प्रश्न - *कोई मुझे समझता नहीं, मेरी फीलिंग्स और इमोशनल अटैचमेंट का मज़ाक उड़ाते हैं। मेरे सही कार्य को भी गलत साबित करने पर लोग तुले रहते हैं, मेरे भीतर क्या चल रहा है उसे समझे बगैर मेरे लिए जजमेंट पास कर देते हैं। कोई मेरी कद्र नहीं करता। मेरी एक बुराई को हाइलाइट करते हैं और अनेकों अच्छाइयों को भूल जाते हैं। क्या करूँ?*
उत्तर - एक बार ऐसा ही प्रश्न एक शिष्य ने अपने गुरु से किया। गुरु ने एक बहुमूल्य पत्थर शिष्य के हाथ मे देकर बोला इसकी कीमत पता करके आओ। ध्यान रहे इसे बेचना मत।
शिष्य बहुमूल्य पत्थर लेकर सर्वत्र घुमा और शाम को गुरुजी को बताया कि, मैंने क्रमशः धोबी को दिखाया, धोबी ने उसका मूल्य चार आने तय किया। सब्जी वाले ने दो बोरे आलू और अनाज वाले ने 5 बोरा गेँहू उस पत्थर के मूल्य तय किया। सुनार ने उसकी कीमत 100 स्वर्ण मुद्राएं तय की। लेकिन जौहरी ने ज्यों ही उस बहुमूल्य पत्थर को देखा तो पहले रेशम का कपड़ा बिछाया और उस पर रख प्रणाम कर बोला। यह बेशकीमती बहुमूल्य रत्न रूबी है, इसे खरीदने की मेरी औकात नहीं है। इसे राजा को बिकवा सकता हूँ, यदि तुम चाहो।
तब गुरुजी मुस्कुराए, और बोले कुछ समझे। तुम इसी रत्न की तरह हो, तुम्हारा मूल्यांकन सभी अपनी योग्यता , समझ, भावना व ज्ञान अनुसार करते हैं, न कि तुम्हारी योग्यता, समझ, भावना व तुम्हारे ज्ञान के अनुसार तुम्हें जज करते हैं, तुम्हारी कद्र करते हैं। जो जौहरी नहीं वह यदि तुम्हारा धोबी की तरह मूल्यांकन चार आने कर रहा है, तो इसका कदापि अर्थ नहीं कि तुम्हारी औकात चार आने की है, यह भी हो सकता है कि मूल्यांकन करने वाले की अक्ल व औकात चार आने की हो। अतः दुःखी व व्यथित होने की आवश्यकता नहीं है।
तुम भी अपना सही मूल्यांकन तब कर सकोगे जब आत्मज्ञानी जौहरी बनोगे। स्वयं के अस्तित्व को जानोगे, अपनी फीलिंग्स को स्वयं जांचोगे, परखोगे, उसका एनालिसिस निष्पक्ष होकर करोगे। जब तुम स्वयं को नहीं जानते तब तुम दूसरों से कैसे उम्मीद कर सकते हो कि वह तुम्हें जाने समझे व तुम्हारी कद्र करे।
यह कलियुग है, जहाँ स्वार्थ सधता है, वहीँ यहां रिश्ता निभता है। अतः यहां सतयुगी निःश्वार्थ प्रेम करने वाला जीवनसाथी या अच्छा मित्र चाहना उचित नहीं है।
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं - *मोह सकल व्याधिन कर मूला* - इमोशनल अटैचमेंट किसी भी वस्तु या व्यक्ति के साथ दुःख का सृजन करती है।
*प्रेम व मित्रता तब बहुत सही व अत्यंत सुखदायी है* - जब आप किसी से बिना किसी स्वार्थ के करें, बदले में कुछ पाने की भावना से न करें, उसका भला चाहें। यहां सिर्फ प्यार व मित्रता में देने का भाव है।
*प्रेम व मित्रता तब बहुत गलत व अत्यंत दुःखदायी होता है* - जब आप सामने वाले से अपनी मनपसंद प्रेम चाहें, मन पसन्द व्यवहार बदले में चाहे, वह आपकी इच्छानुसार आपसे बात करे। वस्तुतः आप एक रिमोट कंट्रोल प्रेमी का या मित्र का चाहते हैं। उससे अपना भला करवाना चाहें। यहां व्यापार चाहिए - गिव एंड टेक नियम चलता है। व्यपार सफल और असफल दोनो हो सकता है।
