प्रश्न - *श्वेता दी, इन सब में क्या भाव होना श्रेष्ट है?* 👇👇
" *जैसे जॉब करना, विवाह करना, प्रेम करना, बच्चे पैदा करना और उनका पालन पोषण, बच्चो की शिक्षा दीक्षा, उन्हें योग्य बनाना, घर सम्हालना, उपासना, समाजसेवा इत्यादि। अब इन समस्त कार्यों के केंद्र में कौन सा भाव केंद्रित है वो जीवन का परिणाम तय करता है*।"
उत्तर - आत्मीय बहन, इस प्रश्न का उत्तर समझने के लिए आपको भाव साधना के बेसिक्स समझने होंगे।
सही साधनामय जीवन के लिए भावों को साधना बहुत महत्त्वपूर्ण है। भगवान की सभी तप की विधियों, कर्मकांड, साधना में भी भाव ही सबसे महत्वपूर्ण है। हमारे भाव बहुत ताकतवर होते हैं। वे हमें और दूसरों के प्रति हमारी सोच को पूरी तरह बदलने की ताकत रखते हैं। अंसत के भाव हमें ठीक वैसे ही डुबो देते हैं, जैसे वर्षा सद्गजगत को। हममें किसी के प्रति क्रोध का भाव हो, तो पहली बार उसका प्रभाव उतना नहीं होता, जितना दूसरी बार। हर बार उसकी तीव्रता बढ़ती जाती है। हम उसके जाल में ऐसे फंस जाते हैं कि उसे काबू करने की जगह उसके काबू में हो जाते हैं। धीरे-धीरे उसका प्रभाव और तीव्रता, हमारे विवेक और व्यक्तित्व पर पूरी तरह छा जाती है। नकारात्मक भाव हमारे मन का सहारा पाकर जीवित रहे आते हैं। पर यह बात यहां खत्म नहीं होती। जो हमारा भाव है, वही अब दूसरे का भी जाता है। जो गुस्सा पैदा हममें हुआ था, वह अब दूसरे का भी हिस्सा बन जाता है। पर हम जो देते हैं, वह वापिस लेना नहीं चाहते। क्योंकि हमें अपना गुस्सा सही और दूसरे का गलत लगता है।
हमारी भगवान की साधना कितनी भी सशक्त क्यों न हो, जब तक यह नकारात्मक भाव पीछा नहीं छोड़ते, तब तक लक्ष्य पर पहुंचना संभव नहीं होगा। हमारा लक्ष्य है आंतरिक सुख और ज्ञानलोक के स्रोत को ढूंढ़ना, पर उसे पाने के लिए भावों को साधना जरूरी होगा।
हमें अपने अंतर में वह भाव जगाने होंगे, जिन्हें हम दूसरों से पाना चाहते हैं। हमें यह मानना पड़ेगा कि जो हम दूसरों को देते हैं, वह हम तक लौटकर जरूर आयेगा।
ब्रह्माण्ड की शक्तियों से जुड़ने के लिए ही भाव ही एक मात्र उपाय है। भावनाएं परिणाम बदल देती हैं।
तुलसीदास जी कहते हैं:-
*जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत तिन देखी तैसी।*
हम सभी एक ही प्रकार के एटम से बनें हैं, आपस में भावों के माध्यम से और घनिष्ठता से जुड़ जाते हैं। मूर्ति पत्थर की भगवान तब बनती है जब मनुष्य में उसके प्रति भगवान की भावना की प्राण प्रतिष्ठा होती है।
जब पत्थर की मूर्ति में ईश्वर भावनात्मक प्राणप्रतिष्ठा की अनुभूति संभव है, फ़िर उस ईश्वर की भावनात्मक प्राणप्रतिष्ठा एक जीवित इंसान में करके उस अनुभूति से क्यों नहीं जुड़ा जा सकता। भारत की प्राचीन ऋषि पत्नियां भगवान की भावनात्मक प्राण प्रतिष्ठा अपने पतियों में कर देती थीं। उनके भाव निष्ठ सतीत्व के आगे ब्रह्मा-विष्णु-महेश नतमस्तक हो जाते थे।
