प्रश्न - *दी, ऐसा क्यों होता है कि शान्तिकुंज जब आओ तो साधना में बड़ा मन लगता है। वहां मन सङ्कल्प में बंधता है कि अब तो नियमित ऐसे ही साधना करूंगा। लेकिन घर आते ही मन संसार में रम जाता है। घर में एक घण्टे की पूजा भी कठिनाई से होती है।*
उत्तर - आत्मीय भाई, मन एक मख्खी की तरह होता है। यदि उसे मिठाई की दुकान में रख दो तो वो मिठाई का पूरा रस लेता है। यदि उसे गन्दगी में रख दो तो वो उतनी ही निष्ठा से गन्दगी में भी रस लेता है।
इसी तरह जब तुम शान्तिकुंज, हरिद्वार रूपी दिव्य वातावरण में पहुंचते हो मन वहां की दिव्यता में रमने लगता है। वह 40 माला जपने को सहज तैयार हो जाता है और घण्टों ध्यान में व्यवधान उतपन्न नहीं करता। लेकिन जैसे ही संसार में घर मे वापस आते हो। टीवी मोबाइल इत्यादि सांसारिक मनोरंजन में भी रमने लगता है। आलस्य में रमने लगता है।
मन को दृढ़ संकल्पों से चंदन बना दो तो संसार का विष नहीं चढ़ेगा। मन को साधना और संस्कारो से रूपांतरित करके मक्खी से मधुमक्खी बना दो तो मन कहीं भी रहे साधना का ही रस पान करेगा। मधुमक्खी मर जाएगी लेकिन गन्दगी का पान नहीं करेगी, वो केवल और केवल पुष्प रस ही पीयेगी और लोककल्याण हेतु शहद ही बनाएगी।
भगवान श्रीकृष्ण ने गीता सन्देश में *अभ्यास और वैराग्य* द्वारा मन साधने की विधि बताई है।
यदि मन नहीं साधा, तो इंद्रियां मन पर हावी होकर तृप्ति मांगेगी, उसे गन्दगी की दलदल में खींचकर गन्दगी का अभ्यस्त बना देंगी। मन गन्दगी में रस लेने लगेगा। फ़िर ऐसी स्थिति में इंसान श्रेष्ठता भूल जाता है, और निम्न परिस्थिति में ही रमा रहता है।
अतः मन की मक्खी वाली आदत को समझने वाले युगऋषि ने मन को साधने हेतु नित्य दो वक्त उपासना-साधना-आराधना जिसे गायत्री संध्या कहते हैं करने की सलाह दिया है। जिससे मन प्रत्येक 12 घण्टे में दिव्यता से तृप्त हो जाए और निम्नता की ओर न जाये, घर से ख़ाकर पेट भरा हो और मन तृप्त हो तो बाहर कोई कुछ ऑफर करे तो खाने की इच्छा नहीं होगी।
मन को साधने में शुरू शुरू में कठिनाई होती है, लेकिन सर्कस के जानवरों की तरह मन को एक ही तरह से ट्रेनिंग नित्य देने पर, अभ्यस्त हो जाने पर यही साधना घर मे भी सहज होने लगती है। शान्तिकुंज आपके मन मे ही बस जाता है, आप चाहे स्थूल रूप मे जहां भी रहो, मन से शान्तिकुंज में ही रहोगे।
🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन
उत्तर - आत्मीय भाई, मन एक मख्खी की तरह होता है। यदि उसे मिठाई की दुकान में रख दो तो वो मिठाई का पूरा रस लेता है। यदि उसे गन्दगी में रख दो तो वो उतनी ही निष्ठा से गन्दगी में भी रस लेता है।
इसी तरह जब तुम शान्तिकुंज, हरिद्वार रूपी दिव्य वातावरण में पहुंचते हो मन वहां की दिव्यता में रमने लगता है। वह 40 माला जपने को सहज तैयार हो जाता है और घण्टों ध्यान में व्यवधान उतपन्न नहीं करता। लेकिन जैसे ही संसार में घर मे वापस आते हो। टीवी मोबाइल इत्यादि सांसारिक मनोरंजन में भी रमने लगता है। आलस्य में रमने लगता है।
मन को दृढ़ संकल्पों से चंदन बना दो तो संसार का विष नहीं चढ़ेगा। मन को साधना और संस्कारो से रूपांतरित करके मक्खी से मधुमक्खी बना दो तो मन कहीं भी रहे साधना का ही रस पान करेगा। मधुमक्खी मर जाएगी लेकिन गन्दगी का पान नहीं करेगी, वो केवल और केवल पुष्प रस ही पीयेगी और लोककल्याण हेतु शहद ही बनाएगी।
भगवान श्रीकृष्ण ने गीता सन्देश में *अभ्यास और वैराग्य* द्वारा मन साधने की विधि बताई है।
यदि मन नहीं साधा, तो इंद्रियां मन पर हावी होकर तृप्ति मांगेगी, उसे गन्दगी की दलदल में खींचकर गन्दगी का अभ्यस्त बना देंगी। मन गन्दगी में रस लेने लगेगा। फ़िर ऐसी स्थिति में इंसान श्रेष्ठता भूल जाता है, और निम्न परिस्थिति में ही रमा रहता है।
अतः मन की मक्खी वाली आदत को समझने वाले युगऋषि ने मन को साधने हेतु नित्य दो वक्त उपासना-साधना-आराधना जिसे गायत्री संध्या कहते हैं करने की सलाह दिया है। जिससे मन प्रत्येक 12 घण्टे में दिव्यता से तृप्त हो जाए और निम्नता की ओर न जाये, घर से ख़ाकर पेट भरा हो और मन तृप्त हो तो बाहर कोई कुछ ऑफर करे तो खाने की इच्छा नहीं होगी।
मन को साधने में शुरू शुरू में कठिनाई होती है, लेकिन सर्कस के जानवरों की तरह मन को एक ही तरह से ट्रेनिंग नित्य देने पर, अभ्यस्त हो जाने पर यही साधना घर मे भी सहज होने लगती है। शान्तिकुंज आपके मन मे ही बस जाता है, आप चाहे स्थूल रूप मे जहां भी रहो, मन से शान्तिकुंज में ही रहोगे।
🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन
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