प्रश्न - *यदि भगवान है, और वो सर्वशक्तिमान है? फिर उसके रहते हुए भारत में करोड़ो हिंदुओं का बड़े स्तर पर नरसंघार क्योँ हुआ? आतंकवाद क्योँ बढ़ रहा है? अकाल मृत्यु क्योँ हो रही है? लोग बीमार क्यों हो रहे हैं? लोग नाना प्रकार के कष्ट क्यों भोग रहे हैं? कृपया अपने विचार दें...*
उत्तर - भाई यह प्रश्न प्रत्येक मनुष्य के अंदर है। कोई पूँछता है और कोई नहीं...
(पोस्ट लम्बी है क्योंकि प्रश्न गूढ़ है, उत्तर चाहते हो तो जरूर पढ़िये...)
भगवान बुद्ध कहते हैं- *संसार दुःखमय है। ब्रह्म सत्य और जगत मिथ्या।*
नानक जी कहते हैं- *नानक दुखिया सब संसारा है। नश्वर संसार, शाश्वत ब्रह्म।*
तुलसीदास जी कहते है- *कर्मप्रधान विश्व करि राखा, जो जस करई सो तस फ़ल चाखा।*
दूसरी तरफ़ लिखते है:- *विधिकर लिखा को मेटन हारा*
शंकराचार्य कहते हैं- *संसार आनन्दस्वरूप है, ब्रह्म सत्य है तो उसकी अभिव्यक्ति संसार भी सत्य है।*
युगऋषि पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य जी कहते हैं- *मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है। और कर्म की गति गहन है। बोया काटा सिद्धांत है।*
कन्फ़्यूज़ हो गए न, यदि आनन्दस्वरूप सत्य है तो संसार दुःखमय कैसे हुआ? यदि कर्म प्रधान विश्व है तो विधि का लिखा को मेटनहारा बात कैसे सत्य है? यदि ब्रह्म सत्य है तो उसकी अभिव्यक्ति संसार मिथ्या कैसे हुआ? सूर्य सत्य है तो उसकी किरण भी सत्य हुई न? अगर हम भाग्य विधाता है, तो फिर परमात्मा क्या रोल हुआ भाई? हम भगवान को क्यों पूजे यदि हम स्वयं ही विधाता है? इत्यादि इत्यादि...Too much confusion...😭😭😭😭
मन चीखता चिल्ल्लाता है अरे कोई तो बताओ सत्य क्या है? सबके सत्य का वर्जन अलग क्यों है? एक हाल के बच्चे जिसके दिल मे छेद है उसने कौन सा कर्म गलत किया? किसी का युवा बेटा मर गया? किसी की बेटी को दहेज के लिए जिंदा जला दिया? गर्भ में बच्चा मर गया या जबरन भ्रूण हत्या? धर्म परिवर्तन के नाम पर करोङो बेगुनाहों का मर्डर, बत्तख, मुर्गी और बकरों के परिवार ने क्या कर्म बुरा किया जो रोज उनका मर्डर किया जाता है और उनकी लाशों को पकाकर खाया जाता है? इत्यादि इत्यादि...अगर यह सब भगवान की लीला है, हरि इच्छा से है.... तो इस लीला में इतना दर्द परेशानी दुःख क्योँ?😭😭😭😭 मैं भगवान की इतनी पूजा करती या करता हूँ फिर भी मेरे दुःखों परेशानियों का अंत नहीं हो रहा....मेरा तो भगवान पर से भरोसा उठ गया इत्यादि इत्यादि भाव अधिकतर लोगों के मन मे आते है..मेरे पापा या मम्मी बहुत पूजा करती थी फिर भी उनकी अकाल मृत्यु हो गयी...बहुत कुछ गुस्सा बहुत हृदय में भरा है??
📖📖📖📖📖📖
अब थोड़ा ठहरो! ज़रा सोचो! यदि तुम्हारे चार पुत्र होते, सभी विपरीत स्वभाव के होते, कोई अच्छा या कोई बुरा भी तो तुम उन सबकी किस्मत कैसी लिखते?
सबकी समान एक जैसी ही लिखते, भले ही कोई सन्तान आपको गाली ही क्यों न देती हो। सही कहा न...सहमत हो न...
