प्रश्न - *शरदपूर्णिमा में कृष्ण महारास का रहस्य क्या है?*
उत्तर - यह अत्यंत गूढ़ प्रश्न है, इसका उत्तर समझने के लिए थोड़े विवेक की अत्यंत आवश्यकता है।
*रास* शब्द संस्कृत के *रस* शब्द से उत्तपन्न हुआ है। रस का शाब्दिक अर्थ है - निचोड़, तत्व-अर्क, आनन्द
एक प्रसिद्ध सूक्त है- *रसौ वै स:*। अर्थात् *वह परमात्मा ही रस रूप आनन्द है*।
*काव्य में जो आनन्द आता है वह ही काव्य का रस है*। काव्य में आने वाला आनन्द अर्थात् रस लौकिक न होकर अलौकिक होता है। रस काव्य की आत्मा है। संस्कृत में कहा गया है कि "रसात्मकम् वाक्यम् काव्यम्" अर्थात् रसयुक्त वाक्य ही काव्य है।
*रस अन्त:करण की वह शक्ति है*, जिसके कारण इन्द्रियाँ अपना कार्य करती हैं, मन कल्पना करता है, स्वप्न की स्मृति रहती है। रस आनंद रूप है और यही आनंद विशाल का, विराट का अनुभव भी है। यही आनंद अन्य सभी अनुभवों का अतिक्रमण भी है। आदमी इन्द्रियों पर संयम करता है, तो विषयों से अपने आप हट जाता है। परंतु उन विषयों के प्रति लगाव नहीं छूटता। रस का प्रयोग सार तत्त्व के अर्थ में चरक, सुश्रुत में मिलता है। दूसरे अर्थ में, अवयव तत्त्व के रूप में मिलता है। सब कुछ नष्ट हो जाय, व्यर्थ हो जाय पर जो भाव रूप तथा वस्तु रूप में बचा रहे, वही रस है। रस के रूप में जिसकी निष्पत्ति होती है, वह भाव ही है। जब रस बन जाता है, तो भाव नहीं रहता। केवल रस रहता है। उसकी भावता अपना रूपांतर कर लेती है। रस अपूर्व की उत्पत्ति है।
किसी भी फ़ल या सब्जी का निचोड़ रस होता है, भक्त की भक्ति का निचोड़ रस ही रास - आनन्द होता है।
भगवान कृष्ण 16 कलाओं के अवतार थे, समस्त गोपियाँ पुराने जन्मों के ऋषिगण थे जो कृष्ण को तत्व से जानना चाहते थे। कृष्ण की 16 कलाओं की खूबी में डूब जाना चाहते थे। भगवान कृष्ण ने उनकी मनोकामना पूर्ति के लिए शरद पूर्णिमा का दिन चुना क्योंकि इस दिन रसाधिपति अमृतत्वाय चन्द्र भी 16 कलाओं में होता है और उसकी चाँदनी में पूर्ण 16 कलाओं का प्रकटीकरण करना था।
चन्द्रोदय के साथ ही उन्होंने *क्लीं* बीज मंत्र युक्त बांसुरी से ध्वनियों की राग छेड़ी। क्लीं बीज मंत्र असुरों व आसुरी शक्ति से वृन्दावन को सुरक्षा चक्र में आच्छादित कर दिया। सभी गोपिकाओं के हृदय में और देवताओं तक कृष्ण का संदेश पहुंचा दिया। साथ ही जो कृष्ण भक्त नहीं थे वो सब गहरी नींद में सो गए। भगवान ब्रह्मा व शिव सहित सभी देवी देवता व ऋषिगण गोपिकाओं के रूप में *महारास* अर्थात *परमानन्द* में डूबने *सत-चित-आनन्द* *श्रीकृष्ण* के समक्ष उपस्थित हुए।
आत्मा को स्त्री व परमात्मा को पुरुष शास्त्रों में कहा गया है, श्रीकृष्ण पुरुष थे व समस्त सैकड़ो देव, किन्नर व ऋषिगणों की आत्माएं स्त्री स्वरूप में गोपिकाएँ थी।