स्वयं की भावनाओं को सम्हालने की हमारी क्षमता होनी चाहिए। जैसे भोजन का पाचन सही न हो तो लूज मोशन हो जाता है। दस्त -पेचिश स्वास्थ्य खराब कर देता है। ऐसे ही भावनाओं - इमोशन का पाचन न हुआ तो इमोशनल लूज मोशन, भावनाओं की दस्त-पेचिश आपका जीवन खराब कर देगा।
हम मनुष्य पशु जैसे स्वतंत्र नहीं की जहां भी दस्त-पेशाब लगे, कहीं भी खुले में कर दें। हम मनुष्य एक सामाजिक व्यस्था के अंग हैं। हम खुले में शौच करेंगे तो असभ्य कहलायेंगे। अतः हमें अपने घरों में टॉयलेट- वॉशरूम की व्यवस्था करनी होती है। मल मूत्र विसर्जन में भी विवेकदृष्टि अपनानी पड़ती है।
इसी तरह भावनाओं की अभिव्यक्ति भी खुले में नहीं की जा सकती। किसी के साथ भी यूँ ही इमोशनल अटैचमेंट करना उचित नहीं है। सहमति से विवाह करें, यदि सामने वाले की इच्छा नहीं तो उसे विवश न करें। विवशता में कर्म हो सकता है, प्रेम नहीं।
मित्रता किसी से करते वक्त भी सावधानी बरतें। पहले दो लड़कों की मित्रता व दो लड़कियों की मित्रता पर शक नहीं किया जा सकता था। परंतु आज़कल कलियुगी जमाना है। यहां दो अच्छे व सहज मित्रों को भी कलियुगी चश्मे से देखने वाले लोग अभद्र टिप्पणियों से पुकार सकतें हैं। अतः इसमे व्यथित होने या रोने धोने की आवश्यकता नहीं है। यह धोबी के द्वारा मूल्यांकन है, जौहरी के द्वारा नहीं जो इसे सीरियस लें। सबसे बड़ा रोग क्या कहेंगे लोग।
आपकी अंतरात्मा की सुने, स्वयं के विवेक को जागृत करें। किसी से भी अत्यधिक इमोशनल अटैचमेंट न हो। स्वयं की पूर्णता को स्वयं में तलाशें।
गुलाब को कांटो के बीच ही खिलना होता है। इंसान को तानों के बीच ही जीना होता है।
विवाह, मित्रता, रिश्तेदारी, सन्तान, माता-पिता सबके प्रति उत्तरदायित्व व कर्तव्य निर्वहन करें। लेकिन मोह में न पड़े, अत्यधिक इमोशनल अटैचमेंट में न पड़ें। किसी की इमोशन की बैसाखी पर जीवन न चलाएं, अपने पैरों पर चलें, अपने इमोशन को स्वयं सम्हालने की योग्यता बढ़ाये।
जब ध्यान व योग प्राणायाम करेंगे, *श्रीमद्भागवत गीता* का और *प्रसुप्ति से जागृति की ओर* जैसी पुस्तको का स्वाध्याय करेंगे, तब यह इमोशन के पाचन की दवा की तरह कार्य करेंगी। अपने इमोशन को पचाने में मदद करेंगी।
तब प्रेम तो करेंगे, मग़र मोह के मकड़जाल में आप नहीं जकड़ेंगे। मुक्त व मोक्षदायी आनन्दमय जीवन को जीने की कला सीख जाएंगे।
आप सूर्य बन जाएंगे। जैसे कोई सूर्य की कद्र करे या न करे, उसे जल चढ़ाएं या न चढ़ाए, वह नित्य उदय होगा, प्राण ऊर्जा बिखेरेगा। इसी तरह आप नित्य मानवीय कर्तव्य करेंगे, श्रेष्ठ कर्मो की ऊर्जा बिखेरेंगे, कोई इसकी कद्र करता है या नहीं आप उसकी परवाह नहीं करेंगे।
🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन
*नोट:-* भगवान मेरी सुनता नहीं, यह उन्हें कहने का अधिकार नहीं जिन्होंने कम से कम 108 बार श्रीमद्भगवद्गीता पढ़ी नहीं है, जो नित्य 15 मिनट ध्यान ईश्वर का करते नहीं है। क्योंकि जब तुमने भगवान को नहीं सुना, तब तुम क्यों चाहते हो कि भगवान तुम्हें सुने। विटामिन डी चाहिए तो सूर्य के समक्ष बैठना होगा। भगवान की कृपा चाहिए तो 15 मिनट ध्यान व 15 मिनट स्वाध्याय तो करना ही पड़ेगा।
