प्रश्न - *क्या आयुर्वेद में ऐसी कोई रक्तशोधक व संक्रमण(विभिन्न ज्वर-फ़ीवर) के लिए औषधि है, जो एलोपैथी एंटीबायोटिक की तरह संक्रमण खत्म करे, किंतु जिसका साइडइफेक्ट न हो।*
उत्तर- *रक्तशोधन व संक्रमण* - जब जब जीवनी शक्ति क्षीण होती है, तब तब रक्त में विकारों से अशुद्धि व जीवाणु-विषाणु से लड़कर शरीर की सुरक्षा में विघ्न पैदा होता है। शरीर बीमार होता है। अंतिम प्रयास के रूप में शरीर अपना तापमान बढ़ाता है और अवांछनीय *जीवाणु-विषाणु* को शरीर के ताप से जलाने की कोशिश करता है, जिसे ज्वर कहते हैं। अत्यधिक ऊर्जा ख़र्च होती है, शरीर कमज़ोर होता है।
एलोपैथी की एंटीबायोटिक जीवाणु-विषाणु नष्ट करता है, लेकिन वह आरोग्यवर्धक व बलवर्धक नहीं होता। इसके साइडइफेक्ट भी काफी होते हैं।
निम्नलिखित चार आयुर्वेद की औषधियों के द्रव्य मिलकर एंटीबायोटिक (संक्रमण निवारक द्रव्य) बनाते हैं, यह रक्त शोधन, यकृत झिल्ली की सफाई, संक्रमण के कारण जीवाणु-विषाणु को नष्ट करके शरीर के रोग प्रतिरोधी(इम्मयून सिस्टम) को शशक्त भी बनाते हैं।
युगऋषि परमपूज्य गुरुदेव ने कहा था, *जो ढूढ़ेगा उसे मिलेगा(जिन खोजा तिन पाईयाँ गहरे पानी पैठ)*, मैं भी बहुत दिनों से आयुर्वेद में एंटीबायोटिक औषधि ढूंढ रही थी, जिसका पता मुझे युगऋषि की लिखी पुस्तक - 📖 *जीवेम शरद: शतम* (वांग्मय 41) में पेज नम्बर 9.23 से 9.27 पर मिला।
1- *गिलोय* - जिसका अंग्रेजी वनस्पति नाम है - Tinospora cordifolia.
एक बहुवर्षीय लता होती है, जिसके पत्ते पान के पत्ते की तरह हृदय के आकार के होते हैं। आयुर्वेद में इसको कई नामों से जाना जाता है यथा अमृता, गुडुची, छिन्नरुहा, चक्रांगी, आदि। 'बहुवर्षायु तथा अमृत के समान गुणकारी होने से इसका नाम अमृता है।' आयुर्वेद साहित्य में इसे ज्वर की महान औषधि माना गया है एवं जीवन्तिका नाम दिया गया है।
यह त्रिदोषहर(कफ़, वात, पित्त), रक्तशोधक, रोगाणु-विषाणुओं के सक्रमण नष्ट करता है। यह साधारण ज्वर, विषम ज्वर, मलेरिया ज्वर, टायफाइड इत्यादि सभी ज्वरो में लाभप्रद है।
वात रोगी को गिलोय घी के साथ, पित्तज को शक्कर(गुड़ वाली खांड) , कफ़ रोगियों को मधु के साथ दिया जाता है।
यह वृद्ध न होने की चाह रखने वालों के लिए यौवन और सौंदर्य का प्रदाता है। वृद्धावस्था को दूर रखता है। अमृतारिष्ट, अमृतावटी, गिलोयवटी इसके प्रयोग के लिए प्रयुक्त होते हैं।
2- *सारिवा* - जिसे अनंतमूल (अंग्रेज़ी: Indian Sarsaparilla (Hemidesmus indicus)) एक बेल है जो लगभग सारे भारतवर्ष में पाई जाती है। को संस्कृत में सारिवा, गुजराती में उपलसरि, कावरवेल इत्यादि, हिंदी, बँगला और मराठी में अनंतमूल तथा अंग्रेजी में इंडियन सार्सापरिला कहते हैं। लता का रंग मालामिश्रित लाल तथा इसके पत्ते तीन चार अंगुल लंबे, जामुन के पत्तों के आकार के, पर श्वेत लकीरोंवाले होते हैं।
