प्रश्न - *विचारों में पवित्रता व हृदय की निर्मलता बढाने के लिए क्या उपाय करें? साधना में क्या सम्मिलित करें?*
उत्तर - आत्मीय दी,
युगऋषि की पुस्तक भाव संवेदना की गंगोत्री को पढ़िये व उसके सूत्र दैनिक जीवन में अपनाइए।
मन को निर्मल और विचारों को पवित्र करने के बारे में कबीर साहब के दो दोहे प्रचलित हैं जो आज भी जन सामान्य के लिए उपयोगी हैं।
1) *सब ही भूमि बनारसी, सब नीर गंगा तोय।*
*ज्ञानी आतम राम है, जो निर्मल घट होय ॥*
अर्थ: जिसका मन निर्मल है, उसके लिए सभी स्थान बनारस की पावन भूमि की तरह ही पवित्र हैं। जिसका मन निर्मल है, उसके लिए सभी जल गंगा की तरह निर्मल है। जिसका मन निर्मल है, वही राम रहते है। अगर आप का मन निर्मल नहीं है तो वहाँ राम नहीं रह सकते । अपने मन को निर्मल बनाना इस बातको कबीर साहब ने सबसे जादा महत्व दिया है। अगर आपका मन निर्मल है तो फिर आपको तीरथ यात्रा करना, गंगा में डुबकी लगाना, मंदिर में जाकर राम को ढूंढने की जरुरत नहीं है। अगर आप का मन निर्मल नहीं है और आप मन को निर्मल बनाना छोड़कर केवल तीरथ यात्रा करना, गंगा में डुबकी लगाना, मंदिर में जाकर राम को ढूंढ़ते तो तो फिर उसका कुछ लाभ नहीं होगा।
कबीर साहब एक और दोहे में यही बात कहते है।
2) *कबीर मन निर्मल भया,जैसे गंगा नीर।*
*तो फिर पीछे हरी लागे, कहत कबीर कबीर।*
अर्थ - अगर आपने अपने मन को पवित्र बनाया तो फिर आपको खुद भगवान ढूंढेगा, आपको फिर भगवान को ढूंढ़ने की जरुरत नहीं है। आपका मन अगर पवित्र रहेगा तो भगवान आपके पीछे आयेगा। मन को निर्मल और पवित्र रखने के बारे में ये दो दोहे है।
*ऊधौ मन चंगा तो कठवत में गंगा* - मन निर्मल हो तो हाथ में रखा लोटे का जल भी गंगा जल सा पवित्र हो जाएगा।
दी, यदि उपासना बढ़ाने से मन निर्मल होना होता तो रावण इत्यादि राक्षस से ज्यादा उपासना किसी ने की ही नहीं और कर सकता भी नहीं। परन्तु उनका मन न निर्मल हुआ और न ही विचार पवित्र हुए। क्योंकि उपासना के पीछे का उद्देश्य ही दूषित व अहंकार के पोषण के लिए था। उपासना की ऊर्जा का नियोजन कहाँ करना है? ऊर्जा से हीटर जलाना है या एयरकंडीशनर यह तो मनुष्य ही तय करता है।
साधना - आत्मशोधन व आत्मीयता के विस्तार से ही मन निर्मल व विचारों में पवित्रता आती है।
*जब कोई भी उपासना, साधना कार्य या मानव सेवा कार्य कर्ता भाव से, आशक्ति व सम्मान पाने के भाव से किया जाएगा, तब वह मन, हृदय, स्वभाव को दूषित करेगा व अहंकार जगाएगा।*
*जब कोई भी उपासना, साधना कार्य या मानव सेवा कार्य ईश्वर निमित्त बनकर सेवा भाव से, ईश्वर के प्रेम में, विरक्ति व वैराग्य भाव से, बिना किसी चाह के किया जाएगा, तब वह हृदय, स्वभाव व मन में निर्मलता और विचारों में पवित्रता लाएगा।*
दी, गंगा की पवित्रता को भागीरथ के तप ने तब और बढ़ा दिया, जब यह तप लोककल्याण के निमित्त और सेवा भाव से किया गया। गंगा जब धरती पर आई तो मात्र प्यार लुटाने व निर्मलता पवित्रता देने आई। यदि यही भागीरथ स्वार्थ भाव से केवल अपने पूर्वजों की मुक्ति के लिए करते तो गंगा मात्र कुंड में अवतरित होती और सगर पुत्रो को मुक्त कर लुप्त हो जाती या कुंड में ही रह जाती तो निर्मलता व पवित्रता खो देती।
जब जब मानव अहंकार पोषण के लिए स्वार्थकेन्द्रित कर्म करेगा, कूपमण्डूक बनेगा और पवित्रता खोकर दूषित हो जाएगा, अहंकारी बन जायेगा। इसके विपरीत जैसे ही परमार्थ केंद्रित व ईश्वर के प्रेम में ईश्वर निमित्त कर्म करेगा गंगा की तरह विस्तार लेगा, उसका हृदय, मन, स्वभाव व विचार गंगा की तरह पवित्र बन जाएंगे।
