*प्रश्न - दीदी, एक जगह धार्मिक प्रवचन में गया था तो प्रवचन देने वाले वक्ता ने कहा - यदि मन पूर्णतया पवित्र हो जाए तो जीवन मे गुरु की कोई आवश्यकता नहीं। गुरु के चरण और कुत्ते के चरण में कोई फ़र्क नहीं। उन्होंने यह भी कहा कि मन पवित्र हो तो हिन्दू धर्म प्रतीक चिन्हों तिलक, जनेऊ और शिखा का कोई महत्त्व नहीं। उनका आकर्षक व्यक्तित्व था, टेक्निकल example दे रहे थे। मुझे बहुत गुस्सा आ गया इस बात पर और लग रहा था कुछ बोल दूं। मैं एक बी ए फाइनल ईयर कॉलेज स्टूडेंट हूँ, कृपया मेरी शंका का समाधान करें...*
उत्तर - आत्मीय भैया, मुझे खुशी है कि इस प्रश्न के उत्तर देने योग्य आपने मुझे समझा।
धार्मिक प्रवचन का जनरल वाक्य एक ऑपरेशन के लिए पेट को खोलने जैसा है,यदि समय पर घाव की सिलाई उचित मार्गदर्शन देकर न हुई तो सेप्टिक हो सकता है,मरीज अर्थात श्रोता को जान का ख़तरा भी हो सकता है।
युगऋषि परमपूज्य गुरुदेव ने अशरीरी सदगुरु का मार्गदर्शन लिया। सद्गुरु के शरीर रहने न रहने से फर्क नहीं पड़ता। उनकी चेतना से ईश्वर की तरह ही जुड़कर मार्गदर्शन मिलता है। सद्गुरु बहुत जरूरी है जीवन के लिये अब वो शरीरी हों या अशरीरी। गुरु के बिना अन्तः ज्ञान तक स्वयं पहुंचना दुष्कर है।
प्रवचन कर्ता ने बुद्ध का उदाहरण दिया- तो क्या हम और आप घर गृहस्थी पढ़ाई जॉब सब कुछ छोड़कर, अन्न जल त्याग कर, नींद छोड़कर जंगल मे कई वर्षों तक एक आसन एक मुद्रा में तपस्या कर सकते हैं क्या? यदि उत्तर नहीं है तो सद्गुरु जीवन में चाहिए।
कोई साधना जंगल के फल और हिमालय का जल पीकर प्रदूषण रहित वायु द्वारा श्वांस लेकर करने में और घर गृहस्थी के झंझट में, जॉब पढ़ाई के बीच टेंशन में, प्रदूषित वायु श्वांस लेकर, प्रदूषित जल पीकर, केमिकल लगा फल खाकर ध्वनि प्रदूषण के बीच क्या एक जैसा परिणाम देगी?
प्रवचनकर्ता अपने गुरु के प्रत्यक्ष मार्गदर्शन में स्वस्थ शुद्ध आश्रम व्यवस्था में हिमालय में की एकांत साधनाओ को घर गृहस्थी जॉब पढ़ाई वालों को सिखाकर एक जैसे परिणाम की गारंटी कैसे दे सकते है?
जो रात दिन सोता ही न हो उसे घड़ी में अलार्म लगा के उठने की आवश्यकता नहीं,लेकिन जो व्यक्ति सोता है उसे अलार्म की जरूरत पड़ेगी।
प्रवचनकर्ता सिर्फ साधना में रत हैं, उन्हें ऑफिस नहीं जाना होता, पढ़ाई नहीं करनी होती, रोज सुबह नाश्ते में क्या बनेगा इसकी टेंशन नहीं है,और रिश्तेदारों की शादी में गिफ्ट क्या देना है ये भी टेंशन नहीं। कुँवारी बहन के विवाह की चिंता नहीं तो वो मन पवित्र (अर्थात विकार मुक्त ) कर सकते है। अतः उन्हें हिंदुओ के पवित्र चिन्हों की भी आवश्यकता न हो।
🙏🏻तिलक (अर्थात बुद्धि रथ पर गुरुदेव को बिठाना) ऐसे काम करना जिससे सर्वत्र सम्मान मिले। शिखा - में मां गायत्री की स्थापना करना अर्थात मन में सद्विचारों-सकारात्मक एनर्जी की एंट्री करना और कुविचारों और नकारात्मक को बाहर कर देना। जनेऊ के तीन धागे में माँ गायत्री की त्रिपदा शक्ति को धारण करना। ये सब अलार्म घड़ी की तरह रिमाइंडर है जो सद्गृहस्थ का मार्गदर्शन करते है उन्हें अध्यात्म पथ से भटकने से बचाते हैं। राह के मार्ग बताने वाले सूचक की उसको अत्यंत आवश्यकता है जो सफर कर रहा है। हम सब अध्यात्म पथ के पथिको को इसकी आवश्यकता है।