उस दिन सबने श्रीकृष्ण को तत्व से जाना, उनकी 16 कलाओं में अवतार का रहस्य जाना, उनकी भक्ति गीत नृत्य में खो गए। श्रीकृष्ण के चरणों मे खोकर सब विदेह जनक से हो गए। किसी को स्वयं का भान न रहा, सबमें सर्वत्र कृष्ण ही कृष्ण थे। आत्मा का परमात्मा के मिलन का यह भक्ति पर्व महारास कहलाया।
श्रीकृष्ण ने सभी को वरदान दिया कि जो भक्त शरद पूर्णिमा के दिन स्वयं को भूलकर मेरी भक्ति के रस में डूबकर चन्द्र को अपलक निहारेगा जैसा तुम मुझे आज अपलक निहार रहे हो, वो मेरा दर्शन आज के दिन चन्द्र में पायेगा। हृदय का दर्पण यह चन्द्र बन जायेगा।
भक्तिरहस्य को आधुनिक पाश्चात्य सोच से ग्रसित पतित जनता काम के अतिरिक्त कुछ नहीं समझती। क्योंकि उनकी सोच निम्न केंद्रों तक ही केंद्रित है, *राजमहिषी* - Kings Buffalo (राजा की भैंस) अनुवाद करते हैं, *राजमहिषी* का अर्थ Queen of Kingdom ( राज्य की महारानी) भी हो सकता है यह उनके समझ से परे हैं। इसीतरह *महारास* को *शरीर से परे आत्म स्तर पर भक्ति से परमानन्द* समझने में उन्हें कठिनाई होना स्वभाविक है। जिन्होंने कभी धर्मग्रन्थों का स्वाध्याय किया ही नहीं और न ही धर्म को तत्व से समझने की कोशिश की, अतः इन सांसारिक पतित को समझाने का प्रयास करना व्यर्थ है,
🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन
उत्तर - यह अत्यंत गूढ़ प्रश्न है, इसका उत्तर समझने के लिए थोड़े विवेक की अत्यंत आवश्यकता है।
*रास* शब्द संस्कृत के *रस* शब्द से उत्तपन्न हुआ है। रस का शाब्दिक अर्थ है - निचोड़, तत्व-अर्क, आनन्द
एक प्रसिद्ध सूक्त है- *रसौ वै स:*। अर्थात् *वह परमात्मा ही रस रूप आनन्द है*।
*काव्य में जो आनन्द आता है वह ही काव्य का रस है*। काव्य में आने वाला आनन्द अर्थात् रस लौकिक न होकर अलौकिक होता है। रस काव्य की आत्मा है। संस्कृत में कहा गया है कि "रसात्मकम् वाक्यम् काव्यम्" अर्थात् रसयुक्त वाक्य ही काव्य है।
*रस अन्त:करण की वह शक्ति है*, जिसके कारण इन्द्रियाँ अपना कार्य करती हैं, मन कल्पना करता है, स्वप्न की स्मृति रहती है। रस आनंद रूप है और यही आनंद विशाल का, विराट का अनुभव भी है। यही आनंद अन्य सभी अनुभवों का अतिक्रमण भी है। आदमी इन्द्रियों पर संयम करता है, तो विषयों से अपने आप हट जाता है। परंतु उन विषयों के प्रति लगाव नहीं छूटता। रस का प्रयोग सार तत्त्व के अर्थ में चरक, सुश्रुत में मिलता है। दूसरे अर्थ में, अवयव तत्त्व के रूप में मिलता है। सब कुछ नष्ट हो जाय, व्यर्थ हो जाय पर जो भाव रूप तथा वस्तु रूप में बचा रहे, वही रस है। रस के रूप में जिसकी निष्पत्ति होती है, वह भाव ही है। जब रस बन जाता है, तो भाव नहीं रहता। केवल रस रहता है। उसकी भावता अपना रूपांतर कर लेती है। रस अपूर्व की उत्पत्ति है।