लेकिन अब थोड़ा रोल चेंज करते है, बच्चो से प्यार आपका अब भी है, लेकिन आप जज की कुर्सी पर हो। आपके पुत्र के ऊपर मर्डर का अभियोग है, दलील सुनने के बाद उसे फांसी की सजा देनी पड़ी । अब क्या करोगे? दण्ड देना पड़ेगा है न...सहमत हो न मेरी बात से...
क्या जज की कुर्सी पर बैठा पिता पुत्र से प्रेम नहीं करता? क्या वो फाँसी की सज़ा जज रूपी पिता ने उसकी किस्मत में लिखी या उस पुत्र ने अपने कर्मों से फाँसी की सज़ा स्वयं के लिए लिखी?
कन्फ़्यूज़ हो गए? अब यहां मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है, बोया काटा सिद्धांत, कर्म प्रधान जग और पुत्र के लिए संसार दुःखमय सबकुछ सत्य है। विधि का लेखा वाली बात भी सत्य है कि क्योंकि सज़ा का एलान कर्मफ़ल के अनुसार जज ही करेगा।
अब पूजा पाठ या अध्यात्म की शरण क्यों ले?
पापकर्म के एवज़ में उतने ही अमाउंट का पुण्यकर्म अदा करते है तो सज़ा कम होगी कि नहीं? जज विभिन्न कर्मो के अनुसार विभिन्न टाइप की सज़ा देता है। अब मान लो आपके हाथों किसी की गाड़ी डेमेज हो गयी, जज आपका पिता है, जुर्माना भी जज लगाएगा। लेकिन आप के पास इतने पैसे नहीं कि जुर्माना भर सको। तब जज की कुर्सी में बैठा पिता सज़ा देगा। घर आने पर आपके प्रार्थना करने पर वो जुर्माने का पैसा आपको देगा। साथ ही वो पैसा आपको कमा के चुकाना भी पड़ेगा।
कर्म करोगे तो उसका परिणाम भुगतना पड़ेगा। जज पिता प्यार का साग़र होने के बावजूद न्यायकारी होने के कारण दण्ड भी देगा।
कुछ शरीर और जीवों का शरीर केवल कर्मफ़ल भुगतने के लिए मिला है, यहां लिमिटेड जिंदगी का टाइप सेट है। जैसे पशु पक्षी कीट पतंगे, जलचर-नभचर इत्यादि। लेकिन कुछ मनुष्य शरीर कर्मफ़ल भुगतने के साथ साथ नए कर्मफ़ल भी क्रिएट कर सकता है और कुछ मनुष्य शरीर केवल कर्मफ़ल भुगत के विदा हो जाते है।
मनुष्य की तीन उम्र है- एक शरीर की उम्र, एक मानसिकता/बुद्धि की परिपक्वता की उम्र(कोई पचास वर्ष का व्यक्ति बालकबुद्धि हो सकता है, कोई 10 वर्ष का बालक 50 वर्षीय मानसिकता/बुद्धि परिपक्वता रख सकता है) और तीसरी आत्मा की उम्र।
अतः यदि बालक शरीर है और कष्ट उतपन्न है। तो भी आत्मा की उम्र नहीं घटती और न बढ़ती है।
नरसंघार धर्म परिवर्तन के नाम पर जो कर रहे है या जिनका हो रहा है, आपकी दृष्टि में हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई है। लेकिन भगवान की दृष्टि में केवल मर्डर और कुकृत्य है। उतना ही जघन्य अपराध है जितना मुर्गी या बकरे का कत्ल। आत्मा के लेवल पर दोनों समान है। धर्म का बंटवारा और नामकरण इंसान ने किया है भगवान ने नहीं।
अब आप बोलोगे फिर तो शेर को भी शिकार का पाप लगेगा। अगेन आप स्थूल दृष्टि से न्याय को देख रहे हो। उसे भोग शरीर मिला है वो अन्न या घास नहीं खा सकता। वो मांस पकाकर नहीं खाता। बीमार या वृद्ध होने पर कोई सेवा नहीं मिलेगी, भूखे महीनों सड़ सड़कर वृद्ध जीवित शेर मरता है। मनुष्य से उसकी तुलना मत करो, जिसे बुद्धि मिली है, भोग के साथ कर्म शरीर मिला है अनन्त संभावना के साथ मिला है।
यदि खाने को कुछ नहीं, मौत समक्ष हो तो पशुवत शिकार कर खाने में पाप नहीं लगेगा। क्योंकि कर्म(action) पर दण्ड नहीं मिलता, किस भावना(intention) से कर्म किया गया उसपर फल मिलेगा।
अच्छा यह बताओ कि तुम क्या हो? शरीर या आत्मा? यदि स्वयं को शरीर समझते हो तो संसार दुःखमय है, यदि स्वयं को आत्मा समझते हो तो संसार आनन्दस्वरूप है। क्योंकि आत्मा रूप में तुम उस परमात्मा का ही तो अंश हो। जिस प्रकार पुत्र पिता का अंश हुआ।
अब चलो किसी के मरने पर दुःख का एनालिसिस करते है? एक वृद्ध पिता 5 साल से बिस्तर पर पड़ा था, जिसकी कोई कमाई नही थी, उसकी मृत्यु हुई। सुखी होंगे या दुःखी?