जो हिमालय के शिखर पर बैठा हो, जिसे कहीं जाना नहीं उन्हें किसी मार्ग सूचक की आवश्यकता नहीं है। अतः हो सकता है इन धार्मिक चिन्हों की उन्हें आवश्यकता न हो।
अब समझते हैं कि मन पवित्र हो तो कुत्ते के चरण और गुरु के चरण में कोई फर्क नहीं। सबसे पहले समझो मन पवित्र अर्थात विकारों से मुक्त, कण कण में परमात्म बोध हो, उदाहरण भक्त नामदेव की तरह, जो ब्रह्म राक्षस और कुत्ते के अंदर भी ब्रह्म देख सकते हैं। रोटी कुत्ता ले गया तो बोले प्रभु घी तो लगा लो, कुत्ते में परब्रह्म मिल गया।
तो मन की स्वयं की पवित्रता चेक कैसे करोगे? क्या कुत्ते में परब्रह्म दिखता है? रोड के चलते किसी गन्दे कुत्ते के साथ भोजन कर सकते हो? यदि भेद बुद्धि है तो मन पवित्र नहीं । यदि मन पवित्र नहीं हुआ। अर्थात चेतना के शिखर पर नहीं हो। यदि चेतना के शिखर पर नहीं हो तो अर्थात अध्यात्म के पथिक हो और सफर कर रहे हो। यदि सफर में हो तो मार्ग सूचक चाहिए , कर्मकांड चाहिए और उससे जुड़ी प्रेरणाएं भी ग्रहण करना चाहिए।
😇युगऋषि गृहस्थ की समस्या को समझते थे, इसलिए उन्होंने ने सहज गायत्री उपासना पद्धति (जप और ध्यान) बताया। साथ ही आत्म सुधार साधना हेतु स्वाध्याय-आत्म बोध-तत्व बोध की साधना बताई। क्योंकि समाज का प्रभाव तुम पर है और तुम्हारा प्रभाव समाज पर है तो आराधना बताई- यज्ञ एक समग्र उपचार सरल हवन विधि बताई। सप्त आंदोलन से जोड़कर युगनिर्माण योजना दी, जिस समाज मे रह रहे हो उसे सुधारो और आनन्दमय जीवन यहां भी उपभोग करो और गायत्री साधना से ब्रह्मलोक भी प्राप्त करो। गुह्य साधनाएं भी बताई - प्रसुप्ति से जागृति की ओर भी। लेकिन सब क्रमबद्ध तरीके से।
अतः वक्ता अपनी योग्यता के अनुसार भाषण दे रहा है लेकिन श्रोता की अपनी लिमिटेशन हैं यहभी समझना जरूरी है।
👉🏽एक सांसारिक उदाहरण जिसमें चमत्कार जैसा कुछ नहीं लेकिन फिर भी चमत्कार जैसा लगता है:-
अरुणिमा एवरेस्ट नकली पैर से चढ़ गई आत्मबल से वो कोई साधक नहीं है। सांसारिक सफलता पुरूषार्थ से प्राप्त की।
जीने की चाहत ने उसे बिना बेहोशी के दवा और ब्लड के अपनी आंखों के सामने पैर काटने और ऑपरेशन देखने की परिस्थिति जैसे कठिन संकट को सहने की हिम्मत दी। ईश्वर उसकी मदद करता है जो अपनी मदद स्वयं करता है।
लेकिन यदि सुखमय परिस्थिति में हॉस्पिटल में सब सुविधा होते हुए, क्या वो इस दर्द के मंजर को होश में देखना चाहती? मजबूरी में मजदूर जितनी मेहनत करता है यदि वो बड़ा आदमी बन जाये और सुखमय परिस्थिति में वो क्या वैसी मेहनत करेगा?
मजबूरी और बिना मजबूरी में फर्क है। यह अध्यात्म और संसार दोनो पर लागू होता है। जंगल और आश्रम मे जहाँ कोई स्वाद् के ऑप्शन मौजूद नहीं वहां मन को नियन्त्रण में करने, और घर गृहस्थी मे सर्व सुख साधन स्वाद् के बीच करने में फर्क है। ये समझिए, सद्गृहस्थ का सहज तप और भक्तियोग जंगल मे रहने वाले योगी के कठिन तप के समान फलीभूत होता है।
अतः विवेक से काम लेते हुए साधना करें, संगीत के वाद्य यंत्र की तरह जीवन है, न इसे इतना कसो की तार टूट जाये और न इतना ढीला छोड़ो की बेसुरा हो जाये। सही मायने में गुरुदेव कहते हैं संसार और अध्यात्म में संतुलन ही अध्यात्म है।
🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन
यदि और कोई जिज्ञासा हो तो अवश्य पूंछे..
