प्रश्न - *वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था में क्या अंतर है? इसके बारे में बताइये*
उत्तर - आत्मीय भाई, जिस प्रकार घर में सभी परिवार के सदस्य घर की व्यवस्था सम्हालने हेतु अलग अलग कार्य करते हैं, जैसे कोई रसोईघर सम्हालता है, तो कोई आध्यात्मिक गतिविधियों में बढ़चढ़ हिस्सा लेता है, कोई घर की साफ सफ़ाई करता है, तो कोई कमाई घर से बाहर जाकर करता है। अलग अलग कर्म करने से परिवार के सदस्य की जाति अलग नहीं हो जाती। रसोईं में काम करने वाला घर की सफाई करने वाले से श्रेष्ठ नहीं हुआ। काम(कर्म) तो काम(कर्म) है।
इसी तरह कम्पनी को चलाने के लिए अलग अलग विभाग होते हैं, जैसे HR, Finance, Admin, Development, Reception etc.
इसी तरह देश-समाज की व्यवस्था सम्हालने के लिए वर्ण व्यवस्था अर्थात कार्य डिपार्टमेंट कर्म आधारित निर्धारित बनाये गए। हिंदू धर्म-ग्रंथों के अनुसार समाज को चार वर्णों के कार्यो से समाज का स्थाईत्व दिया गया हैै - ब्राह्मण (शिक्षाविद), क्षत्रिय (सुरक्षाकर्मी), वैश्य (वाणिज्य) और शूद्र (उद्योग व कला) ।
इसमे सभी वर्ण को उनके कर्म मे श्रेष्ठ माना गया है।शिक्षा के लिए ब्राह्मण श्रेष्ठ, सुरक्षा करने मे क्षत्रिय श्रेेष्ठ, वैश्य व शूद्र उद्योग करने मे श्रेेष्ठ । वैश्य व शूद्र वर्ण को बाकी सब वर्ण को पालन करने के लिए राष्ट्र का आधारभूत संरचना उद्योग व कला (कारीगर) करने का प्रावधान इन धर्म ग्रंथो मे किया गया है।सेवा राष्ट्र का कारक है , उदाहरण केे लिए सभी देश का आधार सेवा कर है।
दुर्बुद्धि जन्य प्रभावशाली व्यक्तियों ने सोचा कि इस व्यवस्था को जन्म आधारित बना देते हैं, जिससे हमारे बच्चे ऐश कर सकें। साथ ही उन्होंने अपने गुणों और कार्यकुशलता का हस्तांतरण अपनो के बीच ही करना शुरू कर दिया और अन्य लोगों को वो ज्ञान देना बंद कर दिया। इस तरह जन्म हुआ जाति व्यवस्था का। इसमें सबकुछ जन्म आधारित कर दिया गया। धर्मग्रंथों में मनमाना संशोधन किया, जन्म आधारित जाति को सही साबित करने के लिए साम-दाम-दण्ड-भेद का सहारा लिया गया। ग्रन्थ पर ग्रन्थ लिखे गए। मित्र समूहों में विवाह परम्परा विकसित की गई। जाति-उपजाति की मनमाना नामकरण हुआ।
कोई झूठ हजारों बार बोला जाय तो उस झूठ को लोग सत्य मान लेते हैं। यह जाति प्रथा का कारण है।
फिंर धीरे धीरे लोगों ने जाति प्रथा को इसे अपनी जिंदगी का हिस्सा बना लिया। सबने अपनी अपनी धरोहर अपने अपने कुटुम्बियों को देना शुरू कर दिया।
आर्थिक रूप से पिछड़े लोग और पिछड़ते गए। अनपढ़ लोगों की पीढ़ियाँ भी अनपढ़ ही रह गयीं।
पूरी तरह से अवैज्ञानिक और आधारहीन रूढ़िवादी जातिप्रथा ने हिन्दू धर्म को जकड़ लिया। जिसका वेद पुराणों में जिक्र तक नहीं है। वो जाति प्रथा अवैज्ञानिक ही हुई। जब डॉक्टर के बेटा बिना पढ़े डॉक्टर नहीं बन सकता, शिक्षक का बेटा बिना पढ़े शिक्षक नहीं बन सकता। फ़िर जन्म के आधार पर किसी की जाति वर्ण कुल निर्धारित करना तो अवैज्ञानिक ही हुआ।
जो मित्रसमूह विवाह के लिए सरलता हेतु रचा गया था, उनमें भी स्वार्थप्रेरित कुबुद्धि छाई गई। फिंर शुरू हुआ दहेज़ प्रथा का कुचक्र और लड़कियों की दूर्गति।
रही सही कसर मुगलों के आक्रमण ने पूरी कर दी, उन आतताईयों से सुंदर स्त्रियों को बचाने के लिए पर्दा व्यवस्था भी शुरू हो गयी, उनका बाहर जाना भी प्रतिबंधित हो गया।
जितने भी भारत में जाति के सरनेम बोले जाते हैं उनका उल्लेख किसी भी धर्म ग्रन्थ में नहीं हैं।
वेदों और श्रीमद्भागवत गीता में भी वर्ण व्यवस्था वर्णित है।
पुस्तक - *भारतीय संस्कृति की रक्षा कीजिये* जरूर पढ़े
http://literature.awgp.org/book/bharatiya_sanskriti_ki_raksha_kijiye/v1.4
🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन
उत्तर - आत्मीय भाई, जिस प्रकार घर में सभी परिवार के सदस्य घर की व्यवस्था सम्हालने हेतु अलग अलग कार्य करते हैं, जैसे कोई रसोईघर सम्हालता है, तो कोई आध्यात्मिक गतिविधियों में बढ़चढ़ हिस्सा लेता है, कोई घर की साफ सफ़ाई करता है, तो कोई कमाई घर से बाहर जाकर करता है। अलग अलग कर्म करने से परिवार के सदस्य की जाति अलग नहीं हो जाती। रसोईं में काम करने वाला घर की सफाई करने वाले से श्रेष्ठ नहीं हुआ। काम(कर्म) तो काम(कर्म) है।
इसी तरह कम्पनी को चलाने के लिए अलग अलग विभाग होते हैं, जैसे HR, Finance, Admin, Development, Reception etc.
