Sunday, 19 July 2020

पद परम्परा का परित्याग करें और लोकतंत्र में सबको बराबर मौका मिलना चाहिए।

*पद परम्परा का परित्याग करें और लोकतंत्र में सबको बराबर मौका मिलना चाहिए।*

भगवान श्रीकृष्ण को राजनैतिक कारणों व पूर्वजन्म के तपस्वियों के तप के फलस्वरूप अनेक विवाह करने पड़े थे। कुछ विवाह तो राक्षसों के बंधन से छुड़ाई स्त्रियों से किये थे।

सब ठीक था, बस एक समस्या थी, जब भी सन्त समागम होता या देवतागण आते उस दिन मात्र रुक्मणि ही उनके वाम अंग में विराजती थीं। किसी को कोई आपत्ति नहीं थी, मग़र सत्यभामा के पिता को आपत्ति हुई। उन्होंने सत्यभामा से कहा तुम्हे विवाह में सूर्यमणि दी है। तुम्हें भी मौका श्रीकृष्ण के वामांग में सन्त समागम और देवता आगमन के वक्त बैठने का मिलना चाहिए। रुक्मणि व श्रीकृष्ण को सभी रानियों को मौका देना चाहिए, ख़ासकर तुम्हे तो मिलना ही चाहिए।

सत्यभामा ने श्रीकृष्ण व रुक्मणि के समक्ष ज़िद की और सन्तसमागम व देवताओं के आगमन की सभा मे श्रीकृष्ण के वामांग में आकर बैठ गई। सभी सन्त व देवता दुःखी हो गए, वह माता सीता वर्तमान जन्म में रुक्मणि जी के दर्शन से वंचित हो गए। सप्तऋषियों ने नारद से कहा - संकटमोचन हनुमानजी हैं, जाओ उन्हें सन्देश दो कि भगवान राम व सीता जी ने उन्हें याद किया है अविलंब पहुंचे। नारद जी ने सन्देश हनुमानजी को दिया, हनुमानजी जी पवन वेग से द्वारिका की ओर बढ़े।

भगवान श्रीकृष्ण सप्तऋषियों व नारद जी की योजना समझकर मुस्कुरा दिए। उन्होंने सोचा सत्यभामा की तरह सुदर्शन चक्र को भी बहुत अभिमान हो गया है। जब जब श्रीराम अवतार की बात होती, तो बोलते यदि उस अवतार में मुझे धारण किया होता तो रावण वध आसान होता। फ़िर अर्जुन का भी अभिमान था, कि यदि मैं साथ होता तो समुद्र में वाणों का तीर बना देता, नर वानर से समुद्र पर पुल बनाने में समय नष्ट नहीं होता। भीम भी अभिमान में भरे थे, यदि मैं होता तो रावण का मस्तक उखाड़ कर सीता जी को ले आता, आपको परेशान होने की जरूरत नहीं थी। अतः श्री कृष्ण जी ने सोचा हनुमानजी आ ही रहे हैं तो सबकी शंका का समाधान कर ही देते हैं।

उन्होंने सुदर्शन चक्र से कहा, महत्त्वपूर्ण सभा चल रही है, किसी को अंदर मत आने देना। सुदर्शन पहरा देने लगे।

हनुमानजी पहुंचे और ज्यों ही द्वारिका में प्रवेश करने लगे तो सुदर्शन चक्र ने रोक दिया। हनुमानजी के समझाने पर भी न समझे तो हनुमानजी ने चक्र को पकड़ा व अपनी कांख में दबा कर सभा मे प्रवेश किया। सभी ऋषि व देवतागण संकटमोचन हनुमानजी को देखकर प्रणाम करने उठ खड़े हुए। हनुमानजी ने श्रीकृष्ण की ओर देखा और कहा प्रभु माता सीता कहाँ है। हे भक्त वत्सल यह किस दासी को अपने वामांग में स्थान सन्तो व देवताओं की सभा मे स्थान दे रखा है। प्रभु माता सीता को बुलाइये, प्रभु मुस्कुराए व सत्यभामा सकुचा गई।

