Friday, 4 October 2019

प्रश्न - *साधना के व्यवहारिक पक्ष क्या है?*

प्रश्न - *साधना के व्यवहारिक पक्ष क्या है?*

उत्तर-  युगऋषि ने साधना के व्यवहारिक पक्ष की व्याख्या पुस्तक 📖– *जीवन देवता की साधना आराधना* में किया है।

अध्यात्म का तत्त्वदर्शन, आत्मपरिष्कार और आत्मविकास को दो शब्दों में सन्निहित समझा जा सकता है। उपासना पक्ष की प्रतीक पूजा का तात्पर्य है- क्रिया एवं साधनों के सहारे  आत्मशिक्षण की आवश्यकता पूरी करना। कोई भी कर्मकाण्ड उसकी भावनाओं को हृदयंगम किये बिना पूर्ण नहीं हो सकता। मात्र कर्मकाण्ड को जादू का खेल समझते हुए बड़ी सफलता की आशा नहीं की जा सकती।

 जन्म और मरण यही दो जीवन सत्ता के ओर- छोर हैं। प्रथम व्यवहारिक साधना को *आत्मबोध* कहते हैं। आँख खुलते ही यह भावना करनी चाहिये कि आज अपना नया जन्म हुआ। एक दिन ही जीना है। रात्रि को मरण की गोद में चले जाना है। इस *अवधि का सर्वोत्तम उपयोग करना ही जीवन साधना का महान लक्ष्य* है।

दूसरी व्यवहारिक साधना है *तत्त्वबोध* - संध्या रात को सोते समय पूरी की जाती है, उसमें यह माना जाना चाहिये कि अब मृत्यु की गोद में जाया जा रहा है। भगवान् के दरबार में जवाब देना होगा कि आज के समय का, एक दिन के जीवन का किस प्रकार सदुपयोग बन पड़ा? इसके लिये दिनभर के समयानुसार क्रिया- कलापों और विचारों के उतार- चढ़ावों की समीक्षा की जानी चाहिये।

जीवन साधना के व्यवहारिक पक्ष के तहत प्रज्ञायोग के दो और चरण हैं जिनको दिन में पूरा किया जाता है। इनमें *एक है- "भजन" दूसरा- "मनन"*

भजन के लिये नित्य कर्म से निवृत्त होकर नियत पूजा स्थान पर पालथी मारकर बैठा जाता है। शरीर, मन और वाणी की शुद्धि के लिये जल द्वारा पवित्रीकरण, सिंचन, आचमन किया जाता है। देव प्रतिमा के रूप में गायत्री की छवि अथवा धूप, दीप में से कोई प्रतीक स्थापित करके इसे इष्ट, आराध्य माना जाता है। धूप, दीप, नैवेद्य, जल, अक्षत, पुष्प में से जो उपलब्ध हो उससे उसका पूजन किया जाता है। पूजन में प्रयुक्त वस्तुओं की तरह अपने जीवन में उन विशेषताओं को उत्पन्न करने की भावना की जाती है जो इन उपचार, साधनों में पाई जाती है। चन्दन समीपवर्तियों में सुगन्ध भरता है। दीपक अपने प्रभाव क्षेत्र में ज्ञानरूपी प्रकाश फैलाता है। पुष्प हँसता है और खिलता रहता है। जल शीतलता का प्रतीक बनकर रहता है। अक्षत, नैवेद्य के पीछे समयदान, अंशदान परमार्थ प्रयोजन के लिये निकाले जाने की भावना है। इष्टदेव को सत्प्रवृत्ति का समुच्चय माना जाये। इन मान्यताओं के आधार पर देव पूजन समग्र बन पड़ता है। अब जप और ध्यान की बारी आती है।  दोनों एक साथ चल सकते हैं। गायत्री जप मानसिक हो तो भी ठीक है। जितनी देर  करने का निश्चय हो उसका हिसाब माला या घड़ी के सहारे किया जाता है। जिन्हें गायत्री की अपेक्षा कोई अन्य मंत्र रुचिकर होवे उसे अपना सकते हैं। ॐकार भी सार्वभौम स्तर की जप मान्यता बन सकता है। जप के साथ प्रातःकाल के उदीयमान स्वर्णिम सूर्य का ध्यान किया जाय। भावना करनी चाहिये कि अपना खुला शरीर सूर्य के सम्मुख बैठा है। इष्ट की सूक्ष्म किरणें अपने  स्थूल, सूक्ष्म और कारण- तीनों शरीरों में प्रवेश कर रही हैं। किरणें, ऊर्जा और आभा की प्रतीक हैं। ऊर्जा अर्थात् शक्ति, आभा अर्थात् प्रकाश  प्रज्ञा। दोनों का समन्वय तीनों शरीरों में प्रवेश करके उन्हें प्रभावित
करता है- ऐसी भावना की जानी चाहिये। प्रत्यक्ष शरीर में स्वास्थ्य और संयम, सूक्ष्म शरीर मस्तिष्क में विवेक और साहस, कारण शरीर अर्थात् अन्तःकरण में श्रद्धा, सद्भावना सूर्य किरणों के रूप में प्रवेश करके अस्तित्व की समग्र सत्ता को अनुप्राणित कर रही है। यह ध्यान धारणा और मंत्र जप साथ- साथ नियत निर्धारित समय तक चालू रखे जायें और अन्त में पूर्णाहुति में सूर्य के सम्मुख जलरूपी अर्घ्य दिया जाये। इसका तात्पर्य है- परमसत्ता के सम्मुख जलरूपी आत्मसत्ता का समर्पण। भजन भावना इतनी ही है। यदि नियत स्थान पर बैठ सकना सम्भव नहीं, सफर में चलने जैसी स्थिति हो तो वह सारे कृत्य मानसिक रूप से बिना किसी वस्तु की सहायता के भी किये जा सकते हैं।प्रज्ञायोग साधना का चौथा चरण है- मनन यह मध्याह्नोत्तर कभी भी, कहीं भी किया जा सकता है। समय पन्द्रह मिनट हो, तो भी काम चल जायेगा। इसमें अपनी वर्तमान स्थिति की समीक्षा की जाती है और आदर्शों के मापदण्ड से जाँच- पड़ताल करने पर जो कमी प्रतीत हो, उसे पूरा करने की योजना बनानी पड़ती है। यही *मनन* है।