किसी भी फ़ल या सब्जी का निचोड़ रस होता है, भक्त की भक्ति का निचोड़ रस ही रास - आनन्द होता है।
भगवान कृष्ण 16 कलाओं के अवतार थे, समस्त गोपियाँ पुराने जन्मों के ऋषिगण थे जो कृष्ण को तत्व से जानना चाहते थे। कृष्ण की 16 कलाओं की खूबी में डूब जाना चाहते थे। भगवान कृष्ण ने उनकी मनोकामना पूर्ति के लिए शरद पूर्णिमा का दिन चुना क्योंकि इस दिन रसाधिपति अमृतत्वाय चन्द्र भी 16 कलाओं में होता है और उसकी चाँदनी में पूर्ण 16 कलाओं का प्रकटीकरण करना था।
चन्द्रोदय के साथ ही उन्होंने *क्लीं* बीज मंत्र युक्त बांसुरी से ध्वनियों की राग छेड़ी। क्लीं बीज मंत्र असुरों व आसुरी शक्ति से वृन्दावन को सुरक्षा चक्र में आच्छादित कर दिया। सभी गोपिकाओं के हृदय में और देवताओं तक कृष्ण का संदेश पहुंचा दिया। साथ ही जो कृष्ण भक्त नहीं थे वो सब गहरी नींद में सो गए। भगवान ब्रह्मा व शिव सहित सभी देवी देवता व ऋषिगण गोपिकाओं के रूप में *महारास* अर्थात *परमानन्द* में डूबने *सत-चित-आनन्द* *श्रीकृष्ण* के समक्ष उपस्थित हुए।
आत्मा को स्त्री व परमात्मा को पुरुष शास्त्रों में कहा गया है, श्रीकृष्ण पुरुष थे व समस्त सैकड़ो देव, किन्नर व ऋषिगणों की आत्माएं स्त्री स्वरूप में गोपिकाएँ थी।
उस दिन सबने श्रीकृष्ण को तत्व से जाना, उनकी 16 कलाओं में अवतार का रहस्य जाना, उनकी भक्ति गीत नृत्य में खो गए। श्रीकृष्ण के चरणों मे खोकर सब विदेह जनक से हो गए। किसी को स्वयं का भान न रहा, सबमें सर्वत्र कृष्ण ही कृष्ण थे। आत्मा का परमात्मा के मिलन का यह भक्ति पर्व महारास कहलाया।
श्रीकृष्ण ने सभी को वरदान दिया कि जो भक्त शरद पूर्णिमा के दिन स्वयं को भूलकर मेरी भक्ति के रस में डूबकर चन्द्र को अपलक निहारेगा जैसा तुम मुझे आज अपलक निहार रहे हो, वो मेरा दर्शन आज के दिन चन्द्र में पायेगा। हृदय का दर्पण यह चन्द्र बन जायेगा।
भक्तिरहस्य को आधुनिक पाश्चात्य सोच से ग्रसित पतित जनता काम के अतिरिक्त कुछ नहीं समझती। क्योंकि उनकी सोच निम्न केंद्रों तक ही केंद्रित है, *राजमहिषी* - Kings Buffalo (राजा की भैंस) अनुवाद करते हैं, *राजमहिषी* का अर्थ Queen of Kingdom ( राज्य की महारानी) भी हो सकता है यह उनके समझ से परे हैं। इसीतरह *महारास* को *शरीर से परे आत्म स्तर पर भक्ति से परमानन्द* समझने में उन्हें कठिनाई होना स्वभाविक है। जिन्होंने कभी धर्मग्रन्थों का स्वाध्याय किया ही नहीं और न ही धर्म को तत्व से समझने की कोशिश की, अतः इन सांसारिक पतित को समझाने का प्रयास करना व्यर्थ है,
🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन
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