Friday, 24 July 2020

अंधापन दो प्रकार का होता है, एक स्थूल व दूसरा सूक्ष्म।

*अंधापन दो प्रकार का होता है, एक स्थूल व दूसरा सूक्ष्म।*

स्थूल अंधापन या तो जन्मजात होता है या एक्सीडेंट से होता है।

सूक्ष्म अंधापन साधकों में दो कारणों से होता है- पहला दूसरे साधक से ईर्ष्यावश या अहंकार में ठेस पहुंचने पर। यह वस्तुतः न सम्हाला जाय तो मनोव्याधि में बदल जाता है।

सूक्ष्म अंधापन संसारी लोगों में काम वासना या इच्छाओं की आपूर्ति में बाधा पड़ने से होता है।  पुरूष के अहंकार या स्त्री के भावनाओं को ठेस पहुंचने पर होता है। इसे बदले की भावना या प्रतिशोध का अंधापन भी कह सकते हैं।

स्थूल अंधेपन का इलाज़ ऑपरेशन से सम्भव है।

सूक्ष्म अंधेपन का इलाज़ तब तक असम्भव है जब तक कि बदले की भावना में दूसरे को बर्बाद करने का भाव मन से वह व्यक्ति स्वयं निकाल न दे। वह स्वयं के उत्थान में जुटकर जीवन से अप्रिय घटनाक्रम को भूलने का प्रयास करे। ईर्ष्या को मन से निकालने में और अहंकार को घटाने में जो जुटेगा वही सूक्ष्म अंधेपन से मुक्त होगा।

सूक्ष्म अंधे व्यक्ति की पहचान अत्यंत कठिन है, केवल उससे बात करके ही उसके अंधेपन को जाना जा सकता है। जिस व्यक्ति के लिए उसके भीतर अंधापन होगा उसकी चुगली निंदा करने में वो रस लेगा या स्वयं चुगली निंदा करेगा। उसे अपशब्द बोलेगा।

बदले की भावना में अंधा व्यक्ति कितना ही उच्चवकोटी का साधक ही क्यों न हो, वह अपनी साधना को भी बदले की बलि चढ़ा देता है। इतिहास गवाह है कि लोगों ने तप करके उसका दुरुपयोग बदले की भावना हेतु किया। वह उस पेड़ को काटने से भी नहीं हिचकता जिस पर वह स्वयं बैठा हो।

बदले की भावना में अंधा व्यक्ति बहरा भी हो जाता है। वह उस व्यक्ति की बर्बादी के लिए स्वयं व अपने परिवार को भी बर्बाद करने से पीछे नहीं हटता। बदले की भावना में अंधा व्यक्ति पागलपन व व्यामोह का इस कदर शिकार हो जाता है कि वह अपना अच्छा या बुरा सोचने की परिस्थिति में नहीं होता।

यह शनैः शनैः मनोव्याधि में परिवर्तित हो जाता है। रोगी को लगता है कि वह महान है, उसकी महानता सब के समक्ष अमुक व्यक्ति के कारण नहीं आ पा रहा। उसके दिमाग मे एक अलग दुनियाँ बन जाती है, इसे महानता की विभ्रांति - व्यामोह कहते हैं। ऐसा व्यक्ति किसी व्यक्ति विशेष को बर्बाद करने के लिए किसी भी हद तक जा सकता है। ईर्ष्या की भावना में इस हद तक पहुंच जाता है कि मुकद्दमे बाजी करके, दूसरों को भड़का के येन-केन-प्रकारेण वह अमुक व्यक्ति को तबाह करने के उद्देश्य से जीता है। उस एक व्यक्ति की बर्बादी में वह इतना अंधा हो जाता है कि स्वयं व प्रियजनों की बलि देने में भी पीछे नहीं हटता। काल्पनिक दुनियाँ रचता है, जिसमें अमुक बहुत बुरा कृत्य करते उसे दिखता है। ऐसा व्यक्ति स्वयं के जीवन मे हुई दुर्घटना के लिए किसी अमुक को जिम्मेदार मानता है। वह कभी स्वयं को जिम्मेदार नहीं मानता, हमेशा दूसरों पर दोषारोपण करता है।

*उदाहरण -* एक बच्चे ने घर की फ्रिज़ तोड़ दी, मनोचिकित्सक ने पूँछा तुमने ऐसा क्यों किया? तो उसने कहा इस फ्रिज़ को टूटने के लिए मेरी माँ जिम्मेदार है। उसने मुझे गुस्सा दिलाया, और मेरे लिए फ्रिज़ में फ्रूटी नहीं रखी। मेरी इच्छा का ख्याल नहीं रखा, मुझे कहती है कल दुकान खुलेगी तब फ्रूटी लाऊंगी।