उत्तर - एक बार ऐसा ही प्रश्न एक शिष्य ने अपने गुरु से किया। गुरु ने एक बहुमूल्य पत्थर शिष्य के हाथ मे देकर बोला इसकी कीमत पता करके आओ। ध्यान रहे इसे बेचना मत।
शिष्य बहुमूल्य पत्थर लेकर सर्वत्र घुमा और शाम को गुरुजी को बताया कि, मैंने क्रमशः धोबी को दिखाया, धोबी ने उसका मूल्य चार आने तय किया। सब्जी वाले ने दो बोरे आलू और अनाज वाले ने 5 बोरा गेँहू उस पत्थर के मूल्य तय किया। सुनार ने उसकी कीमत 100 स्वर्ण मुद्राएं तय की। लेकिन जौहरी ने ज्यों ही उस बहुमूल्य पत्थर को देखा तो पहले रेशम का कपड़ा बिछाया और उस पर रख प्रणाम कर बोला। यह बेशकीमती बहुमूल्य रत्न रूबी है, इसे खरीदने की मेरी औकात नहीं है। इसे राजा को बिकवा सकता हूँ, यदि तुम चाहो।
तब गुरुजी मुस्कुराए, और बोले कुछ समझे। तुम इसी रत्न की तरह हो, तुम्हारा मूल्यांकन सभी अपनी योग्यता , समझ, भावना व ज्ञान अनुसार करते हैं, न कि तुम्हारी योग्यता, समझ, भावना व तुम्हारे ज्ञान के अनुसार तुम्हें जज करते हैं, तुम्हारी कद्र करते हैं। जो जौहरी नहीं वह यदि तुम्हारा धोबी की तरह मूल्यांकन चार आने कर रहा है, तो इसका कदापि अर्थ नहीं कि तुम्हारी औकात चार आने की है, यह भी हो सकता है कि मूल्यांकन करने वाले की अक्ल व औकात चार आने की हो। अतः दुःखी व व्यथित होने की आवश्यकता नहीं है।
तुम भी अपना सही मूल्यांकन तब कर सकोगे जब आत्मज्ञानी जौहरी बनोगे। स्वयं के अस्तित्व को जानोगे, अपनी फीलिंग्स को स्वयं जांचोगे, परखोगे, उसका एनालिसिस निष्पक्ष होकर करोगे। जब तुम स्वयं को नहीं जानते तब तुम दूसरों से कैसे उम्मीद कर सकते हो कि वह तुम्हें जाने समझे व तुम्हारी कद्र करे।
यह कलियुग है, जहाँ स्वार्थ सधता है, वहीँ यहां रिश्ता निभता है। अतः यहां सतयुगी निःश्वार्थ प्रेम करने वाला जीवनसाथी या अच्छा मित्र चाहना उचित नहीं है।
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं - *मोह सकल व्याधिन कर मूला* - इमोशनल अटैचमेंट किसी भी वस्तु या व्यक्ति के साथ दुःख का सृजन करती है।
*प्रेम व मित्रता तब बहुत सही व अत्यंत सुखदायी है* - जब आप किसी से बिना किसी स्वार्थ के करें, बदले में कुछ पाने की भावना से न करें, उसका भला चाहें। यहां सिर्फ प्यार व मित्रता में देने का भाव है।
*प्रेम व मित्रता तब बहुत गलत व अत्यंत दुःखदायी होता है* - जब आप सामने वाले से अपनी मनपसंद प्रेम चाहें, मन पसन्द व्यवहार बदले में चाहे, वह आपकी इच्छानुसार आपसे बात करे। वस्तुतः आप एक रिमोट कंट्रोल प्रेमी का या मित्र का चाहते हैं। उससे अपना भला करवाना चाहें। यहां व्यापार चाहिए - गिव एंड टेक नियम चलता है। व्यपार सफल और असफल दोनो हो सकता है।
स्वयं की भावनाओं को सम्हालने की हमारी क्षमता होनी चाहिए। जैसे भोजन का पाचन सही न हो तो लूज मोशन हो जाता है। दस्त -पेचिश स्वास्थ्य खराब कर देता है। ऐसे ही भावनाओं - इमोशन का पाचन न हुआ तो इमोशनल लूज मोशन, भावनाओं की दस्त-पेचिश आपका जीवन खराब कर देगा।
