प्रश्न - *गुरुधारण करते समय क्या तर्क करना चाहिए व प्रश्न पूंछना चाहिए? या केवल श्रद्धा भक्ति से स्वीकार लेना चाहिए?*
उत्तर- आत्मीय भाई,
पानी पियो छान कर, गुरु करो जान कर ।।
स्वामी विवेकानंद जी, श्रद्धेय डॉक्टर साहब, आदर्णीय उपाध्याय बाबूजी इत्यादि की तरह गुरुवरण से पहले गुरु को जानने की कोशिश में तर्क व जिज्ञासा व्यक्त करना कुछ गलत नहीं है। लेकिन जब एक बार गुरुवरण हृदय से कर लो, फ़िर तर्क को छोड़ दो। विवेकानंद ने तब तक तर्क व प्रश्न किया जब तक ठाकुर को गुरु नहीं स्वीकारा। जैसे ही स्वीकारा तर्क छोड़ दिया। ऐसे ही श्रद्धेय व आदरणीय उपाध्याय इत्यादि युगऋषि परमपूज्य गुरुदेव के श्रेष्ठ शिष्यों ने किया, गुरु जान के किया। फिर जब गुरु वरण कर लिया तो तर्क को श्रद्धा-विश्वास को अपनाया।
जैसे कपड़े के निर्माण में कैंची और सुई धागा दोनों की जरूरत है। कैंची को तर्क समझो और सुई-धागे को श्रद्धा व विश्वास मानों। मात्र कैंची के प्रयोग से वस्त्र नही बन सकता। कैंची तो कुछ वक़्त तक वस्त्र के निर्माण में प्रयोग होती है, लेकिन सुई-धागा अधिक देर व अंत तक लगा रहता है जब तक वस्त्र का निर्माण न हो जाये।
अतः श्रद्धा-विश्वास के बिना गुरुदीक्षा की पूर्णता सम्भव ही नहीं है। श्रद्धा-विश्वास का vacuum जितने हद तक भीतर होगा उतना ही गुरुतत्व attract कर तुम स्वयं में धारण कर सकोगे।
सदगुरु को व्यक्ति समझोगे तो साधना में असफ़ल रहोगे, सदगुरु को शक्ति समझोगे सदा सफल रहोगे।
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विश्नो गुरुर्देवो महेश्वरः, गुरु साक्षात् परम ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः ।
अखण्डमंडलाकारं व्याप्तंयेन चराचरम, यत्पदम दर्शयते येन तस्मै श्री गुरवे नमः ॥
अर्थ भी सब जानते हैं । गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विश्नो गुरुर्देवो महेश्वरः – गुरु ही ब्रह्मा है, गुरु ही विष्णु है और गुरु ही भगवान् शंकर है । त्रिदेव, गुरु में तीनो देवता निवास करते हैं । गुरु साक्षात् परम ब्रह्म – गुरु साक्षात् (स-अक्षात) मतलब आखों के सामने, गुरु आखों के सामने है और देवता दिखाई नहीं देते । गुरु साक्षात् परम ब्रह्म – वो जो परब्रह्म है, ultimate god है, जो ब्रह्मा, विष्णु, महेश से भी ऊपर है, गुरु वो है और साक्षात रूप में है । तस्मै श्री गुरवे नमः – इसलिए ऐसे श्री गुरु को मैं नमस्कार करता हूँ । अखण्डमंडलाकारं व्याप्तंयेन चराचर – इस चर और अचर सृष्टि में (चर सृष्टि – वो सृष्टि जिसमें movement होता है । यानी जितनी भी living चीजें हैं वे सब चर सृष्टि कहलाती हैं । उन सब में movement होता है, जितने भी आदमी है, जानवर है, जितने भी कीड़े मकोड़े हैं, सब चर सृष्टि हैं और दूसरी सृष्टि है अचर । अचर को जड़ सृष्टि भी कहते हैं । जो non-living rocks हैं, पहाड़ हैं, पेड़ हैं, ये चल नहीं सकते, इनमें मूवमेंट नहीं हैं ।) तो अखण्डमंडलाकारं व्याप्तंयेन चराचर – जो अखण्डमंडलाकार, अखंड माने जो कहीं से खंडित नहीं है, कहीं से टूटा नहीं है, ऐसा मण्डल आकार वाला (गोल), वो जो ब्रह्म है ultimate god है, वो ultimate god, व्याप्तंयेन चराचर – इस living और non living जितनी भी सृष्टि है, जितनी भी universe है, उस सबके भीतर वो निवास करता है, रहता है । यत्पदम दर्शयते येन तस्मै श्री गुरवे नमः – उस ब्रह्म को जो सबके भीतर मौजूद है, चर में भी और अचर में भी, living में भी, non living में भी, moveable में, non moveable में, सबमें जो है, वो ब्रह्म जिसके चरणों में दिखलाई देता है । यत्पदम – यत माने जिसके, पदम् माने पैरों में, दर्शयते – दिखायी देता है । ऐसे, तस्मै माने ऐसे श्री गुरवे नमः – श्री गुरु को मैं नमस्कार करता हूँ ।
