Monday, 21 October 2019

कविता - *मैं* की जगह *हम*

कविता - *मैं* की जगह *हम*

😞😞😞😞😞😞
तुम वो सुनने आये थे,
जो मैं कह न सकी,
तुम वो कहने आये थे,
जो मैं सुन न सकी।

जब एक छत के नीचे,
सपने दोनों के अलग अलग हों,
अपनी अपनी ख्वाइशों को,
पूरी करने की कठिन ज़िद हो,
तब घर घर नहीं रहता ज़नाब,
बस दो अंजान लोगों के,
साथ रहने का स्थान होता है,
जब बात बात पर हम की जगह,
 *मैं* और सिर्फ़ *मैं* होता हैं,
वहाँ वैवाहिक रिश्ता,
अंतिम श्वांस ले रहा होता है,
ऐसा गृहस्थ जीवन ही,
सदा असफ़ल होता है।

🌹🌹🌹🌹
😇😇😇😇
जब तुम वो भी समझ गए,
जो मैं कह न सकी,
तुम वो कहने आये,
जिससे मुझे ख़ुशी मिली।

जब एक छत के नीचे,
दोनों के सपने एक हुए,
अपनी अपनी ख्वाइशों को भूल,
जब एक दूजे के लिये ही जिये,
तब घर एक मंदिर होता है जनाब,
वहाँ दो शरीर और एक होता है प्राण,

जब बात बात पर *मैं* की जगह,
 *हम* और सिर्फ़ *हम* होता हैं,
वहाँ ही वैवाहिक रिश्ता,
आनन्दमय-प्रेममय होता है,
ऐसा गृहस्थ जीवन ही,
सदा सफ़ल होता है।

🙏🏻श्वेता, DIYA

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