प्रश्न - ध्यान के वक्त हम बांया हाथ नीचे और दाहिना हाथ ऊपर क्यों रखते हैं?
उत्तर - हमारा मस्तिष्क दो भागों में बंटा होता है, चेतन अवस्था और अवचेतन अवस्था। हमारा बायां हाथ अवचेतन मन को बताता है तो दायां हाथ चेतन मन की अवस्था बताता है। बायां मस्तिष्क-चेतन है तो दायां मस्तिष्क अवचेतन है। इस प्रकार से दाएं हाथ का संबंध बाएं मस्तिष्क से होता है और बाएं हाथ का संबंध दाएं मस्तिष्क से होता है।
हस्तरेखा विज्ञान के अनुसार बांया हाथ व्यक्ति की संभावनाओं को प्रदर्शित करता है और दाहिना सही व्यक्तित्व का प्रदर्शक होता है। "दाहिने हाथ से भविष्य और बाएं से अतीत देखा जाता है।" "बायां हाथ बताता है कि हम क्या-क्या लेकर पैदा हुए हैं और दाहिना दिखाता है कि हमने इसे क्या बनाया है।" "दाहिना हाथ पुरुषों का पढ़ा जाता है, जबकि महिलाओं का बायां हाथ पढ़ा जाता है।" "बांया हाथ बताता है कि ईश्वर ने आपको क्या दिया है और दायां बताता है कि आपको इस संबंध में क्या करना है।"
शिव की तरह प्रत्येक मनुष्य अर्द्धनारीश्वर है, स्त्रैण और पौरुषत्व दोनों गुण हैं।
वाम हाथ को दाहिने मस्तिष्क द्वारा नियंत्रित होने के लिए छोड़ दें, (नमूने की पहचान, संबंधों की समझ-बूझ) जिससे व्यक्ति की आंतरिक खासियतों, उसकी प्रकृति, आत्म, स्त्रैण गुण और समस्याओं के निदान का सोच प्रतिबिंबित होता है। इसे एक व्यक्ति के आध्यात्मिक और व्यक्तिगत विकास का एक हिस्सा माना जा सकता है। यह व्यक्तित्व का "स्त्रैण" हिस्सा (स्त्रैण और ग्रहणशील) है।
इसके विपरीत दाहिना हाथ बाईं मस्तिष्क (तर्क, बुद्धि और भाषा) द्वारा नियंत्रित होता है, जो बाहरी व्यक्तित्व, आत्म उद्देश्य, सामाजिक माहौल का प्रभाव, शिक्षा और अनुभव को प्रतिबिंबित करता है। यह रैखिक सोच का प्रतिनिधित्व करता है। यह व्यक्तित्व के "स्त्रैण" पहलू (पुरुष और जावक) से मेल खाता है।
अध्यात्म में प्रत्येक साधना को समर कहा गया है, ध्यान भी एक ऐसा समर जिसमें स्वयं के आंतरिक दस शत्रु (काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, घृणा, ईर्ष्या, द्वेष एवं भय) से युद्ध करना पड़ता है। आंतरिक अवांछनीयता को हटाकर उस स्थान पर उत्कृष्टता की स्थापना हेतु साहस, सङ्कल्प व उच्च चैतन्यता चाहिए। इसीलिए ध्यान साधना में दोनों हाथ गोदी में रखते समय स्त्रैण गुणों भावना, ग्रहणशीलता के प्रतीक बाँये हाथ को नीचे और सङ्कल्प, साहस, चैतन्यता के प्रतीक दाहिने हाथ को ऊपर रखा जाता है। स्वयं को साधना समर के लिए प्रस्तुत किया जाता है। ध्यान साधना में हम जो आपने आत्मस्वरूप को भूल बैठें है, विस्मृति में हैं, उन्हें स्मृति में बदलना होता है। स्वयं के अस्तित्व को पहचानना है तो मानसिक असंतुलन को सन्तुलन में बदलना ही होगा । अतः आत्मशांति और ईश्वर प्राप्ति हेतु नाभिचक्र(मणिपुर चक्र) के पास दोनों हाथों को बाएं के ऊपर दाहिने हाथ को आकाश की ओर हथेली को रखते हैं जिससे चित्तशक्ति का केंद्रीकरण करने में आसानी हो, और ध्यान रखते हैं कि ध्यान के वक्त श्वांस गहरी व आरामदायक नाभि तक पहुंचती हुई हो। जिससे प्रत्येक श्वांस में नाभिचक्र स्पर्श हो।
मन के द्वार आँख, कान, स्पर्श अनुभव, और मुँह को बन्द करके उन्हें अंतर्मुखी करते हैं और श्वांस को लयबद्ध गहरी श्वांस से नाभि चक्र से जोड़ देते हैं। अंतर्जगत की यात्रा प्रारंभ करते हैं।
🙏🏻श्वेता, DIYA
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