उत्तर - आत्मीय भैया, मुझे खुशी है कि इस प्रश्न के उत्तर देने योग्य आपने मुझे समझा।
धार्मिक प्रवचन का जनरल वाक्य एक ऑपरेशन के लिए पेट को खोलने जैसा है,यदि समय पर घाव की सिलाई उचित मार्गदर्शन देकर न हुई तो सेप्टिक हो सकता है,मरीज अर्थात श्रोता को जान का ख़तरा भी हो सकता है।
युगऋषि परमपूज्य गुरुदेव ने अशरीरी सदगुरु का मार्गदर्शन लिया। सद्गुरु के शरीर रहने न रहने से फर्क नहीं पड़ता। उनकी चेतना से ईश्वर की तरह ही जुड़कर मार्गदर्शन मिलता है। सद्गुरु बहुत जरूरी है जीवन के लिये अब वो शरीरी हों या अशरीरी। गुरु के बिना अन्तः ज्ञान तक स्वयं पहुंचना दुष्कर है।
प्रवचन कर्ता ने बुद्ध का उदाहरण दिया- तो क्या हम और आप घर गृहस्थी पढ़ाई जॉब सब कुछ छोड़कर, अन्न जल त्याग कर, नींद छोड़कर जंगल मे कई वर्षों तक एक आसन एक मुद्रा में तपस्या कर सकते हैं क्या? यदि उत्तर नहीं है तो सद्गुरु जीवन में चाहिए।
कोई साधना जंगल के फल और हिमालय का जल पीकर प्रदूषण रहित वायु द्वारा श्वांस लेकर करने में और घर गृहस्थी के झंझट में, जॉब पढ़ाई के बीच टेंशन में, प्रदूषित वायु श्वांस लेकर, प्रदूषित जल पीकर, केमिकल लगा फल खाकर ध्वनि प्रदूषण के बीच क्या एक जैसा परिणाम देगी?
प्रवचनकर्ता अपने गुरु के प्रत्यक्ष मार्गदर्शन में स्वस्थ शुद्ध आश्रम व्यवस्था में हिमालय में की एकांत साधनाओ को घर गृहस्थी जॉब पढ़ाई वालों को सिखाकर एक जैसे परिणाम की गारंटी कैसे दे सकते है?
जो रात दिन सोता ही न हो उसे घड़ी में अलार्म लगा के उठने की आवश्यकता नहीं,लेकिन जो व्यक्ति सोता है उसे अलार्म की जरूरत पड़ेगी।
प्रवचनकर्ता सिर्फ साधना में रत हैं, उन्हें ऑफिस नहीं जाना होता, पढ़ाई नहीं करनी होती, रोज सुबह नाश्ते में क्या बनेगा इसकी टेंशन नहीं है,और रिश्तेदारों की शादी में गिफ्ट क्या देना है ये भी टेंशन नहीं। कुँवारी बहन के विवाह की चिंता नहीं तो वो मन पवित्र (अर्थात विकार मुक्त ) कर सकते है। अतः उन्हें हिंदुओ के पवित्र चिन्हों की भी आवश्यकता न हो।
🙏🏻तिलक (अर्थात बुद्धि रथ पर गुरुदेव को बिठाना) ऐसे काम करना जिससे सर्वत्र सम्मान मिले। शिखा - में मां गायत्री की स्थापना करना अर्थात मन में सद्विचारों-सकारात्मक एनर्जी की एंट्री करना और कुविचारों और नकारात्मक को बाहर कर देना। जनेऊ के तीन धागे में माँ गायत्री की त्रिपदा शक्ति को धारण करना। ये सब अलार्म घड़ी की तरह रिमाइंडर है जो सद्गृहस्थ का मार्गदर्शन करते है उन्हें अध्यात्म पथ से भटकने से बचाते हैं। राह के मार्ग बताने वाले सूचक की उसको अत्यंत आवश्यकता है जो सफर कर रहा है। हम सब अध्यात्म पथ के पथिको को इसकी आवश्यकता है।
जो हिमालय के शिखर पर बैठा हो, जिसे कहीं जाना नहीं उन्हें किसी मार्ग सूचक की आवश्यकता नहीं है। अतः हो सकता है इन धार्मिक चिन्हों की उन्हें आवश्यकता न हो।