श्रीकृष्ण के इशारे पर रुक्मणि जी आयी व भगवान श्रीकृष्ण के वामांग में बैठ गयी। श्रीराम सीता के दर्शन को पाकर हनुमानजी जी कृत कृत्य हुए व चरणों मे गिर गए। सत्यभामा को भूल का अहसास हो गया, तभी भगवान श्रीकृष्ण मुस्कुरा के बोले हनुमान किसी ने द्वार पर तुम्हे रोका नहीं, रोका था प्रभु आपके सुदर्शन चक्र ने... भुजाओं में दबे सुदर्शन चक्र को कांख से बाहर निकालते हुए हनुमानजी ने कहा... प्रभु यदि यह आपका सुदर्शन चक्र न होता तो शायद यह टुकड़े टुकड़े हो गया होता... सुदर्शन का अभिमान चूर चूर हो गया।

हनुमान जी ने कहा, माता सीता आपके हाथ की रसोई नहीं खाई। माता रुक्मणि ने सभी सन्तो व हनुमानजी के लिए भोजन बनाया। हनुमानजी खाते ही गए, जितना बना था सब खत्म होने लगा तब माता सीता आई व पूड़ी में अनामिका उंगली से जय सिया राम लिख के परोसा। हनुमानजी तृप्त हो गए।

हनुमानजी श्रीकृष्ण वाटिका में पूंछ फैलाकर भोजन करके आराम कर रहे थे तभी भगवान कृष्ण भीम के साथ आये। बोले हनुमान आराम कर रहा है, मुझे उस पार जाना है। तुम इसकी पूंछ उठाकर उस ओर रख दो। भीम ने कहा, जो आज्ञा प्रभु! हनुमानजी की पूंछ उठाने की भरपूर कोशिश की मग़र हिला तक नहीं पाए। सर झुकाकर बोले प्रभु मुझे बड़ा घमण्ड था अपनी भुजाओं पर, लेकिन आज वह बिखर गया।

भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा, चलो हनुमानजी को द्वारिका घुमा लाते हैं और श्रीकृष्ण, अर्जुन व हनुमानजी द्वारिका घूमने लगे। तभी रास्ते मे एक नदी आयी, भगवान ने अर्जुन से कहा तुम इस पर वाणों से पुल बनाओ, हमें व हनुमानजी को उस पार जाना है।

अर्जुन ने तुरन्त वाणों का पुल बना दिया, मग़र ज्यो ही हनुमानजी पुल पर चढ़े वह पुल टूट गया तब भगवान श्री कृष्ण ने अपने हाथों का सहारा देकर हनुमानजी को गिरने से बचाया। वाणों की नोक से श्रीकृष्ण के हाथ से लहू निकल आया। हनुमानजी दुःखी हुए, बोले प्रभु आपने अर्जुन की मूर्खता व व्यर्थ अभिमान के कारण पुल बनाने दिया। प्रभु आप जानते थे मेरे वजन को यह पुल नहीं सम्हाल पायेगा। लेकिन हे भक्त वत्सल आपने अर्जुन को सन्मार्ग पर लाने के लिए कष्ट स्वयं  सहा।

अर्जुन शर्म से पानी पानी हो गए, अभिमान तिरोहित हो गया।

हनुमानजी माता सीता(रुक्मणि जी) व श्रीराम(श्रीकृष्ण जी) को प्रणाम करके चले गए। पुनः कभी सत्यभामा ने सन्त समागम व देवता आगमन के वक़्त वामांग में बैठने की जिद नहीं की।

अध्यात्म जगत में वर्तमान जगत की योग्यता से अधिक आत्मा के मूल स्रोत व पूर्वजन्मों के सँस्कार को महत्व दिया जाता है। कभी भी सांसारिक जगत के चश्मे से आध्यात्मिक जगत का मूल्यांकन नहीं करना चाहिए। सांसारिक स्कूल - कॉलेज की डिग्री से आध्यात्मिक जगत की योग्यता सिद्ध नहीं होती। आत्म ऊर्जा व गुणवत्ता से आध्यात्मिक जगत चलता है। 

🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन

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