Wednesday, 24 January 2018

ज्ञानामृत के सेल्समैन

*ज्ञानामृत के सेल्समैन*

ऋत्विज और ईषना साहित्य प्रदर्शनी में लोगों को युगसाहित्य विस्तार के लिये साहित्य पढ़ने हेतु प्रेरित कर रहे थे।

वहां एक नोएडा के पुस्तक भंडार के मालिक बड़े गौर से उन्हें देख रहे थे।वो साहित्य स्टाल में आये, साहित्य की कीमत देखकर और उन दोनों से बोला,

*पुस्तक भंडार के मालिक* - बेटे इतने सस्ते साहित्य में कोई मार्जिन नहीं है, तुम लोगों की कोई कमाई नहीं होगी। मेरा पुस्तक भंडार है, तुम दोनों युवाओं की आत्मीयता से भरी कस्टमर हैंडलिंग और पर्सनालिटी से मैं बहुत प्रभावित हूँ। तुम लोग मेरे यहाँ काम करो, अच्छी सैलरी दूँगा।

*ऋत्विज ने कहा* - सर जॉब ऑफर के लिए धन्यवाद, लेकिन हमें जो सैलरी मिलती है वो आप नहीं दे पाएंगे।

*ईषना ने कहा* - सर पहले तो धन्यवाद,कि आपने हमारे कार्य को सराहा। लेकिन मैं आपकी शंका के समाधान हेतु आपसे एक प्रश्न पूंछना चाहती हूँ। क्या आप कभी गंगाजल हरिद्वार से लाये हैं नए कैन/बॉटल में, तो आप किसकी कीमत अदा करते हैं? गंगा जल की या कैन/बॉटल की?

*पुस्तक भंडार मालिक* - बोतल खरीदता हूँ, गंगा जल कोई कैसे ख़रीद सकता है, वो तो अमृत है। साक्षात मां गंगा है।

*ईषना* - जी सर इसी तरह, यह ज्ञानामृत है, जो इस युग के ऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य जी ने कठोर तप से, 24 वर्षों तक 24 लाख के गायत्री मंत्र अनुष्ठान करके , कई वर्षों तक हिमालय में कठोर तप करके, इस ज्ञानामृत को धरती पर विचारक्रांति द्वारा युग की पीड़ा और पतन निवारण के लिए इन पुस्तक रूपी बोतलों में भरा है। तो ये ज्ञानामृत अनमोल है, जो मूल्य आप इसमें देख रहे हैं, वो इन पुस्तक रूपी बोतलों का प्रिंटिंग मूल्य-खर्च है।

*ऋत्विज* - हम युवाओं को पुण्य रूपी सैलरी मिलती है, जो भौतिक कागज के टुकड़े नहीं है। यह वो धन है जो इस जन्म में भी काम आएगा और अगले जन्म में भी। क्यूंकि टूटते मन और बिखरते रिश्तों की यह अनमोल दवा है।

*ईषना* - सर, आज की समस्त समस्याओं का समाधान इन साहित्यों में है। स्कूली शिक्षा इंसान में इंसानियत नहीं सिखाती, मन का प्रबंधन नहीं सिखाती, परिवार प्रबंधन और समाज प्रबंधन नहीं सिखाती। इसलिए तो भौतिकवादी दृष्टिकोण ने दिल्ली एनसीआर और समस्त विश्व को वायु प्रदूषण के संकट में डाल दिया है।

*ऋत्विज* - सर, हम अपनी नई पीढ़ी को पैसे खर्च करके भी शुद्ध जल, शुद्ध वायु , शुद्ध पर्यावरण, शुद्ध अन्न औऱ फल खाने को नहीँ दे सकते। तनावमुक्त जिंदगी नहीं दे सकते।

हमारे जैसे कई सारे युवा विश्वभर में साहित्यि स्टाल के माध्यम से लोगों को समस्याओं के समाधान दे रहे हैं जो कि अनमोल है।

सर पैसों से हम कुछ को भोजन करा सकते हैं लेकिन उनके अंदर की भिक्षावृत्ति विचारक्रांति से मिटेगी।अपनी कमियों को दूर कर के, खुद कमाने का संकल्प विचारक्रांति से उभरेगा।

टूटते मन और बिखरते रिश्ते स्व जागरण से ही सम्हलेंगे।

देश समाज के लिए कुछ कर गुजरने का भाव, प्रकृति संरक्षण का भाव विचारक्रांति से ही उभरेगा।

*पुस्तक भंडार के मालिक* - सचमें, तुम दोनों से मिलकर मैं बहुत प्रभावित हूँ।मुझे कुछ छोटी पुस्तक बताओ जिससे इस अभियान को मैं भी समझ सकूं।

*ईषना* - कृपया अपना इंटरेस्ट बताइये कि आप किस प्रश्न का समाधान पहले चाहते हैं?

*पुस्तक भण्डार मालिक* - बेटे मैंने विभिन्न लेखकों की पुस्तक पढ़ी है , लेकिन मैं अभी भी कुछ ढूंढ रहा हूँ जो मुझे मिल नहीं रहा। एक प्रश्न है कि एक ही भगवान की पूजा के बाद भी सबके मनोभाव अलग क्यूँ होते हैं?

*ईषना* - सर , आप *अध्यात्म विद्या का प्रवेश द्वार*, *दृष्टिकोण ठीक रखें*, *मैं क्या हूँ*? और *ईश्वर कौन है कहाँ है और कैसा है?* ये चार पुस्तक ले जाइए। ये पम्पलेट भी लीजिए इनमें अन्य पुस्तक की जानकारी और हमारे केंद्रों के अड्र्स हैं। साथ ही ऑनलाइन वेबसाइट की लिंक है।

हमें पूरी उम्मीद है, कि इन पुस्तकों के अध्ययन से अध्यात्म सम्बन्धी जिज्ञासा का समाधान मिलेगा।

*पुस्तक भंडार के मालिक की पत्नी* - बच्चों तुम लोग इतनी छोटी उम्र में बहुत नेक कार्य कर रहे हो। मुझे ज्यादा पढ़ने का शौक नहीं है। केवल एक पुस्तक ऐसी बताओ जो गुरु क्यों आवश्यक है? इसका समाधान कर सके।

*ऋत्विज* - गुरुगीता की पुस्तक देते हुए बोला, आंटी इसमें एक अध्याय आप रोज पढ़ें। पढ़ने से पूर्व 5 या 24 बार गायत्री मंत्र पढ़कर प्रार्थना करें, कि हे गुरुचेतना मेरे अंदर अवतरित हो। पूजन स्थल पर पढ़ सकें तो अच्छा होगा नहीं तो सोफासेट मे भी बैठ के पढ़ लें। उम्मीद है गुरु से सम्बन्धी समाधान आपको मिलेगा।

(दोनों बच्चों को आशीर्वाद देते हुए वो लोग चले गए। ईषना और ऋत्विज जैसे अनेकों गुरुदेव के बच्चे ज्ञानमृत के सेल्समैन बनके स्वयं को गौरवान्वित महसूस कर रहे हैं।)

किसी ने क्या खूब कहा है...
दुनिया की तुम छोड़ दो,बदल लो अपनी सोच,
चलने ही  देता नहीं, अपने पैर की  मोच,
आगे बढ़ने ही नहीं देता, इंसान की छोटी सोच,
आनंद को बाहर नहीं, हे इंसान भीतर खोज़...

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