अब समझते हैं कि मन पवित्र हो तो कुत्ते के चरण और गुरु के चरण में कोई फर्क नहीं। सबसे पहले समझो मन पवित्र अर्थात विकारों से मुक्त, कण कण में परमात्म बोध हो, उदाहरण भक्त नामदेव की तरह, जो ब्रह्म राक्षस और कुत्ते के अंदर भी ब्रह्म देख सकते हैं। रोटी कुत्ता ले गया तो बोले प्रभु घी तो लगा लो, कुत्ते में परब्रह्म मिल गया।
तो मन की स्वयं की पवित्रता चेक कैसे करोगे? क्या कुत्ते में परब्रह्म दिखता है? रोड के चलते किसी गन्दे कुत्ते के साथ भोजन कर सकते हो? यदि भेद बुद्धि है तो मन पवित्र नहीं । यदि मन पवित्र नहीं हुआ। अर्थात चेतना के शिखर पर नहीं हो। यदि चेतना के शिखर पर नहीं हो तो अर्थात अध्यात्म के पथिक हो और सफर कर रहे हो। यदि सफर में हो तो मार्ग सूचक चाहिए , कर्मकांड चाहिए और उससे जुड़ी प्रेरणाएं भी ग्रहण करना चाहिए।
😇युगऋषि गृहस्थ की समस्या को समझते थे, इसलिए उन्होंने ने सहज गायत्री उपासना पद्धति (जप और ध्यान) बताया। साथ ही आत्म सुधार साधना हेतु स्वाध्याय-आत्म बोध-तत्व बोध की साधना बताई। क्योंकि समाज का प्रभाव तुम पर है और तुम्हारा प्रभाव समाज पर है तो आराधना बताई- यज्ञ एक समग्र उपचार सरल हवन विधि बताई। सप्त आंदोलन से जोड़कर युगनिर्माण योजना दी, जिस समाज मे रह रहे हो उसे सुधारो और आनन्दमय जीवन यहां भी उपभोग करो और गायत्री साधना से ब्रह्मलोक भी प्राप्त करो। गुह्य साधनाएं भी बताई - प्रसुप्ति से जागृति की ओर भी। लेकिन सब क्रमबद्ध तरीके से।
अतः वक्ता अपनी योग्यता के अनुसार भाषण दे रहा है लेकिन श्रोता की अपनी लिमिटेशन हैं यहभी समझना जरूरी है।
👉🏽एक सांसारिक उदाहरण जिसमें चमत्कार जैसा कुछ नहीं लेकिन फिर भी चमत्कार जैसा लगता है:-
अरुणिमा एवरेस्ट नकली पैर से चढ़ गई आत्मबल से वो कोई साधक नहीं है। सांसारिक सफलता पुरूषार्थ से प्राप्त की।
जीने की चाहत ने उसे बिना बेहोशी के दवा और ब्लड के अपनी आंखों के सामने पैर काटने और ऑपरेशन देखने की परिस्थिति जैसे कठिन संकट को सहने की हिम्मत दी। ईश्वर उसकी मदद करता है जो अपनी मदद स्वयं करता है।
लेकिन यदि सुखमय परिस्थिति में हॉस्पिटल में सब सुविधा होते हुए, क्या वो इस दर्द के मंजर को होश में देखना चाहती? मजबूरी में मजदूर जितनी मेहनत करता है यदि वो बड़ा आदमी बन जाये और सुखमय परिस्थिति में वो क्या वैसी मेहनत करेगा?
मजबूरी और बिना मजबूरी में फर्क है। यह अध्यात्म और संसार दोनो पर लागू होता है। जंगल और आश्रम मे जहाँ कोई स्वाद् के ऑप्शन मौजूद नहीं वहां मन को नियन्त्रण में करने, और घर गृहस्थी मे सर्व सुख साधन स्वाद् के बीच करने में फर्क है। ये समझिए, सद्गृहस्थ का सहज तप और भक्तियोग जंगल मे रहने वाले योगी के कठिन तप के समान फलीभूत होता है।
अतः विवेक से काम लेते हुए साधना करें, संगीत के वाद्य यंत्र की तरह जीवन है, न इसे इतना कसो की तार टूट जाये और न इतना ढीला छोड़ो की बेसुरा हो जाये। सही मायने में गुरुदेव कहते हैं संसार और अध्यात्म में संतुलन ही अध्यात्म है।
🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन
यदि और कोई जिज्ञासा हो तो अवश्य पूंछे..
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