गुरु की महिमा भारत वर्ष में सब वेदों ने, शास्त्रों ने, पुराणों ने, सब संतों ने, सब ऋषियों ने, मुनियों ने, सब ने गुरु की महिमा गायी है । सब कहते हैं की साक्षात् ईश्वर, साक्षात् ब्रह्म इस पृथ्वी पर गुरु ही है । कबीर ने तो यहाँ तक कहा कि:-
गुरु गोबिंद दौउ खड़े, काके लागों पांय, बलिहारी गुरु आपने गोबिंद दियो बताय ।
गोविंद ही पर ब्रह्म हैं, जो यह ज्ञान बताता है, जो आत्मा को परमात्मा से मिलवाता है, वह गुरु प्रथम पूज्य है।
जब शिष्य तैयार होता है तब गुरु शिष्य को ढूंढते हुए उसके पास आता है, यदि शिष्य तैयार नहीं तो उसे स्वयं को साधते हुए गुरु खोजना पड़ता है।
निम्नलिखित गुरूकृपा वही गुरु बरसा सकता है जो *वशिष्ठ* व *विश्वामित्र* की योग्यता रखता है। हम भाग्यशाली हैं कि हमारे पास ऐसे सद्गुरु युगऋषि पण्डित श्रीराम आचार्य हैं। सदगुरु शरीरी व अशरीरी दोनो रूप में भवबंधन काटते हैं व मार्गदर्शन करते हैं।
ध्यानमूलं गुरुर्मूर्तिः - गुरु ध्यान की मूर्ति है,
पूजामूलं गुरुर्पदम् । - गुरुचरणों के पूजन से सब सिद्धि मिलती है,
मन्त्रमूलं गुरुर्वाक्यं - गुरूवाक्य ही मन्त्र की सिद्धि है,
मोक्षमूलं गुरूर्कृपा ॥ - गुरु कृपा से मोक्ष सहज ही सम्भव है।
🙏🏻श्वेता, DIYA
उत्तर- आत्मीय भाई,
पानी पियो छान कर, गुरु करो जान कर ।।
स्वामी विवेकानंद जी, श्रद्धेय डॉक्टर साहब, आदर्णीय उपाध्याय बाबूजी इत्यादि की तरह गुरुवरण से पहले गुरु को जानने की कोशिश में तर्क व जिज्ञासा व्यक्त करना कुछ गलत नहीं है। लेकिन जब एक बार गुरुवरण हृदय से कर लो, फ़िर तर्क को छोड़ दो। विवेकानंद ने तब तक तर्क व प्रश्न किया जब तक ठाकुर को गुरु नहीं स्वीकारा। जैसे ही स्वीकारा तर्क छोड़ दिया। ऐसे ही श्रद्धेय व आदरणीय उपाध्याय इत्यादि युगऋषि परमपूज्य गुरुदेव के श्रेष्ठ शिष्यों ने किया, गुरु जान के किया। फिर जब गुरु वरण कर लिया तो तर्क को श्रद्धा-विश्वास को अपनाया।
जैसे कपड़े के निर्माण में कैंची और सुई धागा दोनों की जरूरत है। कैंची को तर्क समझो और सुई-धागे को श्रद्धा व विश्वास मानों। मात्र कैंची के प्रयोग से वस्त्र नही बन सकता। कैंची तो कुछ वक़्त तक वस्त्र के निर्माण में प्रयोग होती है, लेकिन सुई-धागा अधिक देर व अंत तक लगा रहता है जब तक वस्त्र का निर्माण न हो जाये।
अतः श्रद्धा-विश्वास के बिना गुरुदीक्षा की पूर्णता सम्भव ही नहीं है। श्रद्धा-विश्वास का vacuum जितने हद तक भीतर होगा उतना ही गुरुतत्व attract कर तुम स्वयं में धारण कर सकोगे।
सदगुरु को व्यक्ति समझोगे तो साधना में असफ़ल रहोगे, सदगुरु को शक्ति समझोगे सदा सफल रहोगे।
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विश्नो गुरुर्देवो महेश्वरः, गुरु साक्षात् परम ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः ।
अखण्डमंडलाकारं व्याप्तंयेन चराचरम, यत्पदम दर्शयते येन तस्मै श्री गुरवे नमः ॥
