अंतर्दृष्टि को तृतीय नेत्र कहते हैं, जो भगवान शिव के पास है, साथ ही हम सबके पास भी है।
अंतर इतना है कि भगवान शिव के तृतीय नेत्र पूर्ण विकसित हैं और हमारे तृतीय नेत्र जन्मों से बन्द हैं। कभी खोलने का प्रयास ही नहीं किया। यह वस्तुतः ज्ञान चक्षु हैं।
बाह्य संसार के मूल स्रोत को ज्ञान दृष्टि -तृतीय नेत्र देखते व समझते है।
लकड़ी के फ़र्नीचर की दुकान में दो बाह्य नेत्र अलग अलग फर्नीचर देखते हैं, तृतीय नेत्र उसके मूल तत्व लकड़ी को देखता है। इस लिए तत्त्वतः देखने के कारण ज्ञान दृष्टि को तत्व दृष्टि भी कहते हैं।
स्वर्ण की दुकान में बाह्य दो नेत्र को विभिन्न आभूषण दिखेंगे, तृतीय नेत्र - तत्वदृष्टि - ज्ञान दृष्टि से देखो तो केवल स्वर्ण ही दिखेगा। स्वर्ण का ही तो अलग आकार प्रकार है।
मिट्टी के विभिन्न बर्तन व खिलौने वस्तुतः तृतीय नेत्र से देखने पर केवल मिट्टी ही दिखेंगे।
बाह्य नेत्र से सब अलग अलग जाति पाती, ऊंच नीच, स्त्री व पुरुष के भेद दिखेंगे। तृतीय नेत्र अन्तर्दृष्टि से देखो सबमें एक ही तत्व दिखेगा आत्मा, वह आत्मा जो परमात्मा का ही अंश है।
तत्वदृष्टि अंतर्दृष्टि से देखने पर सो$हम, वह ही मैं हूँ, मैं ही वह है, तुम ही मैं हूँ और मैं ही तुम हो। कोई भेद नहीं सब वस्तुतः एक ही तो हैं।
आत्मज्ञान वस्तुतः तृतीय नेत्र का विकसित होना है, तत्वदृष्टि से दुनियाँ देखना व समझना ही तो है। स्वयं के आत्म तत्व को जानना व अनुभूत करना ही तो है।
अध्यात्म बस इसी तृतीय नेत्र ज्ञान चक्षु -तत्वदृष्टि को विकसित करने की विधिव्यवस्था है।
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