प्रश्न - *वैराग्य, सन्यास और ब्रह्मचर्य में क्या अंतर है?*
उत्तर- आत्मीय भाई, यह तीनों शब्द कुछ समानता और कुछ अंतर रखते हैं, यहां केवल हम अंतर को ही बता रहे हैं।
👉🏻 *वैराग्य* - विराग शब्द से व्युत्पन्न है जो दो शब्दों से मिल कर बना है - *वि* + *राग*.
जिसका अर्थ होता है कि राग (आसक्ति) से मुक्त होना। कर्म करना मग़र उसके फ़ल से आसक्ति न रखना। किसी भी सांसारिक सम्बन्धो से आसक्ति-राग न रखना। कमल की तरह सांसारिक कीचड़ से ऊपर उठना। संसार, सांसारिक सम्बन्धो व सांसारिक वस्तुओं से निर्लिप्त रहना। इन्द्रिय सुखों को त्याग देना। जीवन निर्वहन के लिए जरूरी संसाधनों मात्र का प्रयोग करना। ईश्वर निमित्त बनकर ईश्वर के लिए जीवन जीना, उनकी इच्छा के लिए जीना। ऐसे लोग किसी भी कर्मबन्धन में नहीं बंधते। इन्हें न स्वर्ग की चाहत होती है और ब नरक में जाने का भय होता है। इनकी समस्त आसक्ति का केंद्र मात्र ईश्वर प्रेम होता है। ईश्वर के लिए सर्वस्व त्याग।
वैराग्य धारण करने वाला गृहस्थ भी हो सकता है और ब्रह्मचारी भी हो सकता है और सन्यासी भी वैरागी हो सकता है।
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*ब्रह्मचर्य* - ये शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है:- *ब्रह्म* + *चर्य* , अर्थात ज्ञान प्राप्ति के लिए संयमित जीवन बिताना। ब्रह्म को समर्पित जीवन जीना, कण कण में ब्रह्म की अनुभूति करना।
ब्रह्मचर्य के पालन करने वाले अक्सर अविवाहित होते हैं, क्योंकि वह ब्रह्म विद्या की प्राप्ति में सतत प्रयत्नशील रहते हैं। चार आश्रम व्यवस्था (ब्रह्मचर्य आश्रम, गृहस्थ आश्रम, वानप्रस्थ आश्रम, सन्यास आश्रम) में प्रथम आश्रम है। किसी भी वासना व इच्छा को त्याग के संयमित होकर केवल ब्रह्मविद्या, शास्त्र व शस्त्र ज्ञान के लिए प्रयत्नशील रहता है। तो विवाह व प्रेमासक्ति का कोई प्रश्न नहीं उठता।
यह समयबद्ध मात्र शिक्षा के समय भी हो सकता है और जीवन पर्यंत भी अविवाहित रहकर योगारूढ़ होने के लिए पालन किया जा सकता है। गृहस्थ भी सन्तान के जन्म के बाद पुनः ब्रह्मचर्य आंशिक या पूर्ण धारण कर सकता है। ब्रह्मचर्य मानसिक व शारीरिक दोनो होता है।
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*सन्यास* - सन्यास शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है - *स* + *न्यास* , जो शाश्वत है जो सत्य है उस को स्वयं में स्थापित करना। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए जो भी आवश्यक हो उसका परित्याग कर देना।
सन्यास का अर्थ सांसारिक बंधनों से मुक्त होकर निष्काम भाव से प्रभु का स्मरण निरंतर करते रहना। शास्त्रों में सन्यास को जीवन की सर्वोच्च अवस्था कहते हैं, आश्रम व्यवस्था में यह अंतिम आश्रम है। सन्यासी इस संसार में रहते हुए निर्लिप्त बने रहते हैं, अर्थात् ब्रह्म चिन्तन में लीन रहते हुए भौतिक आवश्यकताओं के प्रति उदासीन रहते हैं।
सन्यासी का गृहत्यागी होना और समस्त शरीर से जुड़े सम्बन्धो का त्याग करना अनिवार्य शर्त है, भ्रमण करते हुए समाज सेवा करना और जन जन को धर्म से जोड़ना प्रमुख उद्देश्य होता है। सन्यासी गृहस्थ और ब्रह्मचारी दोनो बन सकता है।
🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन
उत्तर- आत्मीय भाई, यह तीनों शब्द कुछ समानता और कुछ अंतर रखते हैं, यहां केवल हम अंतर को ही बता रहे हैं।
👉🏻 *वैराग्य* - विराग शब्द से व्युत्पन्न है जो दो शब्दों से मिल कर बना है - *वि* + *राग*.
