सुंदर बनाने में जुट जाता है।

*अब समस्या यह भी है कि बचपन से मिला उल्टा ज्ञान हमारे आध्यात्मिक सफ़र में बाधा उतपन्न कर रहा है। अब हम ईर्ष्या और अपेक्षा से मुक्त होना चाहते तो है, लेकिन पुराने संस्कारो के कारण वो छूटता नहीं।*

*तो समस्या गहन यह है कि करें तो करें क्या? ईर्ष्या से मुक्त होवें कैसे? आध्यात्मिक दृष्टि को सदैव बनाये कैसे रखें? मन को स्थित प्रज्ञ कैसे रखें?*

इसके लिए बहन आपको तात्विक विश्लेषण की जरूरत पड़ेगी, जिससे आपकी विवेक अंतर्दृष्टि जागृत हो। एक कहानी सुनो:-

एक अमीर आदमी को बिजनेस में घाटा हुआ तो वो सोनार के पास स्वर्ण आभूषण के साथ स्वर्ण के गणेश और उनके वाहन स्वर्ण के चूहे को भी बेचने गया।

सोनार ने सबका रेट एक जैसा लगाया। तो अमीर आदमी भड़क गया, बोला भाई गणेश जी की मूर्ति और गणेश जी के वाहन चूहे का एक रेट कैसे लगा सकते हो? गणेश जी का ज्यादा रेट और चूहे का कम होना चाहिए।

सोनार हंस कर बोला - *महाराज आप सोनार की दृष्टि से इन वस्तुओं को देखोगे तो मुझे सब स्वर्ण के अतिरिक्त कुछ नहीं दिख रहा। अंगूठी हो या मुकुट या गले का हार या चूड़ी या करधन या गणेश जी की मूर्ति या चूहे की मूर्ति। मेरे लिए सब स्वर्ण है क्योंकि ये सब स्वर्ण से बना है और मैं स्वर्ण की कीमत अदा कर रहा हूँ उसके आकार प्रकार की नहीं।*

इसी तरह यदि हम अध्यात्म की दृष्टि से संसार को देखेंगे तो सब हमें आत्मा ही दिखेंगे। हम भी आत्मा ही है। तो स्वतः आत्मा सर्वभूतेषु का भाव आ जायेगा। कण कण में परमात्मा भी दिखेगा क्योंकि आत्मा तो परमात्मा का ही अंश है।

मूर्खता तो तब होती है जब स्वर्ण का मुकुट घमंड में स्वर्ण की पायल को बोले मैं तुमसे श्रेष्ठ हूँ। पायल मुकुट से ईर्ष्या करे। या अंगूठी गले के हार से ईर्ष्या करे। जबकि सुनार के लिए तो सब समान है, केवल स्वर्ण है। स्वर्ण हटा दो सब  गहने गायब। इसी तरह आत्मा हटा दो सब मनुष्य गायब,इसलिए आध्यात्मिक दृष्टि सम्पन्न सन्त के लिए सब केवल आत्मा है। आत्मा के न रहने पर तो शरीर जला दिया जाएगा या कब्र में दफना दिया जाएगा। डॉक्टर , इंजीनियर , वकील, अमीर, ग़रीब कोई भी हो एक मुट्ठी राख भर बचेगी।  उसी तरह जैसे आभूषण गलाने पर केवल स्वर्ण ही बचेगा। उसे यदि और अधिक जलाया तो मात्र स्वर्ण भष्म ही बचेगा।

कुल मिलाकर संक्षेप में यह समझो बहन कि जब भी किसी को देखो तो उसके मूल को देखो, उसे आध्यात्मिक दृष्टि से देखो। गहने देखो तो सुनार की दृष्टि से देखो - उसे करधन, अंगूठी, मुकुट या हार के रूप में न देख के केवल स्वर्ण रूप में देखो। इसी तरह मनुष्य को अमीर, गरीब, डॉक्टर, इंजीनियर, वकील, स्त्री, पुरुष इत्यादि रूप में न देख के उसके मूल आत्मा के रूप में देखो, आध्यात्मिक दृष्टि से देखो।

अब यदि कोई पुरूष किसी सुंदर स्त्री को आध्यात्मिक दृष्टि से देखे तो वो क्या देखेगा उसके अंदर की आत्मज्योति और भविष्य में एक मुट्ठी राख। वासना उसकी तत्क्षण इस विचार से राख हो जाएगी। इसी तरह *जब आप भी किसी भी व्यक्ति को आत्मज्योति, उसकी देह और वैभव को एक मुट्ठी राख के रूप में देखेंगी तो स्वतः इर्ष्या राख हो जाएगी, अपेक्षाएं तिरोहित हो जाएगा।*

*सो$हम साधना* इसी आध्यात्मिक दृष्टि को विकसित करने के लिए किया जाता है। यहां भाव करते है कि *मैं शरीर नहीं हूँ, मैं मन नहीं हूँ,  मैं केवल अजर अमर सच्चिदानंद स्वरूप आत्मा हूँ। यह शरीर सराय है और मैं अनन्त यात्री हूँ*। इस जगत में भी सभी आत्मस्वरूप है।

पुस्तक - *मैं क्या हूँ?* और *अध्यात्म विद्या का प्रवेश द्वार* जरूर पढ़ें

🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन

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