यह त्रिदोषशामक, रक्तशोधक, ज्वरनाशक औषधि है।
सारिवादिवटी, सरिवादयासव नाम से इसका औषधि प्रयोग होता है।
3- *खदिर* - एक प्रकार का बबूल। कथकीकर। सोनकीकर।
अंग्रेजी नाम - catechu, Assamese
यह चीन, भारत, पाकिस्तान, नेपाल, श्री लंका, भूटान, म्यांमार में पाया जाता है।
विशेष—इसका पेड़ बहुत बड़ा होता है और प्राय; समस्त भारत में से पाया जाता है लेकिन उत्तर प्रदेश के खैर शहर मे ये अधिक मात्रा मे पाया जाता है। इसके हीर की लकड़ी भूरे रंग की होती हैं, घुनती नहीं और घर तथा खेती के औजार बनाने के काम में आती है। बबूल की तरह इसमें भी एक प्रकार का गोंद निकलता है और बड़े काम का होता है।
*इस वृक्ष की लकड़ी के टुकड़ों को उबालकर निकाला और जमाया हुआ रस जो पान में चूने के साथ लगाकर खाया जाता है, खैर या कत्था कहलाता है।* इसे खैर, रक्त सार, दंत धावन, कंटकी व यज्ञीय भी कहते हैं।
यह त्रिदोषशामक, रक्तशोधक, ज्वरनाशक औषधि है। यह रक्त स्तम्भक है, रक्त स्त्राव व रक्त विकार में यह मुख्यतः उपयोग होता है।
खदिरादिवटी, खदिरारिष्ट इत्यादि नाम से इसका औषधि प्रयोग होता है।
4- *चिरायता* - (अंग्रेजी नाम - Swertia chirata) ऊँचाई पर पाया जाने वाला पौधा है। इसके क्षुप 2 से 4 फुट ऊँचे एक-वर्षायु या द्विवर्षायु होते हैं। इसकी पत्तियाँ और छाल बहुत कडवी होती और वैद्यक में ज्वर-नाशक तथा रक्तशोधक मानी जाती है। इसकी छोटी-बड़ी अनेक जातियाँ होती हैं; जैसे- कलपनाथ, गीमा, शिलारस, आदि। इसे जंगलों में पाए जानेवाले तिक्त द्रव्य के रूप में होने के कारण किराततिक्त भी कहते हैं। किरात व चिरेट्टा इसके अन्य नाम हैं। चरक के अनुसार इसे तिक्त स्कंध तृष्णा निग्रहण समूह में तथा सुश्रुत के अनुसार अरग्वध समूह में गिना जाता है।
यह मूलतः जीवाणु-विषाणु रोधी, ज्वर को जड़ से उखाड़ने वाली एवं जीवनी वर्धक रसायन है। यह त्रिदोष शामक है एवं आधुनिक आयुर्विज्ञान(इंडियन, अमेरिकन, ब्रिटिश) द्वारा भी ज्वर के लिए मान्यता प्राप्त है।
आयुर्वेदिक दवा बनाने वाली कम्पनियां इसे सुरदर्शन चूर्ण, महा सुर्दशन घनवटी , किराताधि नाम से उपयोग करते है।
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यज्ञोपैथी में उपरोक्त चार औषधियों के अतिरिक्त कालमेघ, तुलसीपत्र, कुटकी, चित्रक, लाल चंदन, नीम छाल इत्यादि को मिश्रित करके औषधीय हवन सामग्री बनाई जाती है जो जड़ से ज्वर को दूर करता है।
📖 पुस्तक - *यज्ञचिकित्सा* के पेज नम्बर 45 से 56 तक विभिन्न ज्वर में कौन सी औषधियों का मिश्रण होगा, यह सब वर्णित है। उपरोक्त पुस्तक - *जीवेम शरद: शतम* एवं *यज्ञ चिकित्सा* नजदीकी शक्तिपीठ से या ऑनलाइन निम्नलिखित लिंक से पुस्तक खरीद सकते हैं:-
