Wednesday 25 April 2018

प्रश्न - *तितिक्षा का अध्यात्म में क्या अर्थ है? तितिक्षा तप का मर्म क्या है?*

प्रश्न - *तितिक्षा का अध्यात्म में क्या अर्थ है? तितिक्षा तप का मर्म क्या है?*

उत्तर- शरीर को कष्टसाध्य तप द्वारा, संयम द्वारा साधना तितिक्षा तप कहलाता है।

तितिक्षा का एक अर्थ सहनशीलता भी होता है। कठिन हठयोग द्वारा देहानुभूति से परे जाना।

और अधिक गहराई से समझने के लिए अखण्डज्योति मई 1991 यह आर्टिकल पढ़ें:-

May 1991

*तप तितिक्षा का मर्म*

“जहाँ दो कोस तक चारों ओर जनशून्य स्थान मिले, वही आसन लगा।” अपने समर्थ शिष्य को दीक्षा देने के बाद मत्स्येन्द्रनाथ जी ने आदेश दिया। यह हिम प्रान्त जनशून्य क्या, प्राणी शून्य था। नेपाल में मुक्ति से काफी आगे दुर्गम पर्वत मालाओं में स्थित है यह शालिग्राम क्षेत्र। दामोदर कुण्ड के पास की इस भूमि को बर्फ ने अपनी लम्बी चौड़ी सफेद चादर से ढक रखा था।

कितना कठिन है देहाभ्यास। आज भी जहाँ जाने के लिए विशेष पोशाक, विशेष जूते और अनेकों औषधियाँ जरूरी पड़ती हैं। जहाँ आंखों पर चश्मे का नीलावरण न हो तो बर्फ पर प्रतिबिम्बित सूर्य की किरणें आधे क्षण में अन्धा बना दें। नासिका किसी चिकने लेप से ढकी न हो तो हिमदंश ने उसे कब गला दिया, पता ही न लगे। ऐसे विकट क्षेत्र में उन दिनों जो केवल काली कौपीन लपेटे नग्नदेह नंगे पाँव जा पहुंचा हो, उसकी कठिनाइयों का क्या ठिकाना?

“बहुत बाधक है देह की अनुभूति।” उन जैसे के लिए भी मन को देह से हटा कर एकाग्र कर पाना कठिन हो रहा था। प्राणायाम से प्राप्त ऊष्मा थोड़ी देर में चुक जाती। तब, ऐसा लगने लगता कि सर्दी हड्डी में बलात् घुस कर उन्हें टुकड़े-टुकड़े कर देगी। नाड़ियों को फटने की असह्य वेदना मन को चंचल होने के लिए विवश कर देती। पुनः प्राणायाम का सहारा लेना पड़ता।

“देह जब लक्ष्य की ओर जाने नहीं देती तब क्यों न देह को ही लक्ष्य बनाकर पहले उस ओर से निश्चित हो लिया जाए।” सर्वथा नया नहीं था यह तर्क। अवधूत गुरु दत्तात्रेय ने रसेश्वर - सम्प्रदाय की स्थापना इसीलिए की थी और वह सिद्ध रसेन्द्र, प्रक्रिया से अपरिचित न थे।

शुभ्र शशाँक धवल विप्र पारा आज अप्राप्य है और सुलभ कभी था भी नहीं। किन्तु महायोगी के लिए दुष्प्राप्य क्या? रस प्रक्रिया आरम्भ कर दी गयी। आधि दैविक शक्तियों ने स्वयं को असमर्थ पाया उस महासाधक के सामने। जहाँ छिद्र होता है, विघ्न वही आते हैं। प्रमाद रहित पूर्व जागरुक गोरखनाथ के समीप विघ्न कहाँ से जाते?

सहसा वह आसन से उठ खड़े हुए। उन्होंने जल और बिल्व पत्र हाथ में लिया। धरती और गगन को अपने पदाघात से पीड़ित करती भगवती छिन्नमस्ता दौड़ती आ रही थी। ‘गोरखनाथ जी अत्यन्त विनीत स्वर में बोले “माता। आप कोई रूप ले लें, अपने शिशु पर निष्करुण नहीं हो सकती।

क्षण भर में चारों ओर शांति छा गई। महादेवी का हस्त स्थिती मस्तक गले पर आ गया। उनके बगल में खड़ी दोनों मूर्तियाँ उनमें लीन हो गई। वे दिगम्बरा निरूपा अब पाटल अरुण वस्त्रों में किंचित श्याम रंग लिए त्रिपुर भैरवी बन चुकी थी।

“शंकर हृदि स्थिता करुणामयी अम्बे।” गोरखनाथ ने सविधि स्तवन किया। किन्तु वह रूप त्रिपुर सुन्दरी नहीं बना। कोई चिन्ता की बात नहीं थी। त्रिपुर भैरवी महाकाल शिव के हृदय में स्थित होने से अतिशय करुणामयी है। साधक के लिए सिद्धिप्रदा है।