हम मनुष्य पशु जैसे स्वतंत्र नहीं की जहां भी दस्त-पेशाब लगे, कहीं भी खुले में कर दें। हम मनुष्य एक सामाजिक व्यस्था के अंग हैं। हम खुले में शौच करेंगे तो असभ्य कहलायेंगे। अतः हमें अपने घरों में टॉयलेट- वॉशरूम की व्यवस्था करनी होती है। मल मूत्र विसर्जन में भी विवेकदृष्टि अपनानी पड़ती है।
इसी तरह भावनाओं की अभिव्यक्ति भी खुले में नहीं की जा सकती। किसी के साथ भी यूँ ही इमोशनल अटैचमेंट करना उचित नहीं है। सहमति से विवाह करें, यदि सामने वाले की इच्छा नहीं तो उसे विवश न करें। विवशता में कर्म हो सकता है, प्रेम नहीं।
मित्रता किसी से करते वक्त भी सावधानी बरतें। पहले दो लड़कों की मित्रता व दो लड़कियों की मित्रता पर शक नहीं किया जा सकता था। परंतु आज़कल कलियुगी जमाना है। यहां दो अच्छे व सहज मित्रों को भी कलियुगी चश्मे से देखने वाले लोग अभद्र टिप्पणियों से पुकार सकतें हैं। अतः इसमे व्यथित होने या रोने धोने की आवश्यकता नहीं है। यह धोबी के द्वारा मूल्यांकन है, जौहरी के द्वारा नहीं जो इसे सीरियस लें। सबसे बड़ा रोग क्या कहेंगे लोग।
आपकी अंतरात्मा की सुने, स्वयं के विवेक को जागृत करें। किसी से भी अत्यधिक इमोशनल अटैचमेंट न हो। स्वयं की पूर्णता को स्वयं में तलाशें।
गुलाब को कांटो के बीच ही खिलना होता है। इंसान को तानों के बीच ही जीना होता है।
विवाह, मित्रता, रिश्तेदारी, सन्तान, माता-पिता सबके प्रति उत्तरदायित्व व कर्तव्य निर्वहन करें। लेकिन मोह में न पड़े, अत्यधिक इमोशनल अटैचमेंट में न पड़ें। किसी की इमोशन की बैसाखी पर जीवन न चलाएं, अपने पैरों पर चलें, अपने इमोशन को स्वयं सम्हालने की योग्यता बढ़ाये।
जब ध्यान व योग प्राणायाम करेंगे, *श्रीमद्भागवत गीता* का और *प्रसुप्ति से जागृति की ओर* जैसी पुस्तको का स्वाध्याय करेंगे, तब यह इमोशन के पाचन की दवा की तरह कार्य करेंगी। अपने इमोशन को पचाने में मदद करेंगी।
तब प्रेम तो करेंगे, मग़र मोह के मकड़जाल में आप नहीं जकड़ेंगे। मुक्त व मोक्षदायी आनन्दमय जीवन को जीने की कला सीख जाएंगे।
आप सूर्य बन जाएंगे। जैसे कोई सूर्य की कद्र करे या न करे, उसे जल चढ़ाएं या न चढ़ाए, वह नित्य उदय होगा, प्राण ऊर्जा बिखेरेगा। इसी तरह आप नित्य मानवीय कर्तव्य करेंगे, श्रेष्ठ कर्मो की ऊर्जा बिखेरेंगे, कोई इसकी कद्र करता है या नहीं आप उसकी परवाह नहीं करेंगे।
🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन
*नोट:-* भगवान मेरी सुनता नहीं, यह उन्हें कहने का अधिकार नहीं जिन्होंने कम से कम 108 बार श्रीमद्भगवद्गीता पढ़ी नहीं है, जो नित्य 15 मिनट ध्यान ईश्वर का करते नहीं है। क्योंकि जब तुमने भगवान को नहीं सुना, तब तुम क्यों चाहते हो कि भगवान तुम्हें सुने। विटामिन डी चाहिए तो सूर्य के समक्ष बैठना होगा। भगवान की कृपा चाहिए तो 15 मिनट ध्यान व 15 मिनट स्वाध्याय तो करना ही पड़ेगा।
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