Monday, 21 October 2019

प्रश्न - *किसी भी मिशन का पतन कैसे होता है? और कौन करता है?*

प्रश्न - *किसी भी मिशन का पतन कैसे होता है? और कौन करता है?*

उत्तर - जिस प्रकार मिशन का उत्थान शिष्य करते हैं, वैसे ही मिशन का पतन भी शिष्य ही करते हैं।

सत्य घटना से समझें.....भगवान बुद्ध ने शुरुआत में स्त्रियों का भिक्षुक बनना निषेध किया था, क्योंकि बीहड़ जंगल व असुरक्षित माहौल स्त्रियों के लिए सर्वथा अनुचित था।

लेक़िन महान स्त्रियों ने कहा क्या उन्हें मुक्ति का अधिकार नहीं? उनकी सत्य निष्ठा देखकर उन्हें भिक्षुणी बनने की आज्ञा दे दी गयी।

भिक्षुक या भिक्षुणी बनने का निर्णय व्यक्ति का स्वतंत्र निर्णय होता है, कोई उन्हें विवश नहीं करता था।

अब सोने को आप चेक कर सकते हो,   लेकिन मनुष्य के हृदय में क्या छिपा भला कैसे चेक करोगे? कौन किस उद्देश्य से भिक्षुक या भिक्षुणी बन रहा है? यह जानना सम्भव ही न था।

कुछ अकर्मण्य लोग जो संसारी मेहनत से बचना चाहते थे वो भी भिक्षुक स्वार्थ में बनने लगे, कुछ प्रवचन सुनकर बिना गहराई से आत्मा की पुकार समझे बहती गंगा में भावुकता में प्रवेश कर गए, कुछ एक दूसरे के देखा देखी बिना मर्म समझें प्रवेश कर गये। कुछ कन्याओं का विवाह नहीं हो रहा था तो समाज की लांछना व परिवार के तानों से बचने के लिए संघ में आ गए। कुछ युवक जॉब व्यवसाय न कर सके तो वो भी आ गए। कुछ धनी लोग संसारी विषाद में टूट गए या प्रियजन का बिछोह में उन्हें संसार न भाया और वो भी भिक्षुक बन गए।

जब बटखरा ही खोटा हो तो सौदा सच्चा कैसे होगा? जब नियत में ही खोट हो तो मन साधना में कैसे लगेगा?

ऐसे लोगों के परिवार भी तो खोटे ही होंगे, गालियाँ देने लगे बुद्ध को और उनके अनुयायियों को... हमारे बच्चों पर जादू करके उन्हें भिक्षुक बना दिया। जिनके शरीर बीहड़ की कठिनाई न झेल पाते तो बीमार होकर जब वो मृत्यु की गोद में जाते तो परिवार वाले बुद्ध को गालियाँ देते, जब सम्हाल नहीं सकते थे तो भिक्षु क्यों बनाया। अमीर आदमी जब तक दस 15 दिन शोक में था, भिक्षुक जीवन भाया। लेकिन जैसे जैसे प्रियजन की याद धूमिल हुई, शोक मिटा तो भिक्षुक बनने का अफसोस हुआ।

नियत खोटी वाले भिक्षु व भिक्षुणी प्रेम बन्धन में बंध जाते। बड़ी दुविधा थी कि संसार में वापस जाएंगे तो पतित जमाना कहेगा, यहां रहना सम्भव नहीं हो रहा। तो वो भी लोगों को उकसाते व भड़काते कि लोग बौद्ध स्तूप के निर्माण हेतु दान देते हैं अमुक भिक्षुक घोटाला कर रहे हैं। कुछ पैसे के लोभी भी इसमें हाथ सेंकते।

कुछ बुद्ध सा प्रतिष्ठित व नाम पाने को  संघ में प्रवेश करते, उचित पद प्रतिष्ठा न मिलने पर लड़ाई झगड़े करते।

कुछ ने बौद्ध धर्म में ध्यान को चुना और गुरु के पद चिन्हों पर चले, कुछ ने तंत्र को चुनकर भय दिखाकर जनता से कमाना शुरू कर दिया।

जब बुद्ध ने रोका, तो साजिश के तहत के किसान से उन्हें ज़हर ही भोजन में दिलवा दिया।

