Tuesday 7 April 2020

वैराग्य व आसक्ति त्याग का ध्यान

*वैराग्य व आसक्ति त्याग का ध्यान*

मेरा पसंदीदा ध्यान, जब मुझे वक्त मिलता है यह मैं करती हूँ। इससे आसक्ति व मोह बन्धन से ऊपर उठने में मुझे मदद मिलती है।

दीपक को जलने के लिए घी की आवश्यकता होती है, आत्मा को भी प्रकाशित होने के लिए तप-साधना की शक्ति रूपी ईंधन की आवश्यकता होती है।

ध्यानस्थ हो कमर सीधी करके कम्बल के आसन पर बैठ जाती हूँ। मोबाइल  में मधुर हल्की आवाज़ में बांसुरी युक्त नाद योग चला देती हूँ।

ध्यान में कल्पना के माध्यम से धारणा करती हूँ कि मैंने मेरा शरीर कम्बल के आसन पर ध्यानस्थ छोड़ दिया है। अब मैं शरीर से अलग होकर स्वयं को देखती हूँ, अच्छा तो अभी मेरा वास इस शरीर में है। अब मैं मेरे आदिस्रोत सद्गुरु से मिलने खिड़की से निकलती हूँ। आत्मा हूँ हल्की होती हूँ और हवा में गमन में कोई परेशानी होती नहीं तो बादलों के साथ उड़ते हुए गुरुग्राम से शान्तिकुंज कल्पना करते हुए पहुंचती हूँ, बड़े आराम से पूरे शान्तिकुंज का दर्शन क्रमशः समाधिदर्शन, दैनिक यज्ञ में आहुति, सप्तऋषि दर्शन, गायत्री मन्दिर दर्शन, अखण्डदीप दर्शन व परमपूज्य गुरुदेव व माताजी के दर्शन करती हूँ। 

वहाँ से कल्पना करते हुए उनके साथ कैलाश मानसरोवर की ओर बढ़ती हूँ। वहां जाकर मैं कल्पना करती हूँ, कि शिव में गुरुदेव समा गए और आद्यशक्ति पार्वती में माता जी समा गई।

दोनों के चरण वंदन करती हूँ, पुनः ध्यान करती हूँ कि शिव और पार्वती भी अर्ध नारीश्वर होकर पुनः एक शिव में हो गए।

अब शिव जी के साथ मैं श्मशान ध्यान में जाती हूँ। जलती लाशों के बीच आदियोगी शिव के मार्गदर्शन में ध्यान करती हूँ। मेरे कई जन्मों के शरीर को जलता हुआ अनुभव करती हूँ, प्रत्येक शरीर के मिटने व नये शरीर मे जन्मने के अनुभवों को अनूभूत करती हूँ। प्रत्येक शरीर के साथ उससे जुड़े रिश्तों के जलने व मिटने का अनुभव करती हूँ, नए शरीर मे नए रिश्ते अनुभूत करती हूँ। मेरी अनन्त यात्रा के विभिन्न पड़ाव मेरे प्रत्येक शरीर व जन्म अनुभूत करती हूँ।

पुनः शिवो$हम का आती जाती श्वांस के माध्यम से ध्यान करती हूँ, स्वयं को एक अग्निवत ज्योति रूप में ध्यान करते हुए आदियोगी शिव में ही समाहित हो जाती हूँ। वर्षा की बूंद का समुद्र में गिरकर समुद्र ही हो जाना, समिधा का अग्नि में प्रवेश कर अग्नि हो जाना, स्वयं का शिव में समाकर शिव ही हो जाना अनुभूत करती हूँ। कुछ क्षण बिना कुछ सोचे ध्यानस्थ होती हूँ इतनी ध्यामस्थ की कुछ सुनाई दिखाई व अनुभुत व कल्पना सब बन्द हो जाता है।

पुनः शिव से बाहर ज्योति आती है, शिव आज्ञा से पुनः शिव के साथ गुरुग्राम वापस आती हूँ। मुझे स्वयं से निकालकर शिव मेरे शरीर में प्रवेश करा देते हैं। शिव गुरुदेब की तस्वीर में समा जाते हैं।

पुनः मैं धीरे धीरे सामान्य होती हूँ, हाथों को गायत्री मंत्र पढंकर रगड़ कर पूरे चेहरे पर घुमा कर शांति पाठ करके उठ जाती हूँ।

इस ध्यान के बाद मुझे मेरे घर के सभी सदस्य व संसार के सदस्य एक आत्मा दिखती व अनुभूत होती हैं, जो अपनी अपनी यात्रा में हैं। फिर कोई राग द्वेष मोह इत्यादि की जकड़ महसूस नहीं होती। मन शांत व स्थिर होता है। बड़ा अच्छा महसूस होता है।

कल्पना से धारणा और धारणा से स्वतः ध्यान घटना कुछ ऐसा होता है मानो दूध में दही का जामन डालकर छोड़ देना। कल्पना युक्त धारणा एक जामन का कार्य करती है। ध्यान के घटित होने में मदद करती है।

जहां ध्यान जाएगा उसी ओर ऊर्जा प्रवाहित होगी। उसी क्षेत्र की अनुभूति बढ़ेगी।

आपकी बहन
🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन

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