Tuesday 30 April 2019

प्रश्न - *स्वयं को स्वयं में कैसे खोजूँ? स्वयं ही स्वयं को कैसे जानूँ? मार्ग बतायें*

प्रश्न - *स्वयं को स्वयं में कैसे खोजूँ? स्वयं ही स्वयं को कैसे जानूँ? मार्ग बतायें*

उत्तर - आत्मीय बहन, स्वयं के शरीर को देखने के लिए दर्पण चाहिए। लेक़िन फिंर भी पूरा शरीर नहीं दिखता, दूसरा दर्पण चाहिए जो पीछे के शरीर को प्रतिबिंबित सामने वाले दर्पण में कर सके और हम अपनी सामने वाली आंखों से उसे देख सकें।

जब स्थूल शरीर को स्थूल आंखों से देखने में इतनी मशक्कत करनी पड़ती है, तो फ़िर सोचो सूक्ष्म शरीर को देखने मे कितनी मशक्कत करनी पड़ेगी। ऐसी हालत में जब सूक्ष्म नेत्र/अंतर्दृष्टि ही बन्द हों, तो तो देखना/जानना और भी असम्भव है।

एक प्रयोग करो, आँख बन्द कर लो और पट्टी बांधों। फिंर एक ग्लास जल पियो। देखो कि क्या बिना नेत्रों की सहायता के तुम जल पी पाती हो या नहीं। 100% पी लोगी।

दूसरे प्रयोग में - किसी से बोलो कि तुम्हें पीठ में चिकोटी काटे। दर्द के वक्त बिना देखे तुम बता सकती हो कि दर्द कहाँ हुआ। अर्थात स्वयं के स्थूल अस्तित्व से तुम परिचित हो, शरीर के प्रति चैतन्य हो।

तीसरा प्रयोग - किसी घटना के गहरे चिंतन में डूब जाओ, इतना डूब जाओ कि शरीर का ध्यान ही न रहे, उस वक्त कोई पानी पीने को दे तो आँख खुली हो तो भी तुम पानी नही पी पाओगी। पीठ में कोई चिकोटी काटे तो तुम दर्द भी महसूस नहीं कर पाओगी। यदि गहरे चिंतन में डूबे चाय पियोगी तो स्वाद ही महसूस न होगा।

अतः उपरोक्त उदाहरण से सिद्ध हुआ कि स्वयं का स्थूल शरीर, जगत भी तभी जाना और महसूस किया जा सकता है, जब हमारा ध्यान उस पर हो।

ध्यान एक तरह का धारदार चाकू है, जिससे ऑपेरशन भी किया जा सकता है और फ़ल-सब्जी इत्यादि कुछ भी काटा जा सकता है। ध्यान बिजनेस में जमाओगे तो वहां सफल होंगे, ध्यान पढ़ाई में लगाओगे तो वहां सफल होंगे, ध्यान घर गृहस्थी में लगाओगे वहां सफलता मिलेगी, ध्यान अध्यात्म में लगाओगे वहां सफलता मिलेगी। ध्यान अंतर्जगत में लगाओगे तो वहां भी 100% सफलता मिलेगी। ध्यान के साथ प्रयास का कर्म भी करना पड़ता है।

मेरी प्यारी बहना, ध्यान का नियम अंतर्जगत पर भी लागू हैं। तुम जो बाहर जगत की तरफ ध्यान दे रही हो उसे भीतर जगत की तरफ़ भी कुछ देर के लिए मोड़ दो।

दृश्य और दृष्टा कभी एक नहीं होते, यदि तुम मेरा मैसेज मोबाइल में देख रही हो, तो मोबाइल दृश्य है और तुम्हारी आंखे दृष्टा, दोनों अलग अलग हैं। लेकिन उपरोक्त तीन उदाहरण में हमने जाना कि यदि हमारा ध्यान न हो तो हम आंखों से देखकर भी नहीं देख सकते। अतः आंखे और ध्यान देने वाला दोनों अलग है। ध्यान देने वाला मन और आंख दो अलग हुए। अब थोड़ा मन पर ध्यान केंद्रित करो कि मन क्या सोच रहा है। अरे हम तो मन क्या बोलता है सुन सकते हैं, वो क्या कर रहा है जान सकते है। ओहो तो मन से परे भी कोई है। तो वो हम हैं। अच्छा जी अब समझ मे आया हम शरीर नहीं है, मन भी नहीं है। इन दोनों से ऊपर कुछ हैं जिसके कारण हम जीवित हैं।

