बेहोशी का जीवन
बनाम
होश का जीवन
ख़ुद के जीवन के प्रति,
बेहोश था, उदासीन था,
मेरे सुख दुःख के अनुभव के लिए भी,
दूसरों पर आश्रित था,
कोई भी मुझे सुखी या दुःखी,
आसानी से,
अपनी मीठी या कड़वी बातों से कर देता था,
मानसिक दुनियां का गुलाम था,
दूसरों को दोष देता रहता था,
न बसंत का आनन्द लिया,
न प्रकृति को कभी अपलक निहारा,
बस अपने दुःखों को गिनने में,
दिन रात गुजारा,
यंत्रवत जीवन जीता रहा,
पेट प्रजनन अर्जन को ही,
जीवन का उद्देश्य समझता रहा...
एक मित्र मुझे बेहोशी से जगाने के लिए,
और मानसिक ग़ुलामी से आज़ाद करवाने के लिए,
मुझे एक गायत्री यज्ञ में ले गया...
वहाँ प्रवचन चल रहा था,
'मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है',
'मनुष्य जैसा सोचता है, वैसा करने लगता है, एक दिन वैसा ही बन जाता है'
'मनुष्य बीज रूप में देवता है, जीवन साधना से वह नर से नारायण बन सकता है',
'ईश्वर उसकी मदद करता है जो अपनी मदद स्वयं करता है',
'देखने के लिए दृष्टि और रौशनी दोनो चाहिए, पुरुषार्थ और प्रार्थना जीवन मे सफल होने हेतु चाहिए।'
यज्ञ प्रसाद में तीन पुस्तक क्रमशः 'अध्यात्म विद्या का प्रवेश द्वार,,'गहना कर्मणो गति:' और 'कलात्मक जीवन जियें' उपहार में मिली।
यज्ञ के प्रवचनों और इन तीन पुस्तको के स्वाध्याय ने मुझे झकझोर के जगा दिया,
मेरे मानसिक गुलामी की जंजीरों को तोड़ दिया,
मेरे व्यक्तित्व पर यज्ञ की ऊर्जा का प्रभाव हुआ,
स्वाध्याय से मैं मानसिक ग़ुलामी से आज़ाद हुआ,
अब दूसरों को दोष देना बंद कर दिया,
खुद पर काम करना शुरू कर दिया,
अपनी किस्मत अपने हाथों से लिखने लगा,
मैं होशपूर्वक अब जीने लगा,
पहली बार बसंत को अनुभव किया,
प्रकृति को अपलक निहारा,
अपने जीवन का रिमोट अपने हाथों में लिया,
अपने आनन्द के स्रोत को ढूढ़ लिया।
🙏🏻श्वेता, Diya Mujgahan Dhamtri