एक बच्चा जो जन्मा था वो मर गया, अब सुखी होंगे या दुःखी?
एक जीवनसाथी जिससे नफरत करते थे, शक्ल देखना पसंद नहीं करते थे, वो मर गया/गयी, तो सुखी होंगे या दुःखी?
एक जीवनसाथी जिससे बेइंतहा प्रेम करते थे, शक्ल देखे बिना चैन नहीं था, वो मर गया/गयी, तो सुखी होंगे या दुःखी?
एक आवारा युवा लड़का जो माता-बाप पर बोझ था, बदनामी का कारण था, निर्लज्ज था। उसकी मौत हो गयी, माता पिता को कितना दुःख होगा?
एक आज्ञा कारी सुशील युवा लड़का जो माता-बाप की सेवा करता था, गर्व का कारण था, सज्जनपुरुष था। उसकी मौत हो गयी, माता पिता को कितना दुःख होगा?
इंसान आये दिन कितने एक्सिडेंट देखता है, कितने क्षण दुःखी होता है?
वास्तव में इंसान स्वार्थी होता है, केवल अपनों की मौत पर शोक ग्रस्त दुःखी होता है। अपनों में भी उसके लिए ज्यादा दुःखी होता है जिसको वो मुहब्बत/प्रेम करता है। जिस पर उसकी उम्मीदें टिकी हो या जिसने उसका कभी भला किया हो, केवल उसी के लिए आँशु बहाता है। एक ही घटना पर समान दुःख नहीं होता, हृदय की भावना दुःख का अनुपात तय करती है।
लेकिन परमात्मा उस मुर्गे बकरी के दर्द और मौत में भी उतना ही दुःखी होता है जितना एक इंसान की मौत और दर्द में। क्योंकि तुम्हारी दृष्टि शरीर तक है, तुम शरीर रूपी वस्त्र से पहचान करते हो, परमात्मा तो आत्मा को देखता है। आत्मा तो इंसान के शरीर मे हो या मुर्गी या बकरे के शरीर में निज कर्मफ़ल ही भुगत रही है। न्यायाधीश परमात्मा जो सभी बच्चो से प्यार करता है, उसे न्याय करना पड़ता है। यह न्याय व्यवस्था आत्मा पर आधारित है।
शरीर को सबकुछ समझने वाले और स्वयं के आत्मस्वरूप होने से अंजान, स्वयं ही भाग्य के विधाता है। यह जो नहीं मानता या जानता, उसके लिए ही यह संसार दुःखमय है। जो स्वयं को आत्मस्वरूप जानकर निज के विधाता स्वरूप को पहचान कर आत्म उत्थान में अग्रसर है। उसके लिए यह संसार आनन्दस्वरूप है। वही कण कण में परमात्मा को अनुभूत कर सकेगा।
पुस्तक -
📖 - गहना कर्मणो गतिः (कर्मफ़ल का सिद्धांत) जरूर पढ़ें।
🙏🏻 श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन
(हमें भगवान ने अपना वकील नहीं बनाया है, और न ही हम भगवान की पैरवी कर रहे है। हम बस तथ्य तर्क और प्रमाण से पूंछे गए प्रश्नों का जवाब देते है, जो सत्य है वो समक्ष रखते है।)
उत्तर - भाई यह प्रश्न प्रत्येक मनुष्य के अंदर है। कोई पूँछता है और कोई नहीं...
