*आपका मन मन्दिर है या कूड़ा घर? आप स्वाधीन(स्वतंत्र) हैं या पराधीन(परतंत्र) हैं?*
तुलसीदास जी कहते हैं,
पराधीन सुख सपनेहुँ नाहीं
जो पराधीन है, वह कभी सुखी नहीं हो सकता।
पराधीनता यदि विचारों की हो तो भी सुखी नहीं रहा जा सकता।
यदि तुम स्वयं का सम्मान व प्रशंशा दूसरों से चाहते हो तो तुम पराधीन बन रहे हो...
यदि तुम्हें कोई गाली देता व अपमानित करता है, और तुम उन बातों को मन में सुरक्षित कर के कड़वी यादों के रूप में हमेशा याद रखते हो, तो तुम मानसिक पराधीन बनते हो..
तुम खुश रहोगे या दुःखी जब दूसरे तय करते हैं तब तुम मानसिक पराधीन बनते हो...
जो स्वयं को स्वयं ख़ुश रखने की जिम्मेदारी उठाता है, वह ही केवल सुखी रहने का अधिकारी होता है...
कोई मुझे गाली दो या कोई मेरी प्रसंशा करे यह उसकी मर्ज़ी है, लेक़िन मैं यह तय कर सकती हूँ कि उसकी बातों को मुझे सिरियसली लेना भी है या नहीं, मेरी ख़ुशी वस्तुतः मेरे हाथ में है। कोई दूसरा कैसे तय कर सकता है कि मैं खुश रहूँगी या दुःखी?
जिसे मेरी खुशियों की परवाह हो और जिसने मुझे मेरे जीवन में ऊंचाई तक ले जाने में योगदान किया हो, जो मेरा भला चाहता है, मैं केवल उसी की बातों को हृदय में प्रवेश देती हूँ।
जिसे मेरी परवाह नहीं, उसकी परवाह मैं क्यों करूँ? उसकी बातों से सूखी या दुःखी क्यों हूँ? उसकी कोई भी याद मन मष्तिष्क में क्यों रखूं?
मेरा दिमाग़ कूड़ाघर नहीं है जहां मैं बुरी व कड़वी यादों को स्टोर करूँ।
मेरा मन तो मन्दिर है, यहाँ भजन गूंजते है, उसकी कृपा गूंजती है, उसका नाम गूंजता है। मेरे मन में सत चित आनन्द रूप परमात्मा रहता है। मैं उसके सान्निध्य में आनन्द में हूँ।
परमात्मा को याद करेंगे तो मन मन्दिर बनेगा, कड़वी यादों को याद करेंगे तो कूड़ाघर मन बनेगा। अंधकार को अस्त्र-शस्त्र से लड़कर नहीं भगाया जाता, अपितु केवल एक छोटे से दिए को जलाकर अंधकार भगाया जा सकता है। इसी तरह नकारात्मक विचारों को उससे लड़कर नहीं भगाया जा सकता, अपितु केवल सकारात्मक विचारों को पढंकर-सुनकर-सोचकर नकारात्मक विचारों को हटाया जा सकता है। प्रकाश का अभाव अँधेरा है, सकारात्मक विचारों का अभाव नकारात्मक विचार हैं।
हम स्वयं तय कर सकते हैं कि मन कूड़ाघर बनेगा या मन मन्दिर बनेगा...हम स्वाधीन होंगे या पराधीन होंगे..जो चयन करेंगे वैसा हमारे साथ घटेगा..
🙏🏻श्वेता, DIYA
तुलसीदास जी कहते हैं,
पराधीन सुख सपनेहुँ नाहीं
जो पराधीन है, वह कभी सुखी नहीं हो सकता।
पराधीनता यदि विचारों की हो तो भी सुखी नहीं रहा जा सकता।
यदि तुम स्वयं का सम्मान व प्रशंशा दूसरों से चाहते हो तो तुम पराधीन बन रहे हो...
यदि तुम्हें कोई गाली देता व अपमानित करता है, और तुम उन बातों को मन में सुरक्षित कर के कड़वी यादों के रूप में हमेशा याद रखते हो, तो तुम मानसिक पराधीन बनते हो..
तुम खुश रहोगे या दुःखी जब दूसरे तय करते हैं तब तुम मानसिक पराधीन बनते हो...
जो स्वयं को स्वयं ख़ुश रखने की जिम्मेदारी उठाता है, वह ही केवल सुखी रहने का अधिकारी होता है...
कोई मुझे गाली दो या कोई मेरी प्रसंशा करे यह उसकी मर्ज़ी है, लेक़िन मैं यह तय कर सकती हूँ कि उसकी बातों को मुझे सिरियसली लेना भी है या नहीं, मेरी ख़ुशी वस्तुतः मेरे हाथ में है। कोई दूसरा कैसे तय कर सकता है कि मैं खुश रहूँगी या दुःखी?
जिसे मेरी खुशियों की परवाह हो और जिसने मुझे मेरे जीवन में ऊंचाई तक ले जाने में योगदान किया हो, जो मेरा भला चाहता है, मैं केवल उसी की बातों को हृदय में प्रवेश देती हूँ।
जिसे मेरी परवाह नहीं, उसकी परवाह मैं क्यों करूँ? उसकी बातों से सूखी या दुःखी क्यों हूँ? उसकी कोई भी याद मन मष्तिष्क में क्यों रखूं?
मेरा दिमाग़ कूड़ाघर नहीं है जहां मैं बुरी व कड़वी यादों को स्टोर करूँ।
मेरा मन तो मन्दिर है, यहाँ भजन गूंजते है, उसकी कृपा गूंजती है, उसका नाम गूंजता है। मेरे मन में सत चित आनन्द रूप परमात्मा रहता है। मैं उसके सान्निध्य में आनन्द में हूँ।
परमात्मा को याद करेंगे तो मन मन्दिर बनेगा, कड़वी यादों को याद करेंगे तो कूड़ाघर मन बनेगा। अंधकार को अस्त्र-शस्त्र से लड़कर नहीं भगाया जाता, अपितु केवल एक छोटे से दिए को जलाकर अंधकार भगाया जा सकता है। इसी तरह नकारात्मक विचारों को उससे लड़कर नहीं भगाया जा सकता, अपितु केवल सकारात्मक विचारों को पढंकर-सुनकर-सोचकर नकारात्मक विचारों को हटाया जा सकता है। प्रकाश का अभाव अँधेरा है, सकारात्मक विचारों का अभाव नकारात्मक विचार हैं।
हम स्वयं तय कर सकते हैं कि मन कूड़ाघर बनेगा या मन मन्दिर बनेगा...हम स्वाधीन होंगे या पराधीन होंगे..जो चयन करेंगे वैसा हमारे साथ घटेगा..
🙏🏻श्वेता, DIYA
No comments:
Post a Comment