गुरुजी, उनकी पदवी व उनका आसन
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हिमालय की तरहटी में एक गुरु ने तप किया, फिर जनकल्याण हेतु आश्रम खोला। चार शिष्य प्रथम बनाये व उन्हें आश्रम की जिम्मेदारी सौंपी, चारो को उम्मीद थी कि गुरु के जाने के बाद उनमें से ही कोई एक गुरु की पदवी मठाधीश की सम्हालेगा, क्योंकि वही सीनियर/वरिष्ठ थे। धीरे धीरे वह गुरुकुल बहुत बड़ा बन गया। एक व्यक्ति जो तेजस्वी था गुरु से शिक्षा लेने आया, शीघ्र ही वह युवा गुरु की कृपा से और समर्पण से अध्यात्म में उन्नति कर गया। जब वक्त आया तो गुरु ने अपनी पदवी उस युवा सन्यासी को दे दी। इससे चारों क्रोधित हो गए, मग़र तीन ने गुरु आज्ञा शिरोधार्य कर लिया लेकिन एक ने सङ्कल्प लिया कि उस युवा सन्यासी को बाहर करके रहेगा।
उसने षड्यंत्र रचा, हज़ारों मील दूर के गाँव से नगरवधू(वैश्या) को कहा जितना पैसा तुम्हें रोज मिलता है उससे अधिक देंगे। बस तुम्हें एक अनाथ बालक का इंतज़ाम करके हमारे साथ चलना है, हम जिसे तुम्हे बताएंगे उसको सबके समक्ष चरित्रहीन साबित करना है।
नगरवधू एक अनाथ बच्चे को लेकर आई और उसने युवा सन्यासी को चिरित्रहीन साबित कर दिया। उसके निष्कासन की योजना लगभग पूरी हो ही रही थी कि एक दर्शनार्थी उस मठ में आया उस नगरवधू के नगर का आया हुआ था उसने उसे पहचान लिया। बस पोल खुल गयी, व उस युवा सन्यासी का निष्कासन बच गया।
लेक़िन उस षड्यंत्रकर्ता ने हार नहीं मानी। वह युवा सन्यासी जब ध्यानस्थ था तो उसने एक और कुटिल योजना बनाई। अधिकतर जनता स्वार्थी है वह जानता था, अतः उसने नीचे गांव में खबर फैला दी कि युवा सन्यासी को एक तपसिद्धि मिल गयी है जो पूर्णिमा के दिन जब वह दर्शन देने बैठेंगे तब जो उनकी दाढ़ी का एक बाल अपने हाथों से तोड़ेगा व उसे अपनी तिज़ोरी में रखेगा वह छः महीने के अंदर माला माल धनी हो जाएगा।
सच्चाई के पैर होते हैं और अफवाह के पंख होते है, बात कानो कान आसपास सभी गांव में फैल गई। पूर्णिमा के दिन स्वार्थ में अंधी जनता बाल तोड़ने टूट पड़ी। उनके सर व बाल के समस्त बाल नोच लिए गए और इतना दबाव पड़ा कि वह युवा सन्यासी अत्यधिक रक्त श्राव व पीड़ा, व श्वास अवरुद्ध होने से मर गया।
षड्यंत्रकर्ता गुरु के पद पर मठाधीश बन बैठा, उधर पाप कर्मों के दण्ड स्वरूप लोगो को अपार क्षति पहुंची व वर्षा नहीं हुई। सभी सज्जन व्यक्तियों ने युवा सन्यासी की मौत के पीछे षड्यंत्र कर्ता की मंशा पता चल गई। उन्होंने षड्यंत्र कर्ता को पीट पीट कर अधमरा करके आश्रम को नष्ट कर दिया।
लोभ व लालच के युद्ध में गुरु के किये तप व कीर्ति को मिट्टी में उनके स्वार्थी शिष्यों ने मिला दिया। जो बोयेगा वह वही काटेगा, लेकिन कब कोई तय सीमा नहीं है। उस षड्यंत्रकर्ता को दण्ड मिला लेक़िन तब तक सब कुछ नष्ट हो गया था।
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राम - रावण युद्ध दो अज्ञानियों के बीच नहीं हुआ था, यह युद्ध वेदज्ञ तपस्वी और रिद्धि सिद्धि युक्त के बीच हुआ था। रावण जानता था पराई विवाहित स्त्री का बलपूर्वक अपरहण अधर्म है, फिर भी उसने किया। क्योंकि धर्म जानने व आचरण में उतारने में फर्क होता है।
कौरव व पांडव एक ही गुरु के शिष्य थे व समान धर्म का ज्ञान दोनो को था। दुर्योधन जानता था विवाहित कुल की मर्यादा स्त्री जो कि उसकी भाभी थी उसके वस्त्र उतारना अधर्म है, फिर भी उसने किया। फिर भी एक पक्ष धर्म के विरुद्ध व एक धर्म के पक्ष में लड़ा।
राजनीति हो या धर्म क्षेत्र, चुनाव सही व गलत के बीच नहीं होता। हमेशा चुनना पड़ता है - अधिक गलत और कम गलत के बीच, अधिक सही और कम सही के बीच।
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जब भी धर्म संकट में हो तो स्वयं की अंतरात्मा की आवाज सुनकर निर्णय लो। 18 दिन श्रीमद्भागवत गीता का पाठ करो और कम से कम एक घण्टे ध्यान करो व उस विषय पर चिंतन करो। जिसकी गवाही आत्मा दे उसे स्वीकार लो।
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💐श्वेता, DIYA
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