(पोस्ट लम्बी है क्योंकि प्रश्न गूढ़ है, उत्तर चाहते हो तो जरूर पढ़िये...)
भगवान बुद्ध कहते हैं- *संसार दुःखमय है। ब्रह्म सत्य और जगत मिथ्या।*
नानक जी कहते हैं- *नानक दुखिया सब संसारा है। नश्वर संसार, शाश्वत ब्रह्म।*
तुलसीदास जी कहते है- *कर्मप्रधान विश्व करि राखा, जो जस करई सो तस फ़ल चाखा।*
दूसरी तरफ़ लिखते है:- *विधिकर लिखा को मेटन हारा*
शंकराचार्य कहते हैं- *संसार आनन्दस्वरूप है, ब्रह्म सत्य है तो उसकी अभिव्यक्ति संसार भी सत्य है।*
युगऋषि पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य जी कहते हैं- *मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है। और कर्म की गति गहन है। बोया काटा सिद्धांत है।*
कन्फ़्यूज़ हो गए न, यदि आनन्दस्वरूप सत्य है तो संसार दुःखमय कैसे हुआ? यदि कर्म प्रधान विश्व है तो विधि का लिखा को मेटनहारा बात कैसे सत्य है? यदि ब्रह्म सत्य है तो उसकी अभिव्यक्ति संसार मिथ्या कैसे हुआ? सूर्य सत्य है तो उसकी किरण भी सत्य हुई न? अगर हम भाग्य विधाता है, तो फिर परमात्मा क्या रोल हुआ भाई? हम भगवान को क्यों पूजे यदि हम स्वयं ही विधाता है? इत्यादि इत्यादि...Too much confusion...😭😭😭😭
मन चीखता चिल्ल्लाता है अरे कोई तो बताओ सत्य क्या है? सबके सत्य का वर्जन अलग क्यों है? एक हाल के बच्चे जिसके दिल मे छेद है उसने कौन सा कर्म गलत किया? किसी का युवा बेटा मर गया? किसी की बेटी को दहेज के लिए जिंदा जला दिया? गर्भ में बच्चा मर गया या जबरन भ्रूण हत्या? धर्म परिवर्तन के नाम पर करोङो बेगुनाहों का मर्डर, बत्तख, मुर्गी और बकरों के परिवार ने क्या कर्म बुरा किया जो रोज उनका मर्डर किया जाता है और उनकी लाशों को पकाकर खाया जाता है? इत्यादि इत्यादि...अगर यह सब भगवान की लीला है, हरि इच्छा से है.... तो इस लीला में इतना दर्द परेशानी दुःख क्योँ?😭😭😭😭 मैं भगवान की इतनी पूजा करती या करता हूँ फिर भी मेरे दुःखों परेशानियों का अंत नहीं हो रहा....मेरा तो भगवान पर से भरोसा उठ गया इत्यादि इत्यादि भाव अधिकतर लोगों के मन मे आते है..मेरे पापा या मम्मी बहुत पूजा करती थी फिर भी उनकी अकाल मृत्यु हो गयी...बहुत कुछ गुस्सा बहुत हृदय में भरा है??
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अब थोड़ा ठहरो! ज़रा सोचो! यदि तुम्हारे चार पुत्र होते, सभी विपरीत स्वभाव के होते, कोई अच्छा या कोई बुरा भी तो तुम उन सबकी किस्मत कैसी लिखते?
सबकी समान एक जैसी ही लिखते, भले ही कोई सन्तान आपको गाली ही क्यों न देती हो। सही कहा न...सहमत हो न...
लेकिन अब थोड़ा रोल चेंज करते है, बच्चो से प्यार आपका अब भी है, लेकिन आप जज की कुर्सी पर हो। आपके पुत्र के ऊपर मर्डर का अभियोग है, दलील सुनने के बाद उसे फांसी की सजा देनी पड़ी । अब क्या करोगे? दण्ड देना पड़ेगा है न...सहमत हो न मेरी बात से...