यदि आपको कोई एक लड्डू दे तो उसे आप जस्ट मिठाई समझ के खाएंगे। लेकिन यदि वही लड्डू भगवान का प्रसाद बोलकर दिया जाय तो आप एक हाथ के ऊपर दूसरा हाथ रखकर उसे ग्रहण करेंगे और भगवान का आशीर्वाद समझकर खाएंगे। उसका असर आप में दिखेगा।
उच्च और अच्छे भाव से भोजन करेंगे तो इसकी ऊर्जा शरीर पर लगेगा, हीन भाव से किया भोजन उर्जाविहीन हो जाएगा। इसी तरह मानव जगत से जिस भाव से रिश्ते बनाएंगे वैसे परिणाम पाएंगे।
🙏🏻🙏🏻🙏🏻
*ऐसे भाव साधें - जॉब-व्यवसाय भगवान के लिए कर रहे हैं , विवाह में ईश्वरीय शक्ति से विवाह हो रहा है यह भाव बनाएं, प्रेम आप प्रकृति के कण कण से करें क्योंकि यह क़ण कण में उपस्थित परमात्मा से प्रेम कर रहे हो, बच्चे पैदा करना और उनका पालन पोषण भगवान की इस सृष्टि का अभिन्न अंग बनकर कर रहे हो, बच्चो की शिक्षा दीक्षा वास्तव में भगवान के सृष्टि में सहयोग हेतु कुशल इंसान गढ़ने में सहयोग कर रहे हो , उन्हें योग्य बनाकर ईश्वर की सेवा कर रहे हो, घर भगवान का मंदिर है इसे सम्हालना ईश्वर की आराधना है, उपासना भगवान की, साधना स्वयं की, समाजसेवा भगवान की आराधना करना है, इत्यादि। अब इन समस्त कार्यों के केंद्र में भगवत भक्ति का भाव केंद्रित है, यह जीवन का प्रत्येक कार्य ईश्वरीय निमित्त बनकर करना। कुछ भी करने से पहले भगवान का स्मरण करना और भगवान की साक्षी में कार्य करना। भाव बदलते ही जीवन बदल जायेगा*।
पुस्तक - *भाव सम्वेदना की गंगोत्री* अवश्य पढ़ें
🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन
" *जैसे जॉब करना, विवाह करना, प्रेम करना, बच्चे पैदा करना और उनका पालन पोषण, बच्चो की शिक्षा दीक्षा, उन्हें योग्य बनाना, घर सम्हालना, उपासना, समाजसेवा इत्यादि। अब इन समस्त कार्यों के केंद्र में कौन सा भाव केंद्रित है वो जीवन का परिणाम तय करता है*।"
उत्तर - आत्मीय बहन, इस प्रश्न का उत्तर समझने के लिए आपको भाव साधना के बेसिक्स समझने होंगे।
सही साधनामय जीवन के लिए भावों को साधना बहुत महत्त्वपूर्ण है। भगवान की सभी तप की विधियों, कर्मकांड, साधना में भी भाव ही सबसे महत्वपूर्ण है। हमारे भाव बहुत ताकतवर होते हैं। वे हमें और दूसरों के प्रति हमारी सोच को पूरी तरह बदलने की ताकत रखते हैं। अंसत के भाव हमें ठीक वैसे ही डुबो देते हैं, जैसे वर्षा सद्गजगत को। हममें किसी के प्रति क्रोध का भाव हो, तो पहली बार उसका प्रभाव उतना नहीं होता, जितना दूसरी बार। हर बार उसकी तीव्रता बढ़ती जाती है। हम उसके जाल में ऐसे फंस जाते हैं कि उसे काबू करने की जगह उसके काबू में हो जाते हैं। धीरे-धीरे उसका प्रभाव और तीव्रता, हमारे विवेक और व्यक्तित्व पर पूरी तरह छा जाती है। नकारात्मक भाव हमारे मन का सहारा पाकर जीवित रहे आते हैं। पर यह बात यहां खत्म नहीं होती। जो हमारा भाव है, वही अब दूसरे का भी जाता है। जो गुस्सा पैदा हममें हुआ था, वह अब दूसरे का भी हिस्सा बन जाता है। पर हम जो देते हैं, वह वापिस लेना नहीं चाहते। क्योंकि हमें अपना गुस्सा सही और दूसरे का गलत लगता है।
