प्रश्न - *लडकियों का यज्ञोपवीत संस्कार करवा सकते हैं या नहीं?*
*यदि करवा सकते है तो क्यों?*
*यदि नही करवा सकते तो क्यों?*
उत्तर - आत्मीय भाई, हिंदू धर्म में स्त्री को पुरुषो के समान ही धर्म का, गुरुमंत्र का, गायत्री मंन्त्र का और यज्ञोपवीत का समान अधिकार प्राप्त है। अतः लड़कियों का गुरुदीक्षा के साथ यज्ञोपवीत सँस्कार करवा सकते हैं। आप अपने शहर के नज़दीकी गायत्री शक्तिपीठ, शान्तिकुंज हरिद्वार या गायत्री तपोभूमि मथुरा जाकर करवा सकते हैं।
माता पिता और आचार्य इन तीनों की एक श्रेणी है। माता जन्म देती है। पिता भरण पोषण की व्यवस्था करता है और आचार्य ज्ञान देता है। यह तीनों ही कार्य समान रूप से महान होने के कारण इन तीनों को ही देव, गुरु एवं पितर माना गया है। लड़के और लड़की का उसमें भेद नहीं। *लड़कों की भाँति लड़की के भी माता, पिता और अध्यापक होते हैं। अध्यात्म क्षेत्र में भी यही बात है। लड़कों को ज्ञान, शिक्षा एवं मन्त्र शक्ति की आवश्यकता है। यह आवश्यकता लड़कियों को न हो ऐसी कोई बात नहीं। नर और नारी का अध्यात्म क्षेत्र में कोई अन्तर नहीं। दोनों ही प्रभु के शरीर की दो भुजायें, दो आँखें हैं। दोनों का दर्जा समान है। कई व्यक्ति कहते हैं नारी का गुरु उसका पति है। दैनिक घरेलू एवं सामाजिक जीवन में यह बात सर्वथा उचित है, पर अध्यात्म क्षेत्र में यह बात लागू नहीं हो सकती। गुरु पिता तुल्य है। पति को पिता कैसे माना जायगा? यदि ऐसा उचित है तो फिर पति को गुरु दीक्षा भी पत्नी दे दिया करे।*
*Reference*- http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1956/July/v2.13
यग्योपवीत मंन्त्र - *ॐ यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं, प्रजापतेयर्त्सहजं पुरस्तात् ।। आयुष्यमग्र्यं प्रतिमुञ्च शुभ्रं, यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः* ॥ -पार० गृ०सू० २.२.११
*शिखा और सूत्र भारतीय संस्कृति के दो सर्वमान्य प्रतीक है ।।* शिखा भारतीय संस्कृति के प्रति आस्था की प्रतीक है, जो मुण्डन संस्कार के समय स्थापित की जाती है ।। *यज्ञोपवीत सांस्कृतिक मूल्यों के आधार पर अपने जीवन में आमूलचूल परिवर्तन के संकल्प का प्रतीक है ।। इसके साथ ही गायत्री मंत्र की गुरुदीक्षा भी दी जाती है ।। दीक्षा यज्ञोपवीत मिलकर द्विजत्व का संस्कार पूरा करते हैं ।।* इसका अर्थ होता है- ' *दूसरा जन्म* ' ।। शास्त्रवचन है- ' *जन्मना जायते शूद्रः संस्कारवान् द्विज उच्यते* ॥' (स्कन्द ६.२३९.३१)
*Reference* - http://literature.awgp.org/book/sanskar_parampara/v1.7
गायत्री-साधना के लिए यज्ञोपवीत धारण करना चाहिए, अथवा जो यज्ञोपवीत धारण करें वे ही गायत्री जपें, ऐसी चर्चाएं प्रायः चलती रहती हैं।
इस संदर्भ में इतना ही जानना पर्याप्त है कि यज्ञोपवीत गायत्री महामंत्र का प्रतीक है। उसके नौ धागों में, गायत्री मंत्र के नौ शब्दों में सन्निहित तत्वज्ञान भरा है। तीन लड़ें त्रिपदा गायत्री की तीन धाराओं का प्रतिनिधित्व करती हैं। तीन ग्रन्थियां तीन व्याहृतियां हैं। बड़ी ब्रह्मग्रन्थि को ऊंकार कहा गया है। इस प्रकार पूरा यज्ञोपवीत एक सूत का बना धर्मग्रन्थ है जिसको धारणकर्ता को मानवोचित रीति-नीति अपनाने का—अनुशासन सिखाने वाला अंकुश कह सकते हैं। इसे कन्धे पर धारण करने का तात्पर्य है गायत्री में सन्निहित सदाशयता को स्वीकार करना और उसे अपनाने की तत्परता का परिचय देना। शिवरात्रि पर गंगाजल की कांवर कन्धे पर रखकर चलने और शिव प्रतिमा पर चढ़ाने का उत्तर भारत में बहुत प्रचलन है। श्रवणकुमार ने अपने माता-पिता को कन्धे पर बिठाकर तीर्थयात्रा कराई थी। गायत्री-माता का अनुशासन कन्धे पर धारण करना—अपनाना ही यज्ञोपवीत धारण है। प्रकारान्तर से इसे शरीर पर गायत्री की सूत निर्मित प्रतिमा को धारण करना भी कह सकते हैं।