सूक्ष्म जीवों को देखने के लिए सूक्ष्मदर्शी यंत्र चाहिए। इसी तरह सूक्ष्म जगत को देखने और अनुभव करने के लिए सूक्ष्म नेत्र/अंतर्दृष्टि चाहिए। जैसे स्थूल आंखों पर नियंत्रण है खोलने या बन्द करने का, वैसे ही आंख बंद करके सूक्ष्म नेत्रों को खोलने की कोशिश करो।

अब स्थूल आंख खोलनी हो तो अपने हाथों से तो हम खोलते नहीं, केवल सुबह नींद से उठते ही चैतन्यता आते है ध्यान नेत्र पर डालते है और भीतर ही भीतर उसे खोलने का आदेश देते हैं। बस अन्तर्जग में अंतर्दृष्टि भी ऐसे ही खुलेगी। आदेश दीजिये और ध्यान अन्तरनेत्रो में जमाइए खोलने की कोशिश कीजिये। बहुत दिनों से बन्द है, थोड़ी लगातार कई महीनों तक मेहनत करनी पड़ेगी। खुल जायेगा, फिंर अंतर्जगत में अन्तः करण के दर्पण में स्वयं को देखने और जानने की क्षमता मिल जाएगी।

बाहर से जब हम आते हैं तो घर में प्रवेश के बाद मुख्य द्वार बंद कर देते हैं। इसी तरह जब ध्यान में भीतर प्रवेश करेंगे तो बाह्य सभी मुख्य द्वार बंद कर देंगे, जैसे नेत्र, मुख, कर्ण इत्यादि। शरीर को स्थिर कर देंगे, फ़िर शुरुआत भीतर की ध्वनि सुनने से करेंगे। कुछ झींगुर के बोलने या सिटी जैसी धुन सुनेंगे। फिंर ध्यान दाहिने कान की तरफ शिफ्ट करके दाहिने कान से भीतर की ध्वनि सुनेंगे। फिंर ध्यान को सांस पर फोकस करेंगे, आती जाती श्वांस को पूरा अनुभूत करेंगे। सांस के चौकीदार बनेंगे। फिंर धीरे धीरे ध्यान अपने दोनों नेत्रों के बीच जहां स्त्रियां बिंदी लगाती हैं वहां केंद्रित करेंगे। यदि सरदर्द हो तो उस जगह पूर्णिमा के चांद का ध्यान धारणा करेंगे, यदि सर दर्द न हो तो उगते हुए सूर्य का ध्यान धारणा करेंगे। नित्य ध्यान धारणा करते करते अन्तरनेत्र सक्रिय होने लगेंगे और चयनित धारणा को देखने का प्रयास करेंगे। लगभग छह से सात महीनों में नित्य एक घण्टे बिना हिले डुले स्थिर चित्त से यह ध्यान करने पर अन्तर्जगत में सूर्य या चन्द्र जो भी ध्यान कर रहे होंगे दिखने लगेगा। अब जब अंतर्जगत में दृश्य क्लियर हो जाये अन्तरनेत्र खुल जाए तो उन अन्तरनेत्रो को आदेश दो कि स्वयं की आत्मज्योति/आत्मउर्जा के दर्शन करवाये जिसके कारण यह शरीर जीवित है।

जिन खोजा तिन पाइँया, गहरे पानी पैठ,
जिन खोजा तिन जानियाँ, गहरे ध्यान में बैठ।

मूर्ख वह है, जो यह जानना चाहता है कि अब तक कितनों को ज्ञान प्राप्त हुआ? बुद्धिमान वह है जो स्वयं के शरीर की प्रयोगशाला में प्रयोग करके स्वयं साबित करता है कि मुझे आत्म ज्ञान प्राप्त हुआ।

रिसर्च करने वाले ही रिसर्चर होते हैं, यही ऋषि कहलाते हैं। बिना आत्म रिसर्चर बने बिना मेहनत के आत्मज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता।

🙏🏻 श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन

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