क्या जज की कुर्सी पर बैठा पिता पुत्र से प्रेम नहीं करता? क्या वो फाँसी की सज़ा जज रूपी पिता ने उसकी किस्मत में लिखी या उस पुत्र ने अपने कर्मों से फाँसी की सज़ा स्वयं के लिए लिखी?
कन्फ़्यूज़ हो गए? अब यहां मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है, बोया काटा सिद्धांत, कर्म प्रधान जग और पुत्र के लिए संसार दुःखमय सबकुछ सत्य है। विधि का लेखा वाली बात भी सत्य है कि क्योंकि सज़ा का एलान कर्मफ़ल के अनुसार जज ही करेगा।
अब पूजा पाठ या अध्यात्म की शरण क्यों ले?
पापकर्म के एवज़ में उतने ही अमाउंट का पुण्यकर्म अदा करते है तो सज़ा कम होगी कि नहीं? जज विभिन्न कर्मो के अनुसार विभिन्न टाइप की सज़ा देता है। अब मान लो आपके हाथों किसी की गाड़ी डेमेज हो गयी, जज आपका पिता है, जुर्माना भी जज लगाएगा। लेकिन आप के पास इतने पैसे नहीं कि जुर्माना भर सको। तब जज की कुर्सी में बैठा पिता सज़ा देगा। घर आने पर आपके प्रार्थना करने पर वो जुर्माने का पैसा आपको देगा। साथ ही वो पैसा आपको कमा के चुकाना भी पड़ेगा।
कर्म करोगे तो उसका परिणाम भुगतना पड़ेगा। जज पिता प्यार का साग़र होने के बावजूद न्यायकारी होने के कारण दण्ड भी देगा।
कुछ शरीर और जीवों का शरीर केवल कर्मफ़ल भुगतने के लिए मिला है, यहां लिमिटेड जिंदगी का टाइप सेट है। जैसे पशु पक्षी कीट पतंगे, जलचर-नभचर इत्यादि। लेकिन कुछ मनुष्य शरीर कर्मफ़ल भुगतने के साथ साथ नए कर्मफ़ल भी क्रिएट कर सकता है और कुछ मनुष्य शरीर केवल कर्मफ़ल भुगत के विदा हो जाते है।
मनुष्य की तीन उम्र है- एक शरीर की उम्र, एक मानसिकता/बुद्धि की परिपक्वता की उम्र(कोई पचास वर्ष का व्यक्ति बालकबुद्धि हो सकता है, कोई 10 वर्ष का बालक 50 वर्षीय मानसिकता/बुद्धि परिपक्वता रख सकता है) और तीसरी आत्मा की उम्र।
अतः यदि बालक शरीर है और कष्ट उतपन्न है। तो भी आत्मा की उम्र नहीं घटती और न बढ़ती है।
नरसंघार धर्म परिवर्तन के नाम पर जो कर रहे है या जिनका हो रहा है, आपकी दृष्टि में हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई है। लेकिन भगवान की दृष्टि में केवल मर्डर और कुकृत्य है। उतना ही जघन्य अपराध है जितना मुर्गी या बकरे का कत्ल। आत्मा के लेवल पर दोनों समान है। धर्म का बंटवारा और नामकरण इंसान ने किया है भगवान ने नहीं।
अब आप बोलोगे फिर तो शेर को भी शिकार का पाप लगेगा। अगेन आप स्थूल दृष्टि से न्याय को देख रहे हो। उसे भोग शरीर मिला है वो अन्न या घास नहीं खा सकता। वो मांस पकाकर नहीं खाता। बीमार या वृद्ध होने पर कोई सेवा नहीं मिलेगी, भूखे महीनों सड़ सड़कर वृद्ध जीवित शेर मरता है। मनुष्य से उसकी तुलना मत करो, जिसे बुद्धि मिली है, भोग के साथ कर्म शरीर मिला है अनन्त संभावना के साथ मिला है।
यदि खाने को कुछ नहीं, मौत समक्ष हो तो पशुवत शिकार कर खाने में पाप नहीं लगेगा। क्योंकि कर्म(action) पर दण्ड नहीं मिलता, किस भावना(intention) से कर्म किया गया उसपर फल मिलेगा।
अच्छा यह बताओ कि तुम क्या हो? शरीर या आत्मा? यदि स्वयं को शरीर समझते हो तो संसार दुःखमय है, यदि स्वयं को आत्मा समझते हो तो संसार आनन्दस्वरूप है। क्योंकि आत्मा रूप में तुम उस परमात्मा का ही तो अंश हो। जिस प्रकार पुत्र पिता का अंश हुआ।
अब चलो किसी के मरने पर दुःख का एनालिसिस करते है? एक वृद्ध पिता 5 साल से बिस्तर पर पड़ा था, जिसकी कोई कमाई नही थी, उसकी मृत्यु हुई। सुखी होंगे या दुःखी?