देव प्रतिमा के सान्निध्य में उपासना करने का अधिक महत्व है। किन्तु यदि कहीं देवालय न हो तो भी उपासना करने में कोई निषेध नहीं है। इसी प्रकार यज्ञोपवीत धारण करते हुए गायत्री जप किया जाय तो देव प्रतिमा के सान्निध्य में की जाने वाली उपासना की तरह अधिक उत्तम है। पर यदि किसी कारणवश यज्ञोपवीत धारण करना न बन पड़े, तो भी इस उपासना के करने में किसी प्रकार की रोक-टोक या अड़चन नहीं है।
*नर और नारी दोनों को ही समान रूप से गायत्री-उपासना समेत समस्त धर्मकृत्यों का अधिकार है। इसके विरुद्ध अनर्गल प्रलाप किये जाते हैं—काने, कुबड़े प्रमाण प्रस्तुत किये जाते हैं, उन्हें भारतीय धर्म की आत्मा के सर्वथा प्रतिकूल ही माना जाना चाहिए। तथ्यहीन प्रतिगामिता की उपेक्षा करना ही श्रेयस्कर है। पुरुषों की भांति स्त्रियां भी गायत्री उपासना और यग्योपवीत* की परिपूर्ण अधिकारिणी हैं।
http://literature.awgp.org/book/Gayatri_Vishyak_Shanka_Samadhan/v4.7
जो धूर्त-लोग स्त्री को अपवित्र कहते हैं, उनसे यह प्रश्न करना चाहिए कि उसी स्त्री के रक्त-मांस से उपजा पुरुष फ़िर पवित्र कैसे? जब मां के रूप में स्त्री पूजनीय है तो अन्य रूपों में उपेक्षित क्यों?
वास्तव में भारतीय धर्म तो कहता है- *यत्र नारयन्ते पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता।* ऋषि की तरह ऋषिकाएँ भी प्राचीन काल में धर्म के सभी क्षेत्रों में समान अधिकार रखती थीं।
🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन
*यदि करवा सकते है तो क्यों?*
*यदि नही करवा सकते तो क्यों?*
उत्तर - आत्मीय भाई, हिंदू धर्म में स्त्री को पुरुषो के समान ही धर्म का, गुरुमंत्र का, गायत्री मंन्त्र का और यज्ञोपवीत का समान अधिकार प्राप्त है। अतः लड़कियों का गुरुदीक्षा के साथ यज्ञोपवीत सँस्कार करवा सकते हैं। आप अपने शहर के नज़दीकी गायत्री शक्तिपीठ, शान्तिकुंज हरिद्वार या गायत्री तपोभूमि मथुरा जाकर करवा सकते हैं।
माता पिता और आचार्य इन तीनों की एक श्रेणी है। माता जन्म देती है। पिता भरण पोषण की व्यवस्था करता है और आचार्य ज्ञान देता है। यह तीनों ही कार्य समान रूप से महान होने के कारण इन तीनों को ही देव, गुरु एवं पितर माना गया है। लड़के और लड़की का उसमें भेद नहीं। *लड़कों की भाँति लड़की के भी माता, पिता और अध्यापक होते हैं। अध्यात्म क्षेत्र में भी यही बात है। लड़कों को ज्ञान, शिक्षा एवं मन्त्र शक्ति की आवश्यकता है। यह आवश्यकता लड़कियों को न हो ऐसी कोई बात नहीं। नर और नारी का अध्यात्म क्षेत्र में कोई अन्तर नहीं। दोनों ही प्रभु के शरीर की दो भुजायें, दो आँखें हैं। दोनों का दर्जा समान है। कई व्यक्ति कहते हैं नारी का गुरु उसका पति है। दैनिक घरेलू एवं सामाजिक जीवन में यह बात सर्वथा उचित है, पर अध्यात्म क्षेत्र में यह बात लागू नहीं हो सकती। गुरु पिता तुल्य है। पति को पिता कैसे माना जायगा? यदि ऐसा उचित है तो फिर पति को गुरु दीक्षा भी पत्नी दे दिया करे।*
*Reference*- http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1956/July/v2.13
यग्योपवीत मंन्त्र - *ॐ यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं, प्रजापतेयर्त्सहजं पुरस्तात् ।। आयुष्यमग्र्यं प्रतिमुञ्च शुभ्रं, यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः* ॥ -पार० गृ०सू० २.२.११