जिसका अर्थ होता है कि राग (आसक्ति) से मुक्त होना। कर्म करना मग़र उसके फ़ल से आसक्ति न रखना। किसी भी सांसारिक सम्बन्धो से आसक्ति-राग न रखना। कमल की तरह सांसारिक कीचड़ से ऊपर उठना। संसार, सांसारिक सम्बन्धो व सांसारिक वस्तुओं से निर्लिप्त रहना। इन्द्रिय सुखों को त्याग देना। जीवन निर्वहन के लिए जरूरी संसाधनों मात्र का प्रयोग करना। ईश्वर निमित्त बनकर ईश्वर के लिए जीवन जीना, उनकी इच्छा के लिए जीना। ऐसे लोग किसी भी कर्मबन्धन में नहीं बंधते। इन्हें न स्वर्ग की चाहत होती है और ब नरक में जाने का भय होता है। इनकी समस्त आसक्ति का केंद्र मात्र ईश्वर प्रेम होता है। ईश्वर के लिए सर्वस्व त्याग।
वैराग्य धारण करने वाला गृहस्थ भी हो सकता है और ब्रह्मचारी भी हो सकता है और सन्यासी भी वैरागी हो सकता है।
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*ब्रह्मचर्य* - ये शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है:- *ब्रह्म* + *चर्य* , अर्थात ज्ञान प्राप्ति के लिए संयमित जीवन बिताना। ब्रह्म को समर्पित जीवन जीना, कण कण में ब्रह्म की अनुभूति करना।
ब्रह्मचर्य के पालन करने वाले अक्सर अविवाहित होते हैं, क्योंकि वह ब्रह्म विद्या की प्राप्ति में सतत प्रयत्नशील रहते हैं। चार आश्रम व्यवस्था (ब्रह्मचर्य आश्रम, गृहस्थ आश्रम, वानप्रस्थ आश्रम, सन्यास आश्रम) में प्रथम आश्रम है। किसी भी वासना व इच्छा को त्याग के संयमित होकर केवल ब्रह्मविद्या, शास्त्र व शस्त्र ज्ञान के लिए प्रयत्नशील रहता है। तो विवाह व प्रेमासक्ति का कोई प्रश्न नहीं उठता।
यह समयबद्ध मात्र शिक्षा के समय भी हो सकता है और जीवन पर्यंत भी अविवाहित रहकर योगारूढ़ होने के लिए पालन किया जा सकता है। गृहस्थ भी सन्तान के जन्म के बाद पुनः ब्रह्मचर्य आंशिक या पूर्ण धारण कर सकता है। ब्रह्मचर्य मानसिक व शारीरिक दोनो होता है।
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*सन्यास* - सन्यास शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है - *स* + *न्यास* , जो शाश्वत है जो सत्य है उस को स्वयं में स्थापित करना। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए जो भी आवश्यक हो उसका परित्याग कर देना।
सन्यास का अर्थ सांसारिक बंधनों से मुक्त होकर निष्काम भाव से प्रभु का स्मरण निरंतर करते रहना। शास्त्रों में सन्यास को जीवन की सर्वोच्च अवस्था कहते हैं, आश्रम व्यवस्था में यह अंतिम आश्रम है। सन्यासी इस संसार में रहते हुए निर्लिप्त बने रहते हैं, अर्थात् ब्रह्म चिन्तन में लीन रहते हुए भौतिक आवश्यकताओं के प्रति उदासीन रहते हैं।
सन्यासी का गृहत्यागी होना और समस्त शरीर से जुड़े सम्बन्धो का त्याग करना अनिवार्य शर्त है, भ्रमण करते हुए समाज सेवा करना और जन जन को धर्म से जोड़ना प्रमुख उद्देश्य होता है। सन्यासी गृहस्थ और ब्रह्मचारी दोनो बन सकता है।
🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन
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