हमारी भगवान की साधना कितनी भी सशक्त क्यों न हो, जब तक यह नकारात्मक भाव पीछा नहीं छोड़ते, तब तक लक्ष्य पर पहुंचना संभव नहीं होगा। हमारा लक्ष्य है आंतरिक सुख और ज्ञानलोक के स्रोत को ढूंढ़ना, पर उसे पाने के लिए भावों को साधना जरूरी होगा।
हमें अपने अंतर में वह भाव जगाने होंगे, जिन्हें हम दूसरों से पाना चाहते हैं। हमें यह मानना पड़ेगा कि जो हम दूसरों को देते हैं, वह हम तक लौटकर जरूर आयेगा।
ब्रह्माण्ड की शक्तियों से जुड़ने के लिए ही भाव ही एक मात्र उपाय है। भावनाएं परिणाम बदल देती हैं।
तुलसीदास जी कहते हैं:-
*जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत तिन देखी तैसी।*
हम सभी एक ही प्रकार के एटम से बनें हैं, आपस में भावों के माध्यम से और घनिष्ठता से जुड़ जाते हैं। मूर्ति पत्थर की भगवान तब बनती है जब मनुष्य में उसके प्रति भगवान की भावना की प्राण प्रतिष्ठा होती है।
जब पत्थर की मूर्ति में ईश्वर भावनात्मक प्राणप्रतिष्ठा की अनुभूति संभव है, फ़िर उस ईश्वर की भावनात्मक प्राणप्रतिष्ठा एक जीवित इंसान में करके उस अनुभूति से क्यों नहीं जुड़ा जा सकता। भारत की प्राचीन ऋषि पत्नियां भगवान की भावनात्मक प्राण प्रतिष्ठा अपने पतियों में कर देती थीं। उनके भाव निष्ठ सतीत्व के आगे ब्रह्मा-विष्णु-महेश नतमस्तक हो जाते थे।
यदि आपको कोई एक लड्डू दे तो उसे आप जस्ट मिठाई समझ के खाएंगे। लेकिन यदि वही लड्डू भगवान का प्रसाद बोलकर दिया जाय तो आप एक हाथ के ऊपर दूसरा हाथ रखकर उसे ग्रहण करेंगे और भगवान का आशीर्वाद समझकर खाएंगे। उसका असर आप में दिखेगा।
उच्च और अच्छे भाव से भोजन करेंगे तो इसकी ऊर्जा शरीर पर लगेगा, हीन भाव से किया भोजन उर्जाविहीन हो जाएगा। इसी तरह मानव जगत से जिस भाव से रिश्ते बनाएंगे वैसे परिणाम पाएंगे।
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*ऐसे भाव साधें - जॉब-व्यवसाय भगवान के लिए कर रहे हैं , विवाह में ईश्वरीय शक्ति से विवाह हो रहा है यह भाव बनाएं, प्रेम आप प्रकृति के कण कण से करें क्योंकि यह क़ण कण में उपस्थित परमात्मा से प्रेम कर रहे हो, बच्चे पैदा करना और उनका पालन पोषण भगवान की इस सृष्टि का अभिन्न अंग बनकर कर रहे हो, बच्चो की शिक्षा दीक्षा वास्तव में भगवान के सृष्टि में सहयोग हेतु कुशल इंसान गढ़ने में सहयोग कर रहे हो , उन्हें योग्य बनाकर ईश्वर की सेवा कर रहे हो, घर भगवान का मंदिर है इसे सम्हालना ईश्वर की आराधना है, उपासना भगवान की, साधना स्वयं की, समाजसेवा भगवान की आराधना करना है, इत्यादि। अब इन समस्त कार्यों के केंद्र में भगवत भक्ति का भाव केंद्रित है, यह जीवन का प्रत्येक कार्य ईश्वरीय निमित्त बनकर करना। कुछ भी करने से पहले भगवान का स्मरण करना और भगवान की साक्षी में कार्य करना। भाव बदलते ही जीवन बदल जायेगा*।
पुस्तक - *भाव सम्वेदना की गंगोत्री* अवश्य पढ़ें
🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन
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