प्रश्न - *दी चिंता और चिंतन के बारे में विस्तार से बताने की कृपा करें*
उत्तर - आत्मीय भाई,
*चिंता* एक *चिता* के समान हैं जिसमें समस्याओं की गिनती व नकारात्मक चिंतन की लकड़ी लगती हैं। यह सुलगती रहती हैं मनुष्य को जलाती रहती है।
*चिंतन* एक *अमृता औषधि* के समान है, इसमें समस्या के समाधान कैसे हो इसके लिए आत्ममंथन किया जाता है। सकारात्मक चिंतन, आत्मविश्वास और ईश्वर विश्वास के मिश्रण से यह *चिंतन* रूपी *अमृत पेय* किसी भी प्रकार की विपत्ति से उबार लेता है।
आयुर्वेद में दो प्रकार के रोग बताए गए हैं। पहला, शारीरिक रोग और दूसरा, मानसिक रोग। जब शरीर का रोग होता है, तो मन पर और मन के रोग का शरीर पर बुरा प्रभाव पड़ता है। शरीर और मन का गहरा संबंध है।
काम, क्रोध, लोभ, मोह, अंधकार, ईर्ष्या, द्वेष आदि मनोविकार हैं। ये मन के रोग हैं। इन मनोविकारों में एक विकार है-चिंता। यह मन का बड़ा विकार है और महारोग भी है।
जब आदमी को चिंता का रोग लग जाता है तो यह मनुष्य को धीरे-धीरे मारता हुआ आदमी को खोखला करता रहता है। *"चिंता" को "चिता" के समान बताया गया है, अंतर केवल इतना है "चिंता" आदमी को बार-बार जलाती है और "चिता" आदमी को एक बार।*
*चिंतन* करने वाले लोग सन्त, सुधारक व शहीद की तरह सोचते हैं। साइंटिस्ट इसी केटेगरी के लोग होते हैं। जो समस्या का समाधान ढूँढते हैं।
*चिंता* करने वाला अपनी दृष्टि आधी ख़ाली ग्लास की ओर केन्द्रित कर उसका रोना रोता है। ब्लेम गेम खेलता है, परिस्थिति व दूसरे लोगों पर आरोप लगाते हुए, भगवान को दोष देते हुए सर पर हाथ रख के बैठा रहता है।
*चिंतन* करने वाला पहले अपनी दृष्टि आधी भरी ग्लास पर रखता है। जो जीवन में मिला है उसके लिए संतोष अनुभव करते हुए भगवान को धन्यवाद देता है। फ़िर जो आधी ग्लास खाली है वह कैसे भरेगी? इसके लिए सोच विचार करके प्रयत्न व पुरुषार्थ करता है। सफलता व असफ़लता की वह परवाह नहीं करता, केवल स्वयं को गीता अनुसार - कर्म करता है फल की चिंता नहीं करता।
पुस्तक - इक्कीसवीं सदी का संविधान पढ़ें
http://literature.awgp.org/book/ikkeesaveen_sadee_ka_sanvidhan/v2.17
🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन
उत्तर - आत्मीय भाई,
*चिंता* एक *चिता* के समान हैं जिसमें समस्याओं की गिनती व नकारात्मक चिंतन की लकड़ी लगती हैं। यह सुलगती रहती हैं मनुष्य को जलाती रहती है।
*चिंतन* एक *अमृता औषधि* के समान है, इसमें समस्या के समाधान कैसे हो इसके लिए आत्ममंथन किया जाता है। सकारात्मक चिंतन, आत्मविश्वास और ईश्वर विश्वास के मिश्रण से यह *चिंतन* रूपी *अमृत पेय* किसी भी प्रकार की विपत्ति से उबार लेता है।
आयुर्वेद में दो प्रकार के रोग बताए गए हैं। पहला, शारीरिक रोग और दूसरा, मानसिक रोग। जब शरीर का रोग होता है, तो मन पर और मन के रोग का शरीर पर बुरा प्रभाव पड़ता है। शरीर और मन का गहरा संबंध है।
काम, क्रोध, लोभ, मोह, अंधकार, ईर्ष्या, द्वेष आदि मनोविकार हैं। ये मन के रोग हैं। इन मनोविकारों में एक विकार है-चिंता। यह मन का बड़ा विकार है और महारोग भी है।
जब आदमी को चिंता का रोग लग जाता है तो यह मनुष्य को धीरे-धीरे मारता हुआ आदमी को खोखला करता रहता है। *"चिंता" को "चिता" के समान बताया गया है, अंतर केवल इतना है "चिंता" आदमी को बार-बार जलाती है और "चिता" आदमी को एक बार।*
*चिंतन* करने वाले लोग सन्त, सुधारक व शहीद की तरह सोचते हैं। साइंटिस्ट इसी केटेगरी के लोग होते हैं। जो समस्या का समाधान ढूँढते हैं।
*चिंता* करने वाला अपनी दृष्टि आधी ख़ाली ग्लास की ओर केन्द्रित कर उसका रोना रोता है। ब्लेम गेम खेलता है, परिस्थिति व दूसरे लोगों पर आरोप लगाते हुए, भगवान को दोष देते हुए सर पर हाथ रख के बैठा रहता है।
*चिंतन* करने वाला पहले अपनी दृष्टि आधी भरी ग्लास पर रखता है। जो जीवन में मिला है उसके लिए संतोष अनुभव करते हुए भगवान को धन्यवाद देता है। फ़िर जो आधी ग्लास खाली है वह कैसे भरेगी? इसके लिए सोच विचार करके प्रयत्न व पुरुषार्थ करता है। सफलता व असफ़लता की वह परवाह नहीं करता, केवल स्वयं को गीता अनुसार - कर्म करता है फल की चिंता नहीं करता।
पुस्तक - इक्कीसवीं सदी का संविधान पढ़ें
http://literature.awgp.org/book/ikkeesaveen_sadee_ka_sanvidhan/v2.17
🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन
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