https://www.awgpstore.com/
🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन
उत्तर- *रक्तशोधन व संक्रमण* - जब जब जीवनी शक्ति क्षीण होती है, तब तब रक्त में विकारों से अशुद्धि व जीवाणु-विषाणु से लड़कर शरीर की सुरक्षा में विघ्न पैदा होता है। शरीर बीमार होता है। अंतिम प्रयास के रूप में शरीर अपना तापमान बढ़ाता है और अवांछनीय *जीवाणु-विषाणु* को शरीर के ताप से जलाने की कोशिश करता है, जिसे ज्वर कहते हैं। अत्यधिक ऊर्जा ख़र्च होती है, शरीर कमज़ोर होता है।
एलोपैथी की एंटीबायोटिक जीवाणु-विषाणु नष्ट करता है, लेकिन वह आरोग्यवर्धक व बलवर्धक नहीं होता। इसके साइडइफेक्ट भी काफी होते हैं।
निम्नलिखित चार आयुर्वेद की औषधियों के द्रव्य मिलकर एंटीबायोटिक (संक्रमण निवारक द्रव्य) बनाते हैं, यह रक्त शोधन, यकृत झिल्ली की सफाई, संक्रमण के कारण जीवाणु-विषाणु को नष्ट करके शरीर के रोग प्रतिरोधी(इम्मयून सिस्टम) को शशक्त भी बनाते हैं।
युगऋषि परमपूज्य गुरुदेव ने कहा था, *जो ढूढ़ेगा उसे मिलेगा(जिन खोजा तिन पाईयाँ गहरे पानी पैठ)*, मैं भी बहुत दिनों से आयुर्वेद में एंटीबायोटिक औषधि ढूंढ रही थी, जिसका पता मुझे युगऋषि की लिखी पुस्तक - 📖 *जीवेम शरद: शतम* (वांग्मय 41) में पेज नम्बर 9.23 से 9.27 पर मिला।
1- *गिलोय* - जिसका अंग्रेजी वनस्पति नाम है - Tinospora cordifolia.
एक बहुवर्षीय लता होती है, जिसके पत्ते पान के पत्ते की तरह हृदय के आकार के होते हैं। आयुर्वेद में इसको कई नामों से जाना जाता है यथा अमृता, गुडुची, छिन्नरुहा, चक्रांगी, आदि। 'बहुवर्षायु तथा अमृत के समान गुणकारी होने से इसका नाम अमृता है।' आयुर्वेद साहित्य में इसे ज्वर की महान औषधि माना गया है एवं जीवन्तिका नाम दिया गया है।
यह त्रिदोषहर(कफ़, वात, पित्त), रक्तशोधक, रोगाणु-विषाणुओं के सक्रमण नष्ट करता है। यह साधारण ज्वर, विषम ज्वर, मलेरिया ज्वर, टायफाइड इत्यादि सभी ज्वरो में लाभप्रद है।
वात रोगी को गिलोय घी के साथ, पित्तज को शक्कर(गुड़ वाली खांड) , कफ़ रोगियों को मधु के साथ दिया जाता है।
यह वृद्ध न होने की चाह रखने वालों के लिए यौवन और सौंदर्य का प्रदाता है। वृद्धावस्था को दूर रखता है। अमृतारिष्ट, अमृतावटी, गिलोयवटी इसके प्रयोग के लिए प्रयुक्त होते हैं।
2- *सारिवा* - जिसे अनंतमूल (अंग्रेज़ी: Indian Sarsaparilla (Hemidesmus indicus)) एक बेल है जो लगभग सारे भारतवर्ष में पाई जाती है। को संस्कृत में सारिवा, गुजराती में उपलसरि, कावरवेल इत्यादि, हिंदी, बँगला और मराठी में अनंतमूल तथा अंग्रेजी में इंडियन सार्सापरिला कहते हैं। लता का रंग मालामिश्रित लाल तथा इसके पत्ते तीन चार अंगुल लंबे, जामुन के पत्तों के आकार के, पर श्वेत लकीरोंवाले होते हैं।
