प्रश्न - *गर्भ सँस्कार पर आयुर्वेदीय पक्ष पर विचार दीजिये*
उत्तर - *आयुर्वेद में सुप्रज ज्ञान का वर्णन आता है* जिसके अनुसार संतान के इच्छुक माता-पिता दोनों ही शारीरिक, मानसिक एवं अध्यात्मिक रूप से इसके लिए तैयारी करते हैं. वास्तव में गर्भ धारण के पश्चात माता का उत्तरदायित्व शिशु के प्रति पिता से अधिक होता है क्योंकि संतान का भ्रूण उनके शरीर में पलता है. इसलिए गर्भ-संस्कार का प्रावधान बनाया गया है जिसमे माता को इस प्रकार की शिक्षा दी जाती है जिससे वह एक स्वस्थ, तेजस्वी और योग्य बालक को इस धरा पर ला सके|
*सुप्रज ज्ञान की शुरुआत पिंड शुद्धि अथवा अंडकोष एवं शुक्राणु की शुद्धीकरण द्वारा होती है| यदि माता अथवा पिता दोनों अथवा दोनों में से कोई एक मानसिक रूप से शांत एवं प्रसन्न नहीं है तो भी गर्भधारण नहीं करना चाहिए*। क्योंकि माता-पिता की मानसिक अवस्था का प्रभाव भी आने वाली संतान के स्वास्थ्य और स्वाभाव पर पड़ता है|
वास्तव में होने वाले माता-पिता को अपने मन में सत्व गुण की अभिवृद्धि के लिए साधन करने चाहिए। इसके लिए अन्य कारणों के साथ *सात्विक आहार एवं उचित दिनचर्या का बड़ा महत्व है*
*तीखे, मसालेदार भोजन और मादक पदार्थों का सेवन नही करना चाहिए|*
*यह तो अब सर्वविदित सत्य है कि गर्भ में पल रहा शिशु मात्र माँस का टुकड़ा नहीं होता अपितु वह एक पूर्ण जीता-जागता अलग व्यक्तित्व है जो उसके आसपास की हर घटना और संवेदना को महसूस भी करता है, उससे प्रभावित भी होता है एवं वह अपना प्रतिक्रिया भी व्यक्त करता है|*
इसका अर्थ यह हुआ की माता-पिता की ज़िम्मेवारी बन जाती है की गर्भित शिशु को उचित, प्रसन्नतापूर्ण ध्वनियाँ और मंगलमय कर्मों से भरा वातावरण प्रदान किया जाए. कुछ समय बाद शिशु के साथ संपर्क भी स्थापित किया जाता है. आयुर्वेद में गर्भधारण किए हुई स्त्री के लिए निर्धारित जीवनचर्या प्रदान की गयी है|
*उन्हें ख़ास पुष्टिदायक भोजन के अलावा, योग एवं मंत्र जप तथा निर्धारित विशिष्ट जीवनचर्या का पालन करना चाहिए*। माता द्वारा सुनी हुई ध्वनि का प्रभाव शिशु के मस्तिष्क पर गहरी छाप छोड़ता है. इसलिए विशिष्ट गर्भ-संस्कार संगीत को सुनना एवं मंत्र उच्चारण गर्भवती महिला को अवश्य करना चाहिए। उन्हें विशेष प्रकार के अच्छे साहित्य एवं पुस्तकों को भी पढ़ना चाहिए|
*ध्यान, धारणा, विचार-सम्मोहन, कल्पनाशक्ति के प्रयोग द्वारा कुछ विधियों को किया जाता है जिससे शिशु द्वारा संपर्क बनाया जाता है।* सबसे महत्वपूर्ण है की शिशु तक शुभ भावनायो और संस्कारों का संचार होना चाहिए. सफेद रंग की रौशनी पर धारणा बहुत लाभदायक प्रयोग है। विचारों को शिशु तक पहुँचाने की विधियां को समझना चाहिए।
जब कोई बात बिना कहे मन में धारण की जाए तो उस विचार की शक्ति सबसे अधिक इसी रूप में होती है. *इसी प्रकार हम शुभ संस्कारों को शिशु तक पहुँचा सकते हैं. यदि ये विचार शुभ, कल्याणकारी और निस्वार्थ हों तो इनका प्रभाव बहुत अधिक बढ़ कर शिशु तक पहुँच जाता है।*
सबसे अधिक प्रभावशाली साधन जो गर्भ संस्कार में उपयोगी सिद्ध होता है वह है संगीत. माता की हृदय की धड़कन को शिशु निरंतर सुनता है, इसलिए जन्म के पश्चात भी उसे माँ के हृदय के पास सबसे सुरक्षित महसूस होता है. संगीत में मस्तिष्क को प्रभावित करने की अद्भुत क्षमता है. *विशिष्ट प्रकार के संगीत से शिशु के लाभदायक और उसके विकास के लिए सहायक योगदान मिलता है*।
वीणा, बाँसुरी और साम वेद के मंत्रों के उच्चारण से माता और शिशु दोनों को लाभ मिलता है।
*गर्भवती स्त्री को भयानक दृश्य और ध्वनि वाली फिल्में, टेलीविज़न सीरियल नहीं देखने चाहिए. प्रीतिकार और मधुर संगति में रहना चाहिए. सुंदर कलाकृतियों, प्राकृतिक दृश्यों तथा अच्छे साहित्य को पढ़ना शिशु पर अच्छा प्रभाव देता है*
दो प्रकार के घृत का प्रयोग गर्भवती माता को कराया जाता है. गर्भधारण के चौथे और पाँचवे माह में *"कल्याणक घृत"* का सेवन स्त्री को करना चाहिए, इससे शिशु के अंगों के विकास में सहायता मिलती है और नवजात शिशु में बीमारियाँ उत्पन्न नहीं होती.