*शिखा और सूत्र भारतीय संस्कृति के दो सर्वमान्य प्रतीक है ।।* शिखा भारतीय संस्कृति के प्रति आस्था की प्रतीक है, जो मुण्डन संस्कार के समय स्थापित की जाती है ।। *यज्ञोपवीत सांस्कृतिक मूल्यों के आधार पर अपने जीवन में आमूलचूल परिवर्तन के संकल्प का प्रतीक है ।। इसके साथ ही गायत्री मंत्र की गुरुदीक्षा भी दी जाती है ।। दीक्षा यज्ञोपवीत मिलकर द्विजत्व का संस्कार पूरा करते हैं ।।* इसका अर्थ होता है- ' *दूसरा जन्म* ' ।। शास्त्रवचन है- ' *जन्मना जायते शूद्रः संस्कारवान् द्विज उच्यते* ॥' (स्कन्द ६.२३९.३१)
*Reference* - http://literature.awgp.org/book/sanskar_parampara/v1.7
गायत्री-साधना के लिए यज्ञोपवीत धारण करना चाहिए, अथवा जो यज्ञोपवीत धारण करें वे ही गायत्री जपें, ऐसी चर्चाएं प्रायः चलती रहती हैं।
इस संदर्भ में इतना ही जानना पर्याप्त है कि यज्ञोपवीत गायत्री महामंत्र का प्रतीक है। उसके नौ धागों में, गायत्री मंत्र के नौ शब्दों में सन्निहित तत्वज्ञान भरा है। तीन लड़ें त्रिपदा गायत्री की तीन धाराओं का प्रतिनिधित्व करती हैं। तीन ग्रन्थियां तीन व्याहृतियां हैं। बड़ी ब्रह्मग्रन्थि को ऊंकार कहा गया है। इस प्रकार पूरा यज्ञोपवीत एक सूत का बना धर्मग्रन्थ है जिसको धारणकर्ता को मानवोचित रीति-नीति अपनाने का—अनुशासन सिखाने वाला अंकुश कह सकते हैं। इसे कन्धे पर धारण करने का तात्पर्य है गायत्री में सन्निहित सदाशयता को स्वीकार करना और उसे अपनाने की तत्परता का परिचय देना। शिवरात्रि पर गंगाजल की कांवर कन्धे पर रखकर चलने और शिव प्रतिमा पर चढ़ाने का उत्तर भारत में बहुत प्रचलन है। श्रवणकुमार ने अपने माता-पिता को कन्धे पर बिठाकर तीर्थयात्रा कराई थी। गायत्री-माता का अनुशासन कन्धे पर धारण करना—अपनाना ही यज्ञोपवीत धारण है। प्रकारान्तर से इसे शरीर पर गायत्री की सूत निर्मित प्रतिमा को धारण करना भी कह सकते हैं।
देव प्रतिमा के सान्निध्य में उपासना करने का अधिक महत्व है। किन्तु यदि कहीं देवालय न हो तो भी उपासना करने में कोई निषेध नहीं है। इसी प्रकार यज्ञोपवीत धारण करते हुए गायत्री जप किया जाय तो देव प्रतिमा के सान्निध्य में की जाने वाली उपासना की तरह अधिक उत्तम है। पर यदि किसी कारणवश यज्ञोपवीत धारण करना न बन पड़े, तो भी इस उपासना के करने में किसी प्रकार की रोक-टोक या अड़चन नहीं है।
*नर और नारी दोनों को ही समान रूप से गायत्री-उपासना समेत समस्त धर्मकृत्यों का अधिकार है। इसके विरुद्ध अनर्गल प्रलाप किये जाते हैं—काने, कुबड़े प्रमाण प्रस्तुत किये जाते हैं, उन्हें भारतीय धर्म की आत्मा के सर्वथा प्रतिकूल ही माना जाना चाहिए। तथ्यहीन प्रतिगामिता की उपेक्षा करना ही श्रेयस्कर है। पुरुषों की भांति स्त्रियां भी गायत्री उपासना और यग्योपवीत* की परिपूर्ण अधिकारिणी हैं।
http://literature.awgp.org/book/Gayatri_Vishyak_Shanka_Samadhan/v4.7
जो धूर्त-लोग स्त्री को अपवित्र कहते हैं, उनसे यह प्रश्न करना चाहिए कि उसी स्त्री के रक्त-मांस से उपजा पुरुष फ़िर पवित्र कैसे? जब मां के रूप में स्त्री पूजनीय है तो अन्य रूपों में उपेक्षित क्यों?
वास्तव में भारतीय धर्म तो कहता है- *यत्र नारयन्ते पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता।* ऋषि की तरह ऋषिकाएँ भी प्राचीन काल में धर्म के सभी क्षेत्रों में समान अधिकार रखती थीं।
🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन
No comments:
Post a Comment