एक बच्चा जो जन्मा था वो मर गया, अब सुखी होंगे या दुःखी?
एक जीवनसाथी जिससे नफरत करते थे, शक्ल देखना पसंद नहीं करते थे, वो मर गया/गयी, तो सुखी होंगे या दुःखी?
एक जीवनसाथी जिससे बेइंतहा प्रेम करते थे, शक्ल देखे बिना चैन नहीं था, वो मर गया/गयी, तो सुखी होंगे या दुःखी?
एक आवारा युवा लड़का जो माता-बाप पर बोझ था, बदनामी का कारण था, निर्लज्ज था। उसकी मौत हो गयी, माता पिता को कितना दुःख होगा?
एक आज्ञा कारी सुशील युवा लड़का जो माता-बाप की सेवा करता था, गर्व का कारण था, सज्जनपुरुष था। उसकी मौत हो गयी, माता पिता को कितना दुःख होगा?
इंसान आये दिन कितने एक्सिडेंट देखता है, कितने क्षण दुःखी होता है?
वास्तव में इंसान स्वार्थी होता है, केवल अपनों की मौत पर शोक ग्रस्त दुःखी होता है। अपनों में भी उसके लिए ज्यादा दुःखी होता है जिसको वो मुहब्बत/प्रेम करता है। जिस पर उसकी उम्मीदें टिकी हो या जिसने उसका कभी भला किया हो, केवल उसी के लिए आँशु बहाता है। एक ही घटना पर समान दुःख नहीं होता, हृदय की भावना दुःख का अनुपात तय करती है।
लेकिन परमात्मा उस मुर्गे बकरी के दर्द और मौत में भी उतना ही दुःखी होता है जितना एक इंसान की मौत और दर्द में। क्योंकि तुम्हारी दृष्टि शरीर तक है, तुम शरीर रूपी वस्त्र से पहचान करते हो, परमात्मा तो आत्मा को देखता है। आत्मा तो इंसान के शरीर मे हो या मुर्गी या बकरे के शरीर में निज कर्मफ़ल ही भुगत रही है। न्यायाधीश परमात्मा जो सभी बच्चो से प्यार करता है, उसे न्याय करना पड़ता है। यह न्याय व्यवस्था आत्मा पर आधारित है।
शरीर को सबकुछ समझने वाले और स्वयं के आत्मस्वरूप होने से अंजान, स्वयं ही भाग्य के विधाता है। यह जो नहीं मानता या जानता, उसके लिए ही यह संसार दुःखमय है। जो स्वयं को आत्मस्वरूप जानकर निज के विधाता स्वरूप को पहचान कर आत्म उत्थान में अग्रसर है। उसके लिए यह संसार आनन्दस्वरूप है। वही कण कण में परमात्मा को अनुभूत कर सकेगा।
पुस्तक -
📖 - गहना कर्मणो गतिः (कर्मफ़ल का सिद्धांत) जरूर पढ़ें।
🙏🏻 श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन
(हमें भगवान ने अपना वकील नहीं बनाया है, और न ही हम भगवान की पैरवी कर रहे है। हम बस तथ्य तर्क और प्रमाण से पूंछे गए प्रश्नों का जवाब देते है, जो सत्य है वो समक्ष रखते है।)
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