*"तंकन घृत"* का प्रयोग छठे, सातवें और नवें माह में किया जाता है, ये शिशु के लिए लाभप्रद है, माता को रक्त की कमी से बचाने वाली औषधि है. इससे गर्भ के अंत में शिशु के जन्म में भी सहायता मिलती है.
नवजात शिशु के लिए नित्य की जाने वाली प्रार्थना :-
सत्य स्वरूप परमात्मा के चरणों में प्रार्थना है, हर जीव अपने ही कर्म की गति के अनुसार अपने प्रारब्ध को भोगता है, जिस कार्मिक बंधन से हम तीनों का संबंध जुड़ा है उसके द्वारा हम इस शिशु की उन्नति और आत्म जागरण के लिए प्रार्थना करते हैं. हम उसके चुने हुए मार्ग में अवरोध नही करते और उसके कल्याण के लिए प्रार्थना करते हैं.
हे शिशु, आपका यहाँ पर स्वागत है. इस धारा पर आप एक जागृत, सशक्त जीवन का रस लें. यदि आपकी इच्छा हो तो ….. (जो गुण माता-पिता अपनी संतान में लाना चाहते हैं) इन गुणों को धारण कर प्रगति के मार्ग पर अग्रसर होइए. तुम्हारे लक्ष्य की प्राप्ति के लिए हम तुम्हारे संकेत तुम्हें याथायोग्य साधन उपलब्ध करावेंगे. हे बालक, आपके द्वारा इस लोक में देश, समाज का कल्याण हो और आपका भी अत्यंत मंगल हो, यह कामना हम अभिभावक आपके लिए करते हैं।
उत्तर - *आयुर्वेद में सुप्रज ज्ञान का वर्णन आता है* जिसके अनुसार संतान के इच्छुक माता-पिता दोनों ही शारीरिक, मानसिक एवं अध्यात्मिक रूप से इसके लिए तैयारी करते हैं. वास्तव में गर्भ धारण के पश्चात माता का उत्तरदायित्व शिशु के प्रति पिता से अधिक होता है क्योंकि संतान का भ्रूण उनके शरीर में पलता है. इसलिए गर्भ-संस्कार का प्रावधान बनाया गया है जिसमे माता को इस प्रकार की शिक्षा दी जाती है जिससे वह एक स्वस्थ, तेजस्वी और योग्य बालक को इस धरा पर ला सके|
*सुप्रज ज्ञान की शुरुआत पिंड शुद्धि अथवा अंडकोष एवं शुक्राणु की शुद्धीकरण द्वारा होती है| यदि माता अथवा पिता दोनों अथवा दोनों में से कोई एक मानसिक रूप से शांत एवं प्रसन्न नहीं है तो भी गर्भधारण नहीं करना चाहिए*। क्योंकि माता-पिता की मानसिक अवस्था का प्रभाव भी आने वाली संतान के स्वास्थ्य और स्वाभाव पर पड़ता है|
वास्तव में होने वाले माता-पिता को अपने मन में सत्व गुण की अभिवृद्धि के लिए साधन करने चाहिए। इसके लिए अन्य कारणों के साथ *सात्विक आहार एवं उचित दिनचर्या का बड़ा महत्व है*
*तीखे, मसालेदार भोजन और मादक पदार्थों का सेवन नही करना चाहिए|*
*यह तो अब सर्वविदित सत्य है कि गर्भ में पल रहा शिशु मात्र माँस का टुकड़ा नहीं होता अपितु वह एक पूर्ण जीता-जागता अलग व्यक्तित्व है जो उसके आसपास की हर घटना और संवेदना को महसूस भी करता है, उससे प्रभावित भी होता है एवं वह अपना प्रतिक्रिया भी व्यक्त करता है|*
इसका अर्थ यह हुआ की माता-पिता की ज़िम्मेवारी बन जाती है की गर्भित शिशु को उचित, प्रसन्नतापूर्ण ध्वनियाँ और मंगलमय कर्मों से भरा वातावरण प्रदान किया जाए. कुछ समय बाद शिशु के साथ संपर्क भी स्थापित किया जाता है. आयुर्वेद में गर्भधारण किए हुई स्त्री के लिए निर्धारित जीवनचर्या प्रदान की गयी है|