“तुमने महाशक्ति की अर्चना के बिना ही यह कर्म प्रारम्भ कर दिया। यह भी याद है तुम्हें की समय कौन सा है। इस समय रस सिद्धि कदाचित ही होती है। तुम केवल इसे अपने तीन शिष्यों को दे सकोगे।” भगवती सीमा निर्धारित कर अन्तर्ध्यान हो गयी।

रस को संस्कारित करने का श्रम तथा संकट को जिसने स्वीकारा उस कौमारी शक्ति को तो वंचित नहीं किया जा सकता। सिद्ध रस के सेवन ने उन्हें अमर योगिनी बना दिया। विभिन्न योग सम्प्रदाय के अनेक ग्रन्थों में अनेक नामों से उल्लेख है। रसेन्द्र का सेवन करके देह सिद्ध हो गई। अब उन्होंने फिर से दामोदर कुण्ड के पास एक हिमशिला पर आसन जमाया। प्रकृति की शक्तियाँ अब उनकी देह पर अपना प्रभाव छोड़ने में असमर्थ थी। ध्यान में अब देह की बाधा नहीं थी।

“दम्भी कहीं का?”एक प्रबल अट्टहास के बीच गूँजते इन शब्दों ने उनका ध्यान तोड़ दिया। बिखरी जटाएँ, अंगार जैसी आंखें दिगम्बर, मलिन काय भारी भरकम डील-डौल वाला पागल इस निर्जन में कहाँ से आ गया। सबसे बड़ा आश्चर्य यह था की वह अपना ध्यान किसी भी तरह नहीं जमा पा रहे थे। सैकड़ों वज्र ध्वनियाँ करते शिलाखण्ड, जहाँ थोड़ी-थोड़ी देर में टूटते हो, उस प्रचण्ड कोलाहल में सर्वथा अप्रभावित रहने वाले इस योगी को इस पागल के अट्टहास ने विचलित कर दिया था। उसे लगता था किसी ने उसके मन को बलपूर्वक बाहर निकाल कर पटक दिया है।

“आप कौन हैं?” गोरखनाथ जी ने पूछा। वे अपनी आंखों की पलकें भी नहीं झपका पा रहे थे।

“अपने बाप का परिचय पूछता है, मूर्ख कहीं का।” पागल ने हाथ की तलवार से उन पर वार किया। किन्तु योगी जी की सिद्ध देह से टकराकर तलवार एक तीव्र झंकार ध्वनि के साथ पागल के हाथ से छूट कर दूर जा गिरी। उनके शरीर पर कोई चिन्ह नहीं बना था।

“दम्भी तेरा गुरु.... “ यह पागल गुरु को पता नहीं क्या अपशब्द कहेगा। गुरु के अपमान की संभावना को वह सहन नहीं कर पाये। उसने झपट कर तलवार उठाई और पूरी ताकत से पागल पर चोट की। पर यह क्या? आघात के वेग ने उन्हें स्वयं एक हिमशिला पर पटक दिया। पागल के शरीर से तलवार ऐसे निकल गयी जैसे हवा में चलाई गयी हो।

“आप कौन?” वह हतप्रभ थे, ऐसा कौन है जो उनकी सर्वज्ञ दृष्टि की पकड़ में नहीं आ रहा। “मैं झूठ नहीं कहता। अपने दम्भ के कारण तू अविश्वासी बन गया है।” पागल का स्वरूप बदल गया और वह अपने गुरु को पहचान कर उनके चरणों में गिर पड़े।

“आपको छोड़ कर ऐसा शक्ति संपन्न धरती पर और कोई नहीं।” उनकी आंखों से झरती अश्रुधारा गुरु के चरणों को धो रही थी।” वज्रदेह पाने का मेरा गर्व गल गया। मुझ पर अनुग्रह करें देव। मेरा दम्भी।” माँ को अपने अबोध शिशु की चिन्ता रहती है और गुरु का हृदय माँ से कही ज्यादा ममत्व लिए होता है। तू क्या समझता है मत्स्येन्द्र को, अपना कर्तव्य भूल गया। एक बार जिसे शिष्य स्वीकार किया उसे परम सिद्धि तक पहुँचाना तो मेरा कर्तव्य था। तेरे हर क्रियाकलाप पर मेरी दृष्टि रही है। छिन्नमस्ता को तूने प्रसन्न कर लिया पर यदि चामुण्डा आती तो?” सचमुच आना तो चामुंडा को था। उनकी वज्र देह पीपल के पत्ते की तरह काँप उठी। शिववत् ताण्डव करने वाली उग्र भैरवी को वे कैसे शान्त करते? वे तो कोई मर्यादा नहीं मानती।

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