इसी तरह देश-समाज की व्यवस्था सम्हालने के लिए वर्ण व्यवस्था अर्थात कार्य डिपार्टमेंट कर्म आधारित निर्धारित बनाये गए। हिंदू धर्म-ग्रंथों के अनुसार समाज को चार वर्णों के कार्यो से समाज का स्थाईत्व दिया गया हैै - ब्राह्मण (शिक्षाविद), क्षत्रिय (सुरक्षाकर्मी), वैश्य (वाणिज्य) और शूद्र (उद्योग व कला) ।
इसमे सभी वर्ण को उनके कर्म मे श्रेष्ठ माना गया है।शिक्षा के लिए ब्राह्मण श्रेष्ठ, सुरक्षा करने मे क्षत्रिय श्रेेष्ठ, वैश्य व शूद्र उद्योग करने मे श्रेेष्ठ । वैश्य व शूद्र वर्ण को बाकी सब वर्ण को पालन करने के लिए राष्ट्र का आधारभूत संरचना उद्योग व कला (कारीगर) करने का प्रावधान इन धर्म ग्रंथो मे किया गया है।सेवा राष्ट्र का कारक है , उदाहरण केे लिए सभी देश का आधार सेवा कर है।
दुर्बुद्धि जन्य प्रभावशाली व्यक्तियों ने सोचा कि इस व्यवस्था को जन्म आधारित बना देते हैं, जिससे हमारे बच्चे ऐश कर सकें। साथ ही उन्होंने अपने गुणों और कार्यकुशलता का हस्तांतरण अपनो के बीच ही करना शुरू कर दिया और अन्य लोगों को वो ज्ञान देना बंद कर दिया। इस तरह जन्म हुआ जाति व्यवस्था का। इसमें सबकुछ जन्म आधारित कर दिया गया। धर्मग्रंथों में मनमाना संशोधन किया, जन्म आधारित जाति को सही साबित करने के लिए साम-दाम-दण्ड-भेद का सहारा लिया गया। ग्रन्थ पर ग्रन्थ लिखे गए। मित्र समूहों में विवाह परम्परा विकसित की गई। जाति-उपजाति की मनमाना नामकरण हुआ।
कोई झूठ हजारों बार बोला जाय तो उस झूठ को लोग सत्य मान लेते हैं। यह जाति प्रथा का कारण है।
फिंर धीरे धीरे लोगों ने जाति प्रथा को इसे अपनी जिंदगी का हिस्सा बना लिया। सबने अपनी अपनी धरोहर अपने अपने कुटुम्बियों को देना शुरू कर दिया।
आर्थिक रूप से पिछड़े लोग और पिछड़ते गए। अनपढ़ लोगों की पीढ़ियाँ भी अनपढ़ ही रह गयीं।
पूरी तरह से अवैज्ञानिक और आधारहीन रूढ़िवादी जातिप्रथा ने हिन्दू धर्म को जकड़ लिया। जिसका वेद पुराणों में जिक्र तक नहीं है। वो जाति प्रथा अवैज्ञानिक ही हुई। जब डॉक्टर के बेटा बिना पढ़े डॉक्टर नहीं बन सकता, शिक्षक का बेटा बिना पढ़े शिक्षक नहीं बन सकता। फ़िर जन्म के आधार पर किसी की जाति वर्ण कुल निर्धारित करना तो अवैज्ञानिक ही हुआ।
जो मित्रसमूह विवाह के लिए सरलता हेतु रचा गया था, उनमें भी स्वार्थप्रेरित कुबुद्धि छाई गई। फिंर शुरू हुआ दहेज़ प्रथा का कुचक्र और लड़कियों की दूर्गति।
रही सही कसर मुगलों के आक्रमण ने पूरी कर दी, उन आतताईयों से सुंदर स्त्रियों को बचाने के लिए पर्दा व्यवस्था भी शुरू हो गयी, उनका बाहर जाना भी प्रतिबंधित हो गया।
जितने भी भारत में जाति के सरनेम बोले जाते हैं उनका उल्लेख किसी भी धर्म ग्रन्थ में नहीं हैं।
वेदों और श्रीमद्भागवत गीता में भी वर्ण व्यवस्था वर्णित है।
पुस्तक - *भारतीय संस्कृति की रक्षा कीजिये* जरूर पढ़े
http://literature.awgp.org/book/bharatiya_sanskriti_ki_raksha_kijiye/v1.4
🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन
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