🙏🏻श्वेता, DIYA
उत्तर - आत्मीय दी,
युगऋषि की पुस्तक भाव संवेदना की गंगोत्री को पढ़िये व उसके सूत्र दैनिक जीवन में अपनाइए।
मन को निर्मल और विचारों को पवित्र करने के बारे में कबीर साहब के दो दोहे प्रचलित हैं जो आज भी जन सामान्य के लिए उपयोगी हैं।
1) *सब ही भूमि बनारसी, सब नीर गंगा तोय।*
*ज्ञानी आतम राम है, जो निर्मल घट होय ॥*
अर्थ: जिसका मन निर्मल है, उसके लिए सभी स्थान बनारस की पावन भूमि की तरह ही पवित्र हैं। जिसका मन निर्मल है, उसके लिए सभी जल गंगा की तरह निर्मल है। जिसका मन निर्मल है, वही राम रहते है। अगर आप का मन निर्मल नहीं है तो वहाँ राम नहीं रह सकते । अपने मन को निर्मल बनाना इस बातको कबीर साहब ने सबसे जादा महत्व दिया है। अगर आपका मन निर्मल है तो फिर आपको तीरथ यात्रा करना, गंगा में डुबकी लगाना, मंदिर में जाकर राम को ढूंढने की जरुरत नहीं है। अगर आप का मन निर्मल नहीं है और आप मन को निर्मल बनाना छोड़कर केवल तीरथ यात्रा करना, गंगा में डुबकी लगाना, मंदिर में जाकर राम को ढूंढ़ते तो तो फिर उसका कुछ लाभ नहीं होगा।
कबीर साहब एक और दोहे में यही बात कहते है।
2) *कबीर मन निर्मल भया,जैसे गंगा नीर।*
*तो फिर पीछे हरी लागे, कहत कबीर कबीर।*
अर्थ - अगर आपने अपने मन को पवित्र बनाया तो फिर आपको खुद भगवान ढूंढेगा, आपको फिर भगवान को ढूंढ़ने की जरुरत नहीं है। आपका मन अगर पवित्र रहेगा तो भगवान आपके पीछे आयेगा। मन को निर्मल और पवित्र रखने के बारे में ये दो दोहे है।
*ऊधौ मन चंगा तो कठवत में गंगा* - मन निर्मल हो तो हाथ में रखा लोटे का जल भी गंगा जल सा पवित्र हो जाएगा।
दी, यदि उपासना बढ़ाने से मन निर्मल होना होता तो रावण इत्यादि राक्षस से ज्यादा उपासना किसी ने की ही नहीं और कर सकता भी नहीं। परन्तु उनका मन न निर्मल हुआ और न ही विचार पवित्र हुए। क्योंकि उपासना के पीछे का उद्देश्य ही दूषित व अहंकार के पोषण के लिए था। उपासना की ऊर्जा का नियोजन कहाँ करना है? ऊर्जा से हीटर जलाना है या एयरकंडीशनर यह तो मनुष्य ही तय करता है।
साधना - आत्मशोधन व आत्मीयता के विस्तार से ही मन निर्मल व विचारों में पवित्रता आती है।
*जब कोई भी उपासना, साधना कार्य या मानव सेवा कार्य कर्ता भाव से, आशक्ति व सम्मान पाने के भाव से किया जाएगा, तब वह मन, हृदय, स्वभाव को दूषित करेगा व अहंकार जगाएगा।*
*जब कोई भी उपासना, साधना कार्य या मानव सेवा कार्य ईश्वर निमित्त बनकर सेवा भाव से, ईश्वर के प्रेम में, विरक्ति व वैराग्य भाव से, बिना किसी चाह के किया जाएगा, तब वह हृदय, स्वभाव व मन में निर्मलता और विचारों में पवित्रता लाएगा।*
दी, गंगा की पवित्रता को भागीरथ के तप ने तब और बढ़ा दिया, जब यह तप लोककल्याण के निमित्त और सेवा भाव से किया गया। गंगा जब धरती पर आई तो मात्र प्यार लुटाने व निर्मलता पवित्रता देने आई। यदि यही भागीरथ स्वार्थ भाव से केवल अपने पूर्वजों की मुक्ति के लिए करते तो गंगा मात्र कुंड में अवतरित होती और सगर पुत्रो को मुक्त कर लुप्त हो जाती या कुंड में ही रह जाती तो निर्मलता व पवित्रता खो देती।
जब जब मानव अहंकार पोषण के लिए स्वार्थकेन्द्रित कर्म करेगा, कूपमण्डूक बनेगा और पवित्रता खोकर दूषित हो जाएगा, अहंकारी बन जायेगा। इसके विपरीत जैसे ही परमार्थ केंद्रित व ईश्वर के प्रेम में ईश्वर निमित्त कर्म करेगा गंगा की तरह विस्तार लेगा, उसका हृदय, मन, स्वभाव व विचार गंगा की तरह पवित्र बन जाएंगे।
🙏🏻श्वेता, DIYA
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