आत्मसमीक्षा के चार मापदण्ड हैं- १ इन्द्रियसंयम, (२) समयसंयम, (३) अर्थसंयम, (४) विचारसंयम। देखना चाहिये कि इन चारों में कहीं कोई व्यतिक्रम तो नहीं हो रहा है? जीभ स्वाद के नाम पर अभक्ष्य भक्षण तो नहीं करने लगी? वाणी से असंस्कृत वार्तालाप तो नहीं होता? कामुकता की प्रवृत्ति कहीं कुदृष्टि से तो नहीं उभर रही? असंयम से शरीर और मस्तिष्क खोखला तो नहीं हो रहा? शारीरिक और मानसिक स्वस्थता बनाये रखने के लिये इन्द्रियनिग्रह अमोघ उपाय है। समय संयम का अर्थ है- एक क्षण का सदुपयोग। आलस्य- प्रमाद में, दुर्व्यसनों में दुर्गुणों के कुचक्र में फँसकर समय का एक अंश भी बरबाद न होने पाये। इसकी सुरक्षा और सदुपयोग पर पूरी- पूरी जागरूकता बरती जानी चाहिये। समय ही जीवन है। जिसने समय का सदुपयोग किया समझो कि उसने जीवन का परिपूर्ण लाभ उठा लिया। तीसरा संयम है- अर्थसंयम पैसा ईमानदारी और परिश्रमपूर्वक कमाया जाये। मुफ्तखोरी और बेईमानी का आश्रय न लिया जाये। औसत भारतीय स्तर का जीवन जिया जाये। ‘‘सादा जीवन उच्च विचार’’ की नीति अपनाई जाये। विलास प्रदर्शन की मूर्खता में कुछ भी खर्च न होने दिया जाये। कुरीतियों के नाम पर भी बरबादी न चले। बचत का एक बड़ा अंश परमार्थ प्रयोजन में लगा सकने और पुण्य की पूँजी जमा करने का श्रेय उन्हीं को मिलता है, जो विवेकपूर्वक औचित्य का ध्यान रखते हुए खर्च करते हैं। चौथा संयम है- विचारसंयम मस्तिष्क में हर घड़ी विचार उठते रहते हैं, कल्पनायें चलती रहती है। ये अनर्गल, अस्त- व्यस्त एवं अनैतिक स्तर के न हों, इसके लिये विवेक को एक चौकीदार की तरह नियुक्त कर देना चाहिये। उसका काम हो कुविचारों को सद्विचारों की टक्कर मारकर परास्त करना। अनगढ़ विचारों के स्थान पर रचनात्मक चिन्तन का सिलसिला चलाना। विचार मनुष्य की सबसे बड़ी शक्ति है। वही कर्म के रूप में परिणत होती और परिस्थिति बनकर सामने आती है। जीवन को कल्पवृक्ष बनाने का श्रेय रचनात्मक विचारों का ही होता है। इस तथ्य को भली प्रकार समझते हुए चिन्तन को मात्र रचनात्मक एवं उच्चस्तरीय विचारों में ही  संलग्न रखना चाहिये। *साधना, स्वाध्याय, संयम, सेवा के चार  पुरुषार्थों जीवन की प्रगति एवं सफलता बन पड़ती है।*

आत्मसमीक्षा, आत्मसुधार, आत्म- निर्माण और  आत्मविकास की चतुर्दिक प्रक्रिया को अग्रगामी बनाने के लिये मध्यान्तर काल  की मनन साधना करनी चाहिये। इसे आत्मदर्शन समझा जाना चाहिये जो थोड़ी विकसित अवस्था में ईश्वर दर्शन के रूप में फलित होता है। यही साधना का व्यवहारिक पक्ष व उद्देश्य है।

🙏🏻श्वेता, DIYA

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