Saturday 29 February 2020

प्रश्न - *क्या उत्तम ज्ञानी भक्त भी भगवान को नुकसान पहुंचा सकते हैं?*

प्रश्न - *क्या उत्तम ज्ञानी भक्त भी भगवान को नुकसान पहुंचा सकते हैं?*

उत्तर - हाँजी, यदि भक्त के भीतर भक्ति व ज्ञान का अहंकार हो गया तो वह सबसे बड़ा नुकसान भगवान को ही पहुंचाता है।

रामायण में एक प्रशंग आता है कि नारद जी ने तपस्या करके इंद्र जाल को काटकर काम देवता को हरा दिया। तब इंद्र व काम देवता ने अंतिम  प्रसंशा रूपी इंद्रजाल फैलाया और उनकी स्तुति की प्रशंसा किया कि आप शंकर जी के समान हो गए हैं। क्योंकि आप ने काम को परास्त कर दिया।

नारद जी अहंकार में भर उठे और शिव दरबार मे जाकर नारायण के गुणगान की जगह स्वयं का गुणगान किया। तब शिव ने अनुरोध किया कि जो मेरे समक्ष बोला नारद जी भगवान नारायण के समक्ष मत बोलना। लेकिन नारद नहीं माने। नारायण के समक्ष बोल दिया कि मैं शिव समान हो गया हूँ। तब भगवान नारायण ने उनकी और प्रसंशा की। लेकिन भक्त नारद के उद्धार हेतु और इंद्र के जाल को काटने हेतु माया रची। स्वयं मोहनी रूप में प्रकट हो गए। नारद भटक गए, उन्हें पाने के लिए झूठ तक बोल डाला। नारायण से उनका रूप मांगा। माया के अनुसार मोहिनी ने स्वयंवर में नारद को नहीं चुना। नारद क्रोध में भर उठे और भगवान नारायण को श्राप दे दिया। उनका श्रीलक्ष्मी जी जिन्हें वो माँ कहते थे उनसे वियोग लिख दिया। जय विजय नारायण दूतों को राक्षस बनने का श्राप दे दिया।

एक भक्त की विकृत हुई अहंकार में मानसिकता ने भगवान नारायण, पूरी पृथ्वी, पूरी मानवता और स्वयं लक्ष्मी के लिए यातनाएं किस्मत में लिख दी, रक्तपात लिख दिया।

जब नारद को होश आया तब तक देर हो चुकी थी। अब पछताने से नुकसान की भरपाई हो नहीं सकती। पुनः पछतावे में तपस्या में नारद चले गए।

भक्त को हनुमानजी की तरह होना चाहिए, तभी वह जीवन में कभी स्वयं के कारण भगवान को नुकसान नहीं पहुंचाएगा। वह तत्वदृष्टि से समझ पायेगा कि *लँका जलाई नहीं गयी थी, श्रीराम भगवान द्वारा जलवाई गयी थी।* लेकिन यह गूढ़ रहस्य समझने के लिए निर्मल भक्ति व निरहंकारी होना पड़ेगा।

जब समस्त वानर सेना व जामवंत प्रसंशा के पुल बांध रहे थे कि रावण की लंका हनुमानजी ने जलाई।

श्रीराम जी ने हनुमान जी की प्रसंशा कि तब हनुमानजी ने विनम्रता से इंकार करते हुए कहा, प्रभु लँका मैंने नहीं जलाई, प्रभु लँका तो आपने मुझसे जलवाई।मुझे निमित्त बनाने के लिए धन्यवाद।

जब आपने मुझे अंगूठी दी, तब मुझे मेरे बल का ज्ञान नहीं था। जामवंत तो प्रभु मेरे साथ पिछले कई वर्ष से थे उन्होंने मेरा बल पहले कभी याद नहीं दिलाया। जब आपकी इच्छा हुई मेरा बल मुझे याद आया। मेरे जन्म से पहले मेरी कार्य योजना की स्क्रिप्ट आपने लिख रखी थी, यह मुझे लंकिनी ने बताया  जब मैंने उसे एक घूसा मारा, वह जब होश में आई तो बताया कि ब्रह्मा जी ने बताया था तुम जब आकर मुझे घूसा मारकर बेहोश करोगे उस दिन से लँका के विनाश का क्रम शुरू होगा। मुझे लँका में क्या करना है यह त्रिजटा राक्षसी के स्वप्न देकर बताया। *सपने वानर लँका जारी, तेहि अशोक वाटिका उजारी।* तब मैंने माता सीता को प्रणाम कर जो मेसेज मुझे आपने दिया वही किया, अशोक वाटिका उजाड़ दिया। लेकिन मैं चिंतित था कि आग लगाने के लिए मशाल कहाँ मिलेगी। प्रभु आग का प्रबंध भी आपने रावण से ही करवा दिया, रावण ने ही मेरी पूंछ में आग लगवा दी।

*जिन जिन लोगों के घर से कपड़े तेल आया था, हमने तो बस उनके जलते हुए कपड़े उन्हीं के घर लौटा दिया। जिसने जिसने विभीषण की तरह अपना कपड़ा मेरी पूंछ में नहीं बांधा उनका घर हमने नहीं जलाया।*

अब प्रभु आप बताइए, लँका मैंने जलाई या आपने जलवाई? मैं नहीं निमित्त बनता तो कोई और बनता। क्योंकि आप तो कंकड़ पत्थर से भी अपना काम करवा लेते हो।

श्री भगवान हँस दिए, बोले हनुमान तुम मेरे अति प्रिय हो। मैं तुम्हारे हृदय में सदा श्री सीता सहित वास करूंगा।

अब तय कीजिये कि किसकी तरह भक्ति करनी है, नारद जी की तरह या हनुमानजी की तरह करनी है? दोनों की भक्ति ज्ञान व समर्पण अतुलनीय है। दोनों ही श्रेष्ठ व पूजनीय है।

ऐसे ही किसी भी मिशन में दोनों तरह के भक्त हैं, एक अहंकार में अज्ञानतावश अपने ही मिशन को नुकसान पहुंचाते हैं। दूसरे जानते हैं कि जो कार्य मुझसे बन पड़ा, वह ईश्वर की कृपा मुझपर हुई जो मैं इस कार्य के निमित्त बना।

यह पोस्ट सबके समझ मे नहीं आएगी, क्योंकि बड़ा गहन व गूढ़ प्रश्न है व इसका उत्तर उतना ही गूढ़ है। उम्र लग जायेगी यह समझने में कि लँका जलाई गई कि जलवाई गयी? मैंने अमुक मिशन का कार्य किया या मुझे निमित्त बनाया गया?

🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन

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