प्रश्न - *क्या गर्भकाल से ही शिशु का प्रशिक्षण सम्भव है ?*
उत्तर - *आयु: कर्म च वित्तं च विद्या निधनमेव च।*
*पञ्चेतान्यपि सृज्यन्ते गर्भस्थस्यैव देहिन:॥*
अर्थात्- आयु, कर्म, धन, विद्या और मृत्यु गर्भ में रच जाती है।
हाँ, गर्भ में शिक्षण पूर्णरूप से सम्भव है क्योंकि इसके सशक्त प्रमाण प्राचीन भारत में अनेक स्थानों पर उपलब्ध हैं।
👉🏼 *भारतीय संस्कृति गर्भ से ही प्रशिक्षण को स्वीकारता है।*
माता पिता से केवल शरीर ही नहीं प्राप्त होता, मन और संस्कार भी प्राप्त होते हैं। ऋषियों ने जीवात्मा के जन्म जन्मान्तरों एवं माता पिता के संसर्ग से उत्पन्न दोषों के परिमार्जन तथा शुभ संस्कारों के रोपण का कार्य गर्भाधान के साथ ही सम्पन्न करने का विधान बनाया था। गर्भाधान पुंसवन एवं सीमन्तोन्नयन संस्कार इसी प्रक्रिया के अंग हैं। शिशु के शरीर और मन का संगठन उसके जन्म के उपरांत नहीं अपितु गर्भावस्था से ही आरम्भ हो जाता है।
वैदिक और पौराणिक साहित्य में इस बात के पर्याप्त प्रमाण उपलब्ध हैं जैसे- शुकदेव और अष्टावक्र को ब्रह्मज्ञान का प्रशिक्षण, माँ सुभद्रा द्वारा पुत्र अभिमन्यु को गर्भकाल में चक्रव्यूह भेदन का ज्ञान, सुनीति द्वारा ध्रुव को, जीजाबाई द्वारा शिवा का लालन-पालन, सीता द्वारा लव कुश का, कयाधु द्वारा प्रहलाद का, शकुन्तला द्वारा भरत का शिक्षण इसी का प्रमाण है।
*विज्ञान भी गर्भ में प्रशिक्षण को स्वीकारता है*
आधुनिक विज्ञान भी भारतीय ऋषियों की परंपरा का पूर्ण समर्थन कर रहा है। इन दिनों यंत्र उपकरणों व विविध गतिविधियों के माध्यम से गर्भिणी के आवेग-संवेग का शिशु पर स्पष्टï प्रभाव देखा जा सकता है। शोधकर्ताओं ने गर्भिणी के साथ किये गये व्यवहार अथवा सुख दुख की परिस्थितियों में शिशु को प्रतिक्रिया व्यक्त करते देखा है। अनेक देशों में इस वैज्ञानिक शोध को आधार बनाकर इच्छित संतति प्राप्त करने हेतु तंत्र खड़े किये गये हैं ।
उत्तर - *आयु: कर्म च वित्तं च विद्या निधनमेव च।*
*पञ्चेतान्यपि सृज्यन्ते गर्भस्थस्यैव देहिन:॥*
अर्थात्- आयु, कर्म, धन, विद्या और मृत्यु गर्भ में रच जाती है।
हाँ, गर्भ में शिक्षण पूर्णरूप से सम्भव है क्योंकि इसके सशक्त प्रमाण प्राचीन भारत में अनेक स्थानों पर उपलब्ध हैं।
👉🏼 *भारतीय संस्कृति गर्भ से ही प्रशिक्षण को स्वीकारता है।*
माता पिता से केवल शरीर ही नहीं प्राप्त होता, मन और संस्कार भी प्राप्त होते हैं। ऋषियों ने जीवात्मा के जन्म जन्मान्तरों एवं माता पिता के संसर्ग से उत्पन्न दोषों के परिमार्जन तथा शुभ संस्कारों के रोपण का कार्य गर्भाधान के साथ ही सम्पन्न करने का विधान बनाया था। गर्भाधान पुंसवन एवं सीमन्तोन्नयन संस्कार इसी प्रक्रिया के अंग हैं। शिशु के शरीर और मन का संगठन उसके जन्म के उपरांत नहीं अपितु गर्भावस्था से ही आरम्भ हो जाता है।
वैदिक और पौराणिक साहित्य में इस बात के पर्याप्त प्रमाण उपलब्ध हैं जैसे- शुकदेव और अष्टावक्र को ब्रह्मज्ञान का प्रशिक्षण, माँ सुभद्रा द्वारा पुत्र अभिमन्यु को गर्भकाल में चक्रव्यूह भेदन का ज्ञान, सुनीति द्वारा ध्रुव को, जीजाबाई द्वारा शिवा का लालन-पालन, सीता द्वारा लव कुश का, कयाधु द्वारा प्रहलाद का, शकुन्तला द्वारा भरत का शिक्षण इसी का प्रमाण है।
*विज्ञान भी गर्भ में प्रशिक्षण को स्वीकारता है*
आधुनिक विज्ञान भी भारतीय ऋषियों की परंपरा का पूर्ण समर्थन कर रहा है। इन दिनों यंत्र उपकरणों व विविध गतिविधियों के माध्यम से गर्भिणी के आवेग-संवेग का शिशु पर स्पष्टï प्रभाव देखा जा सकता है। शोधकर्ताओं ने गर्भिणी के साथ किये गये व्यवहार अथवा सुख दुख की परिस्थितियों में शिशु को प्रतिक्रिया व्यक्त करते देखा है। अनेक देशों में इस वैज्ञानिक शोध को आधार बनाकर इच्छित संतति प्राप्त करने हेतु तंत्र खड़े किये गये हैं ।
No comments:
Post a Comment