तब मनोचिकित्सक ने कई शेशन व दवाओं का सहारा लेकर उसके व्यवहार को सुधारा व बताया, तुम्हारे द्वारा तोड़ी फ्रिज़ के लिए तुम उत्तरदायी हो। प्रत्येक व्यवहार के लिए व्यक्ति स्वयं जिम्मेदार है, बाह्य संवेग ट्रिगर करता है, लेकीन भीतरी संवेग को नियंत्रित किया जा सकता है। क्या कभी तुमने माँ को आभार व्यक्त किया जब तुम्हारी इच्छा पूर्ण हुई? यदि नहीं तो तुम क्रोध करने के अधिकारी कैसे हुए जब इच्छा अपूर्ण रही। 15₹ रुपये की पेप्सी के क्रोध की कीमत 15₹ रुपये थी, लेकिन उसकी अभिव्यक्ति तुमने 15 हज़ार की फ्रिज़ तोड़कर की। क्या 15₹ रुपये के क्रोध का 15,000₹ के नुकसान साथ क्रोध अभिव्यक्ति जायज़ है? वक्त लगता मानसिकता के इलाज में...

ऐसे मनोव्याधि से ग्रसित व्यक्ति का ईलाज सम्भव है, मग़र परिवारजन को विशेष सहयोग मनोचिकित्सक का करना पड़ता है। ऐसे व्यक्ति के दिमाग का एक हिस्सा गड़बड़ कर रहा है, बाकी ठीक है। अतः आसानी से समझ भी नहीं आता कि इसके भीतर क्या चल रहा है।

इस अंधेपन से मुक्ति केवल परमात्मा तभी दे सकता है, जब व्यक्ति इससे  मुक्त होना स्वयं चाहेगा।

बालक की मनोव्याधि को उसके माता पिता अथक प्रयत्न व धैर्य से ठीक कर सकते हैं। बच्चे के भावनात्मक विकास पर नजर रखें।

बदले की भावना के महाभारत में जो बर्बाद करने चलता है वह पहले स्वयं बर्बाद होता है और अपने से जुड़े अपनो को बर्बाद करता है। तबाह व बर्बाद जीवन ही जीता है, कभी भी सुकून नहीं मिलता।

*एक सत्य घटना* - तिब्बत में एक बच्चे के चाचा ने उसके पिता की मृत्यु के बाद उसकी सम्पत्ति हड़प ली, मां व बहन को झूठे आरोप में गांव से निकलवा दिया। बदले की भावना में उस बच्चे ने साधना की व घोर तांत्रिक बना। जब चाचा के घर उसकी छोटी पुत्री का विवाह आयोजन था,पूरा गांव एकत्रित था तब उसने ओलों की तांत्रिक बारिश से सबको मृत्यु के घाट उतार दिया। उसने सोचा था कि बदला पूरा होते ही वह आनन्द से भर जाएगा। मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ, उल्टा उसके हृदय में दर्द व क्षोभ और बढ़ गया। व अशांति व उद्विग्नता से मुक्ति हेतु संतो के शरण मे जाने लगा। कोई सन्त उसे शिष्य बनाने को तैयार न हुआ। तब उसने कई वर्षों तक पश्चाताप किया, तब अंततः उसके गुरु आये और बोले तूने बदले की भावना में जो पाप किया है वो तू अगले कई जन्मों तक भोगेगा। कर्मफ़ल में तुझे पुनः वही पीड़ा रिश्तों से मिलेगी। जितने लोगो को तूने मारा है प्लस उतने लोगों को की मृत्यु पर रोने वाले उससे जुड़े लोग इतने जन्मों तक तू कष्ट भोगेगा। प्रायश्चित व सत्कर्म करते रहो, कुछ इस जन्म में और कुछ अगले जन्मों तक इसको भुगतने के मानसिक रूप से स्वयं को तैयार कर लो। तभी तुम्हें निर्वाण मिलेगा, जब जितनो को मारा है उससे हज़ार गुना लोगो का जीवन तुम बचा सकोगे। आग एक माचिस की तीली से झोपड़ी को लगाई जा सकती है, मगर बुझाने के लिए कई बाल्टी पानी चाहिए। एक बद्दुआ पूरा जीवन तबाह कर देती है, जीवन को सम्हालने के लिए कई सारी दुआएं चाहिए। अतः जन सेवा करो और दुआएं अर्जित करो।

🙏🏻श्वेता, DIYA

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