बुद्ध को किसी और ने नहीं मारा, उनके ही भिक्षुक शिष्यों ने मरवाया जो स्वयं की इच्छा से भिक्षुक बनने आये और स्वयं की इच्छा से भिक्षुक से संसार मे लौट न सके।

किसी भी मिशन को बर्बाद बाहर का व्यक्ति नहीं कर सकता, भीतर का व्यक्ति करता है, जो प्रवचन सुनकर या  भावनाओं के ज्वार भाटे में प्रतिष्ठित जॉब छोड़कर आया था। लेकिन कठिन आश्रम और मामूली ख़र्च में अब रह नहीं पा रहा। संसार मे लौटना चाहता है, लौट नहीं पा रहा। अपना फ्रस्ट्रेशन मिशन में निकाल रहा है। वो चाहता है कि वो सब छोड़कर आया है तो मिशन उसका अहसान माने और उसे सर आंखों पर बिठा के रखे, पद प्रतिष्ठा दे।

शिष्य भूल जाते हैं कि संसार छोड़कर अध्यात्म में प्रवेश की पहली शर्त है, गुरु को व्यक्ति नहीं शक्ति मानना। गुरुचेतना को धारण करना। दीक्षा अर्थात - अपनी इच्छा का त्याग। मैं की भावना का त्याग। जो *मैं* को बिना त्यागे केवल जॉब-धन-एशोआराम छोड़कर मिशन में प्रवेश करेगा।उसकी फ्रस्ट्रेशन व पुराने जीवन की याद उसे तबाह करेगी और वो मिशन को दीमक की तरह खा जाएगा। खोखला कर देगा, वो कभी आधा ग्लास भरा नहीं देख पायेगा। वो सदैव आधा ग्लास ख़ाली का रुदाली गैंग तैयार करेगा। फ़ेसबुक, व्हाट्सएप, इंस्टाग्राम, पब्लिक मीटिंग में कभी भी आधे ग्लॉस भरे की भूलकर भी चर्चा नहीं करेगा और नए शिष्यों के मन में आधा ग्लास ख़ाली का दृष्टिकोण जमा देगा।

वो कहते हैं कि आधा ग्लास खाली है,
हम कहते हैं कि आधा भरा काफ़ी है,

वो कहते हैं कि दिये के नीचे का अँधेरा  देखो,
जो स्वयं के नीचे का अंधेरा न मिटा सका वो हमारे किस काम का?
हम कहते हैं कि दिये के ऊपर का प्रकाश देखो,
उस प्रकाश से तुम भी जल उठो एक दिया बन जाओ,
वो तुम्हारे नीचे का अंधकार मिटा दे,
तुम उसके नीचे प्रकाश फैला दो।

वो कहते हैं कि चाँद में दाग है,
हम कहते है कि उसकी चाँदनी ख़ास है।

वो कहते हैं कि देखो मेरे घर का आधा छप्पर उड़ गया,
हम कहते है कि देखो मेरे गुज़र बसर को आधा छप्पर बच गया।

गुरु व्यक्ति है, यह भी सही है,
गुरु शक्ति है, यह भी सही है,

वो भी सही कह रहे हैं,
हम भी सही कह रहे हैं,
चयन आपको विवेक से करना है,
कि किसकी बात आपको मानना है।

अंगअवयव में कोई पैर, कोई, हाथ, कोई गुर्दा, कोई किडनी, कोई दिमाग, कोई तलवा इत्यादि बनता है। कोई दृश्य अंग है और अदृश्य अंग है। फूलों की माला गले मे ही पड़ती है, तो क्या पैरों का महत्त्व कम हो जाता जिसपर वह व्यक्तित्व खड़ा है? क्या हृदय का महत्त्व कम हो जाता है जिससे वो जिंदा है? अरे माला के सम्मान के लिये गले से युद्ध दिमाग़ और पैर का क्या जायज है?????स्वयं विचार करें....

या इस बात से आनन्दित हों कि अहोभाग्य मैं चरण हूँ मुझ पर मिशन खड़ा है, अहोभाग्य मैं दिमाग़ हूँ बहुत कार्य कर सकता हूँ, अहोभाग्य में हृदय हूँ, स्वयं विचार करें...

🙏🏻श्वेता, DIYA

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