Monday 10 February 2020

बुद्धू और बुद्ध में फ़र्क़ समझें

*बुद्धू और बुद्ध में फ़र्क़ समझें*

कुछ रोज पहले,
चाचा जी गुज़र गए,
उनके के लिए,
नजदीकी श्मशान में,
कफ़न इत्यादि ख़रीदने गया,
अंतिम क्रिया का सामान,
भारी मन से ख़रीदने गया।

एक वृद्ध बहन जी,
दुकान पर बैठी थीं,
जाते ही पूँछा,
मरने वाला पुरुष है? या महिला?
उसकी कद काठी क्या थी?
उन्हें न कोई मृतक के प्रति सम्वेदना थी,
न कोई चेहरे पर प्रतिक्रिया थी।

जानकारी दी कि,
मरने वाला पुरुष था,
बस फ़िर क्या सहजता से उन्होंने,
समान समस्त ऐसे दे दिया,
मानो वह पहले से सेट बनाकर रखा हो,
अन्य किराने वाले जैसे सामान देते हैं,
बस वैसे ही सहजता से वो सामान दे रही थीं।

वृद्ध बहन से पूँछा,
आप यह अंतिम क्रिया की दुकान,
कब से चला रही हो?
बेटा, बहुत वर्ष हो गए,
यह हमारी पुस्तैनी दुकान है,
पति के जाने के बाद से,
मैं ही चला रही हूँ।

क्या आपको यहाँ भय नहीं लगता,
हरियाणा में तो स्त्रियां श्मशान नहीं जाती,
आप स्त्री होकर यहाँ अंतिम क्रिया की दुकान चलाती हो,

वह हँसी और मेरी ओर देखा,
बोली जिंदा इंसान हानिकारक हैं,
मुर्दा इंसान नहीं,
जो ख़ुद दूसरों के कंधे पर आ रहा हो,
जो स्वयं जलकर खाक होने आ रहा हो,
वो भला किसी को क्या नुकसान पहुंचाएगा?

जी वह तो सत्य है,
लेक़िन लोग कहते हैं कि,
श्मशान में भूत होते हैं,
तो क्या आपको उससे डर नहीं लगता,
क्या आपको स्वप्न में यह सब नहीं दिखता।

वह हँसी और पुनः मेरी ओर देखा,
बोली बेटा,
क्या तुम समझते हो भगवान का  बही-खाता,
यहां कोई भी आत्मा किसी को बेवज़ह नहीं सताता,
कोई न कोई कर्मफ़ल का जब तक टकराव न हो,
तो कोई आत्मा किसी को नज़र भी नहीं आता,
शिव आज्ञा लेकर ही,
लेनदेन हेतु ही आत्मा किसी जीवित से सम्पर्क करता।

श्मशान में आने वाली,
इन हज़ारों-लाखों आत्माओं से,
जब मेरा इनसे कोई नाता नहीं है,
जब इनके कर्मफ़ल और मेरे कर्मफ़ल का कोई अनुबंध नहीं है,
इसलिए यह मुझे बेवज़ह नही सता सकते,
अतः इनसे मुझे कोई भय नहीं है।

गहन सोच सोचते हुए,
जब अंतिम क्रिया का,
सामान लेकर श्मशान आ रहा था,
दोनों तरफ़ कई ढेर सारी लाशें जल रही थी,
उनकी लपटें व तपन महसूस कर रहा था,
उन सबके स्वजनों के भीतर,
जगता वैराग्य भाव देख रहा था।

फ़िर पुनः सन्त कबीर की बात याद आ गयी,
चेहरे पर व्यंग्य मिश्रित मुस्कान छा गयी,
इनकी तरह मुझमें भी,
अभी इस वक्त वैराग्य जगा हुआ है,
आत्मा अमर और शरीर नश्वर का,
अश्रुपूरित अहसास जगा हुआ है,
मग़र अफ़सोस यह वैराग्य क्षणिक सा है,
परफ्यूम की तरह यह वैराग्य भी उड़ जाएगा,
यह लोग और मैं पुनः संसार में लौट कर,
बीस से तीस दिनों में सब भूल जाएंगे,
पुनः आत्मा का अहसास मिट जाएगा,
मात्र देहाभिमान और देह से जुड़े कर्म ही,
बस याद रह जायेगा।

मैं पुनः जुट जाऊँगा,
समाज में धौस ज़माने और वर्चस्व लहराने में,
ऐसे धन एकत्र करूंगा मानो हमेशा अमर रहूँगा,
या यह सब साथ ले जाऊँगा,
सब भूलकर पुनः मूवी का टिकट लूंगा,
परिवार सहित पॉपकॉर्न के साथ फ़िल्म देखूँगा,
यह वैराग्य पुनः तब ही जगेगा,
जब या तो मैं स्वयं मर रहा होऊंगा,
या पुनः किसी की अंतिम यात्रा देखूँगा।

घोर आश्चर्य है न,
मृत पूर्वजों की टँगी तस्वीरें भी,
हममें वैराग्य नहीं जगाती,
नित्य मरते हुए लोग देखते व सुनते हैं,
फ़िर भी कुछ नहीं चेताती,
भगवान बुद्ध ने तो सिर्फ,
एक रोगी वृद्ध और एक लाश देखी,
बुद्धत्व पाने में जुट गए,
हम तो कैंसर में मरते रोगियों से भरा,
कोई अस्पताल घूम आएं,
या हज़ारो जलती हो जहां लाशें,
वह श्मशान घूम आयें,
हम बुद्धुओं को कोई फ़र्क़ न पड़ेगा,
हममें ज्ञान व वैराग्य का भाव कभी स्थिर न रहेगा।

क्योंकि हम बुद्धू से बुद्ध बनना ही नहीं चाहते,
हम मदहोशी में जीने वाले जगना ही नहीं चाहते,
जीवन को समझना ही नहीं चाहते,
ज्ञानामृत पीना ही नहीं चाहते,
अपने कर्मो को सुधारना ही नहीं चाहते,
लोभ मोह तृष्णा से पीछा छुड़ाना ही नहीं चाहते।

हम बुद्धू हैं बुद्ध बनना नहीं चाहते,
पैसे, मान, सम्मान की हवस में जीना चाहते हैं,
रिश्तों को स्वार्थ में निचोड़ना चाहते हैं,
हम बुद्धू की तरह ही जीना चाहते हैं,
हम बुद्धु तरह ही मरना चाहते हैं।

🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन

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