अर्थ भी सब जानते हैं । गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विश्नो गुरुर्देवो महेश्वरः – गुरु ही ब्रह्मा है, गुरु ही विष्णु है और गुरु ही भगवान् शंकर है । त्रिदेव, गुरु में तीनो देवता निवास करते हैं । गुरु साक्षात् परम ब्रह्म – गुरु साक्षात् (स-अक्षात) मतलब आखों के सामने, गुरु आखों के सामने है और देवता दिखाई नहीं देते । गुरु साक्षात् परम ब्रह्म – वो जो परब्रह्म है, ultimate god है, जो ब्रह्मा, विष्णु, महेश से भी ऊपर है, गुरु वो है और साक्षात रूप में है । तस्मै श्री गुरवे नमः – इसलिए ऐसे श्री गुरु को मैं नमस्कार करता हूँ । अखण्डमंडलाकारं व्याप्तंयेन चराचर – इस चर और अचर सृष्टि में (चर सृष्टि – वो सृष्टि जिसमें movement होता है । यानी जितनी भी living चीजें हैं वे सब चर सृष्टि कहलाती हैं । उन सब में movement होता है, जितने भी आदमी है, जानवर है, जितने भी कीड़े मकोड़े हैं, सब चर सृष्टि हैं और दूसरी सृष्टि है अचर । अचर को जड़ सृष्टि भी कहते हैं । जो non-living rocks हैं, पहाड़ हैं, पेड़ हैं, ये चल नहीं सकते, इनमें मूवमेंट नहीं हैं ।) तो अखण्डमंडलाकारं व्याप्तंयेन चराचर – जो अखण्डमंडलाकार, अखंड माने जो कहीं से खंडित नहीं है, कहीं से टूटा नहीं है, ऐसा मण्डल आकार वाला (गोल), वो जो ब्रह्म है ultimate god है, वो ultimate god, व्याप्तंयेन चराचर – इस living और non living जितनी भी सृष्टि है, जितनी भी universe है, उस सबके भीतर वो निवास करता है, रहता है । यत्पदम दर्शयते येन तस्मै श्री गुरवे नमः – उस ब्रह्म को जो सबके भीतर मौजूद है, चर में भी और अचर में भी, living में भी, non living में भी, moveable में, non moveable में, सबमें जो है, वो ब्रह्म जिसके चरणों में दिखलाई देता है । यत्पदम – यत माने जिसके, पदम् माने पैरों में, दर्शयते – दिखायी देता है । ऐसे, तस्मै माने ऐसे श्री गुरवे नमः – श्री गुरु को मैं नमस्कार करता हूँ ।
गुरु की महिमा भारत वर्ष में सब वेदों ने, शास्त्रों ने, पुराणों ने, सब संतों ने, सब ऋषियों ने, मुनियों ने, सब ने गुरु की महिमा गायी है । सब कहते हैं की साक्षात् ईश्वर, साक्षात् ब्रह्म इस पृथ्वी पर गुरु ही है । कबीर ने तो यहाँ तक कहा कि:-
गुरु गोबिंद दौउ खड़े, काके लागों पांय, बलिहारी गुरु आपने गोबिंद दियो बताय ।
गोविंद ही पर ब्रह्म हैं, जो यह ज्ञान बताता है, जो आत्मा को परमात्मा से मिलवाता है, वह गुरु प्रथम पूज्य है।
जब शिष्य तैयार होता है तब गुरु शिष्य को ढूंढते हुए उसके पास आता है, यदि शिष्य तैयार नहीं तो उसे स्वयं को साधते हुए गुरु खोजना पड़ता है।
निम्नलिखित गुरूकृपा वही गुरु बरसा सकता है जो *वशिष्ठ* व *विश्वामित्र* की योग्यता रखता है। हम भाग्यशाली हैं कि हमारे पास ऐसे सद्गुरु युगऋषि पण्डित श्रीराम आचार्य हैं। सदगुरु शरीरी व अशरीरी दोनो रूप में भवबंधन काटते हैं व मार्गदर्शन करते हैं।
ध्यानमूलं गुरुर्मूर्तिः - गुरु ध्यान की मूर्ति है,
पूजामूलं गुरुर्पदम् । - गुरुचरणों के पूजन से सब सिद्धि मिलती है,
मन्त्रमूलं गुरुर्वाक्यं - गुरूवाक्य ही मन्त्र की सिद्धि है,
मोक्षमूलं गुरूर्कृपा ॥ - गुरु कृपा से मोक्ष सहज ही सम्भव है।
🙏🏻श्वेता, DIYA
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