यह त्रिदोषशामक, रक्तशोधक, ज्वरनाशक औषधि है।
सारिवादिवटी, सरिवादयासव नाम से इसका औषधि प्रयोग होता है।
3- *खदिर* - एक प्रकार का बबूल। कथकीकर। सोनकीकर।
अंग्रेजी नाम - catechu, Assamese
यह चीन, भारत, पाकिस्तान, नेपाल, श्री लंका, भूटान, म्यांमार में पाया जाता है।
विशेष—इसका पेड़ बहुत बड़ा होता है और प्राय; समस्त भारत में से पाया जाता है लेकिन उत्तर प्रदेश के खैर शहर मे ये अधिक मात्रा मे पाया जाता है। इसके हीर की लकड़ी भूरे रंग की होती हैं, घुनती नहीं और घर तथा खेती के औजार बनाने के काम में आती है। बबूल की तरह इसमें भी एक प्रकार का गोंद निकलता है और बड़े काम का होता है।
*इस वृक्ष की लकड़ी के टुकड़ों को उबालकर निकाला और जमाया हुआ रस जो पान में चूने के साथ लगाकर खाया जाता है, खैर या कत्था कहलाता है।* इसे खैर, रक्त सार, दंत धावन, कंटकी व यज्ञीय भी कहते हैं।
यह त्रिदोषशामक, रक्तशोधक, ज्वरनाशक औषधि है। यह रक्त स्तम्भक है, रक्त स्त्राव व रक्त विकार में यह मुख्यतः उपयोग होता है।
खदिरादिवटी, खदिरारिष्ट इत्यादि नाम से इसका औषधि प्रयोग होता है।
4- *चिरायता* - (अंग्रेजी नाम - Swertia chirata) ऊँचाई पर पाया जाने वाला पौधा है। इसके क्षुप 2 से 4 फुट ऊँचे एक-वर्षायु या द्विवर्षायु होते हैं। इसकी पत्तियाँ और छाल बहुत कडवी होती और वैद्यक में ज्वर-नाशक तथा रक्तशोधक मानी जाती है। इसकी छोटी-बड़ी अनेक जातियाँ होती हैं; जैसे- कलपनाथ, गीमा, शिलारस, आदि। इसे जंगलों में पाए जानेवाले तिक्त द्रव्य के रूप में होने के कारण किराततिक्त भी कहते हैं। किरात व चिरेट्टा इसके अन्य नाम हैं। चरक के अनुसार इसे तिक्त स्कंध तृष्णा निग्रहण समूह में तथा सुश्रुत के अनुसार अरग्वध समूह में गिना जाता है।
यह मूलतः जीवाणु-विषाणु रोधी, ज्वर को जड़ से उखाड़ने वाली एवं जीवनी वर्धक रसायन है। यह त्रिदोष शामक है एवं आधुनिक आयुर्विज्ञान(इंडियन, अमेरिकन, ब्रिटिश) द्वारा भी ज्वर के लिए मान्यता प्राप्त है।
आयुर्वेदिक दवा बनाने वाली कम्पनियां इसे सुरदर्शन चूर्ण, महा सुर्दशन घनवटी , किराताधि नाम से उपयोग करते है।
🔥🔥🔥🔥🔥
यज्ञोपैथी में उपरोक्त चार औषधियों के अतिरिक्त कालमेघ, तुलसीपत्र, कुटकी, चित्रक, लाल चंदन, नीम छाल इत्यादि को मिश्रित करके औषधीय हवन सामग्री बनाई जाती है जो जड़ से ज्वर को दूर करता है।
📖 पुस्तक - *यज्ञचिकित्सा* के पेज नम्बर 45 से 56 तक विभिन्न ज्वर में कौन सी औषधियों का मिश्रण होगा, यह सब वर्णित है। उपरोक्त पुस्तक - *जीवेम शरद: शतम* एवं *यज्ञ चिकित्सा* नजदीकी शक्तिपीठ से या ऑनलाइन निम्नलिखित लिंक से पुस्तक खरीद सकते हैं:-
https://www.awgpstore.com/
🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन
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