*उन्हें ख़ास पुष्टिदायक भोजन के अलावा, योग एवं मंत्र जप तथा निर्धारित विशिष्ट जीवनचर्या का पालन करना चाहिए*। माता द्वारा सुनी हुई ध्वनि का प्रभाव शिशु के मस्तिष्क पर गहरी छाप छोड़ता है. इसलिए विशिष्ट गर्भ-संस्कार संगीत को सुनना एवं मंत्र उच्चारण गर्भवती महिला को अवश्य करना चाहिए। उन्हें विशेष प्रकार के अच्छे साहित्य एवं पुस्तकों को भी पढ़ना चाहिए|
*ध्यान, धारणा, विचार-सम्मोहन, कल्पनाशक्ति के प्रयोग द्वारा कुछ विधियों को किया जाता है जिससे शिशु द्वारा संपर्क बनाया जाता है।* सबसे महत्वपूर्ण है की शिशु तक शुभ भावनायो और संस्कारों का संचार होना चाहिए. सफेद रंग की रौशनी पर धारणा बहुत लाभदायक प्रयोग है। विचारों को शिशु तक पहुँचाने की विधियां को समझना चाहिए।
जब कोई बात बिना कहे मन में धारण की जाए तो उस विचार की शक्ति सबसे अधिक इसी रूप में होती है. *इसी प्रकार हम शुभ संस्कारों को शिशु तक पहुँचा सकते हैं. यदि ये विचार शुभ, कल्याणकारी और निस्वार्थ हों तो इनका प्रभाव बहुत अधिक बढ़ कर शिशु तक पहुँच जाता है।*
सबसे अधिक प्रभावशाली साधन जो गर्भ संस्कार में उपयोगी सिद्ध होता है वह है संगीत. माता की हृदय की धड़कन को शिशु निरंतर सुनता है, इसलिए जन्म के पश्चात भी उसे माँ के हृदय के पास सबसे सुरक्षित महसूस होता है. संगीत में मस्तिष्क को प्रभावित करने की अद्भुत क्षमता है. *विशिष्ट प्रकार के संगीत से शिशु के लाभदायक और उसके विकास के लिए सहायक योगदान मिलता है*।
वीणा, बाँसुरी और साम वेद के मंत्रों के उच्चारण से माता और शिशु दोनों को लाभ मिलता है।
*गर्भवती स्त्री को भयानक दृश्य और ध्वनि वाली फिल्में, टेलीविज़न सीरियल नहीं देखने चाहिए. प्रीतिकार और मधुर संगति में रहना चाहिए. सुंदर कलाकृतियों, प्राकृतिक दृश्यों तथा अच्छे साहित्य को पढ़ना शिशु पर अच्छा प्रभाव देता है*
दो प्रकार के घृत का प्रयोग गर्भवती माता को कराया जाता है. गर्भधारण के चौथे और पाँचवे माह में *"कल्याणक घृत"* का सेवन स्त्री को करना चाहिए, इससे शिशु के अंगों के विकास में सहायता मिलती है और नवजात शिशु में बीमारियाँ उत्पन्न नहीं होती.
*"तंकन घृत"* का प्रयोग छठे, सातवें और नवें माह में किया जाता है, ये शिशु के लिए लाभप्रद है, माता को रक्त की कमी से बचाने वाली औषधि है. इससे गर्भ के अंत में शिशु के जन्म में भी सहायता मिलती है.
नवजात शिशु के लिए नित्य की जाने वाली प्रार्थना :-
सत्य स्वरूप परमात्मा के चरणों में प्रार्थना है, हर जीव अपने ही कर्म की गति के अनुसार अपने प्रारब्ध को भोगता है, जिस कार्मिक बंधन से हम तीनों का संबंध जुड़ा है उसके द्वारा हम इस शिशु की उन्नति और आत्म जागरण के लिए प्रार्थना करते हैं. हम उसके चुने हुए मार्ग में अवरोध नही करते और उसके कल्याण के लिए प्रार्थना करते हैं.
हे शिशु, आपका यहाँ पर स्वागत है. इस धारा पर आप एक जागृत, सशक्त जीवन का रस लें. यदि आपकी इच्छा हो तो ….. (जो गुण माता-पिता अपनी संतान में लाना चाहते हैं) इन गुणों को धारण कर प्रगति के मार्ग पर अग्रसर होइए. तुम्हारे लक्ष्य की प्राप्ति के लिए हम तुम्हारे संकेत तुम्हें याथायोग्य साधन उपलब्ध करावेंगे. हे बालक, आपके द्वारा इस लोक में देश, समाज का कल्याण हो और आपका भी अत्यंत मंगल हो, यह कामना हम अभिभावक आपके लिए करते हैं।
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