प्रश्न - *"गृहस्थ साधक के लिए दायित्व की सीमा का स्वरुप क्या है?"*
उत्तर - गृहस्थाश्रम धन्य है और सर्वश्रेष्ठ सभी आश्रम में है। ब्रह्मचर्य आश्रम(जन्म से किशोरावस्था और पूर्व युवावस्था) तक यहीं पलता-बढ़ता है। आश्रित है।
वानप्रस्थ और सन्याश्रम का भरण-पोषण का उत्तरदायित्व भी गृहस्थाश्रम पर ही है।
देश-समाज की अर्थव्यवस्था भी गृहस्थ द्वारा दिये कर (tax) पर निर्भर है। आध्यात्मिक गतिविधियों के हेतु अर्थव्यवस्था गृहस्थ द्वारा दिये दान(donation) पर निर्भर है।
देश की महत्त्वपूर्ण इकाई परिवार गृहस्थाश्रम ही है, यदि परिवार अच्छे संस्कार बच्चो में गढ़ने से चूके तो संस्कारविहीन समाज खड़ा हो जाता है। युवा शिक्षक जॉब करने वाले भी गृहस्थ होते हैं, उनका दायित्व गुरुरूप में बच्चो में संस्कार गढ़ने का माता पिता के बाद सबसे ज़्यादा होता है।
गृहस्थ ही समाज मे सर्वत्र विभिन्न जॉब में कार्यरत हैं।
अतः गृहस्थ का साधक होना बहुत जरूरी है, यदि वो साधक न हुआ तो सर्वत्र बाधक बनता है।
*गृहस्थ के ऊपर उपरोक्त इतने सारे उत्तरदायित्व होते है कि उसकी थोड़ी सी साधना भी सन्यासी की अधिक साधना से ज़्यादा फलवती होती है।*
गृहस्थ द्वारा की एक मासीय पापनाशिनी और तितिक्षा साधना चन्द्रायण व्रत सन्यासी के चतुर्मास व्रत से ज़्यादा फ़ल देता है। क्यूंकि भोजन बनाना और ख़ुद न खाना, सबकुछ उपलब्ध होते हुए भी जिह्वा पर नियंत्रण रख व्रत रखना, जॉब करते हुए भी चित्त गुरुदेव के चरणों मे रखना। यह सब कम कठिन नहीं है।
यदि जंगल के तपस्वियों के लिए शेर-भालू-सर्प-बिच्छू ख़तरनाक है तो गृहस्थ के लिए ऑफीस में बॉस और गला-काट राजनीति है। घर में नाते-रिश्तेदार के ताने, और रिश्तों की उलझने किसी भी जंगल की लताओं और दुष्कर मार्ग से कम नहीं है।
गृहस्थ साधक का जीवन एक वीणा/सितार की तरह होना चाहिए। यदि विलासता में इसे ढीला छोड़ा तो जीवन बेसुरा हो जाएगा। इसी तरह यदि इसे हठ-योग और कठिन साधना से ज्यादा कसा तो टूटने की संभावना बन जाएगी और जीवन संगीत न निकलेगा।
गृहस्थ साधक के जीवन मे उपासना(जप-ध्यान), साधना(योग-प्राणायाम-स्वाध्याय), आराधना(यज्ञमय जीवन, समयदान-अंशदान) में संतुलन-संयमित होना चाहिए। संसार और अध्यात्म में संतुलन होना चाहिए। किसी भी एक पक्ष की उपेक्षा गृहस्थ को अधूरा कर देगी।
गृहस्थ की गाड़ी के दो पहिये है, एक अध्यात्म और दूसरा संसार। दोनों में संतुलन और हवा बराबर होनी चाहिए। गृहस्थ साधक को यह हमेशा याद रखना चाहिए कि मनुष्यों की उपज खेत मे नहीं बल्कि मां के गर्भ और फिर परिवार में होती है। तो लौकिक जिम्मेदारियों की उपेक्षा करके अध्यात्म क्षेत्र में प्रवेश वर्जित है। ईश्वर अपने बच्चों और जीवनसाथी को भूखा रखने वाले और अपनी जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ कर भाग कर किसी आश्रम में शरण लेने वाले भगोड़े की पूजा-अर्चना स्वीकार नहीं करता। जीवन की कठिनाइयों और संघर्ष मय जीवन मे गृहस्थ जिम्मेदारियों के निर्वहन करने वाले का थोड़ा सा समयदान और अंशदान भी ईश्वर को प्रिय है। क्योंकि भगवान की सृष्टि के सुचारू संचालन में गृहस्थ ही सबसे ज्यादा योगदान देता है।
यदि सन्तान उतपत्ति नहीं कर रहे और पति-पत्नी दोनों की सहमति है तो ही पूर्णरूपेण वानप्रस्थी होकर अध्यात्म में युवावस्था में ही प्रवेश करें। ब्रह्मचारी और अविवाहित भी सन्यास लेकर लोककल्याण हेतु स्वयं को आहूत कर सकते है।
🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन
उत्तर - गृहस्थाश्रम धन्य है और सर्वश्रेष्ठ सभी आश्रम में है। ब्रह्मचर्य आश्रम(जन्म से किशोरावस्था और पूर्व युवावस्था) तक यहीं पलता-बढ़ता है। आश्रित है।
वानप्रस्थ और सन्याश्रम का भरण-पोषण का उत्तरदायित्व भी गृहस्थाश्रम पर ही है।
देश-समाज की अर्थव्यवस्था भी गृहस्थ द्वारा दिये कर (tax) पर निर्भर है। आध्यात्मिक गतिविधियों के हेतु अर्थव्यवस्था गृहस्थ द्वारा दिये दान(donation) पर निर्भर है।
देश की महत्त्वपूर्ण इकाई परिवार गृहस्थाश्रम ही है, यदि परिवार अच्छे संस्कार बच्चो में गढ़ने से चूके तो संस्कारविहीन समाज खड़ा हो जाता है। युवा शिक्षक जॉब करने वाले भी गृहस्थ होते हैं, उनका दायित्व गुरुरूप में बच्चो में संस्कार गढ़ने का माता पिता के बाद सबसे ज़्यादा होता है।
गृहस्थ ही समाज मे सर्वत्र विभिन्न जॉब में कार्यरत हैं।
अतः गृहस्थ का साधक होना बहुत जरूरी है, यदि वो साधक न हुआ तो सर्वत्र बाधक बनता है।
*गृहस्थ के ऊपर उपरोक्त इतने सारे उत्तरदायित्व होते है कि उसकी थोड़ी सी साधना भी सन्यासी की अधिक साधना से ज़्यादा फलवती होती है।*
गृहस्थ द्वारा की एक मासीय पापनाशिनी और तितिक्षा साधना चन्द्रायण व्रत सन्यासी के चतुर्मास व्रत से ज़्यादा फ़ल देता है। क्यूंकि भोजन बनाना और ख़ुद न खाना, सबकुछ उपलब्ध होते हुए भी जिह्वा पर नियंत्रण रख व्रत रखना, जॉब करते हुए भी चित्त गुरुदेव के चरणों मे रखना। यह सब कम कठिन नहीं है।
यदि जंगल के तपस्वियों के लिए शेर-भालू-सर्प-बिच्छू ख़तरनाक है तो गृहस्थ के लिए ऑफीस में बॉस और गला-काट राजनीति है। घर में नाते-रिश्तेदार के ताने, और रिश्तों की उलझने किसी भी जंगल की लताओं और दुष्कर मार्ग से कम नहीं है।
गृहस्थ साधक का जीवन एक वीणा/सितार की तरह होना चाहिए। यदि विलासता में इसे ढीला छोड़ा तो जीवन बेसुरा हो जाएगा। इसी तरह यदि इसे हठ-योग और कठिन साधना से ज्यादा कसा तो टूटने की संभावना बन जाएगी और जीवन संगीत न निकलेगा।
गृहस्थ साधक के जीवन मे उपासना(जप-ध्यान), साधना(योग-प्राणायाम-स्वाध्याय), आराधना(यज्ञमय जीवन, समयदान-अंशदान) में संतुलन-संयमित होना चाहिए। संसार और अध्यात्म में संतुलन होना चाहिए। किसी भी एक पक्ष की उपेक्षा गृहस्थ को अधूरा कर देगी।
गृहस्थ की गाड़ी के दो पहिये है, एक अध्यात्म और दूसरा संसार। दोनों में संतुलन और हवा बराबर होनी चाहिए। गृहस्थ साधक को यह हमेशा याद रखना चाहिए कि मनुष्यों की उपज खेत मे नहीं बल्कि मां के गर्भ और फिर परिवार में होती है। तो लौकिक जिम्मेदारियों की उपेक्षा करके अध्यात्म क्षेत्र में प्रवेश वर्जित है। ईश्वर अपने बच्चों और जीवनसाथी को भूखा रखने वाले और अपनी जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ कर भाग कर किसी आश्रम में शरण लेने वाले भगोड़े की पूजा-अर्चना स्वीकार नहीं करता। जीवन की कठिनाइयों और संघर्ष मय जीवन मे गृहस्थ जिम्मेदारियों के निर्वहन करने वाले का थोड़ा सा समयदान और अंशदान भी ईश्वर को प्रिय है। क्योंकि भगवान की सृष्टि के सुचारू संचालन में गृहस्थ ही सबसे ज्यादा योगदान देता है।
यदि सन्तान उतपत्ति नहीं कर रहे और पति-पत्नी दोनों की सहमति है तो ही पूर्णरूपेण वानप्रस्थी होकर अध्यात्म में युवावस्था में ही प्रवेश करें। ब्रह्मचारी और अविवाहित भी सन्यास लेकर लोककल्याण हेतु स्वयं को आहूत कर सकते है।
🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन
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