प्रश्न - *दी, हम लोग जितना सम्भव होता पूरी निष्ठा लगन से गुरुकार्य करते है। फ़िर हमें विभिन्न कठिन परीक्षाओं और मनोशारीरिक कष्टों से क्यों गुजरना पड़ता है? मार्गदर्शन करें..*
उत्तर - बहन, अध्यात्म बड़ा जटिल और गूढ़ रहस्यों से भरा सफर है, जो आसान बुद्धि से परोक्ष बुद्धि से परे की चीज़ है।
जन्म हमें दो प्रकार से मिलता है एक भोग शरीर और दूसरा प्रायश्चित शरीर, भोग वाले शरीर मे तो नॉर्मल आधी व्याधि होती है, लेकिन प्रायश्चित शरीर के रोग डॉक्टर नहीं पकड़ सकते हैं क्योंकि जो दिख रहा है वास्तव में वो रोग ही नहीं है, मनोशारीरिक प्रायश्चित विधिव्यवस्था है।
उदाहरण - ठाकुर रामकृष्ण और विवेकानन्द जी, दोनों रिद्धि सिद्धि से भरे हुए थे जनकल्याण करते थे।
ठाकुर को गले का कैंसर था और विवेकानन्द जी को 31 बीमारी थी।
श्रद्धेय डॉक्टर साहब बहुत सारे एक्सीडेंट और ऑपरेशन से गुजर चुके हैं।
सन्त और भगवान जिनके आशीर्वाद से लोगों का कष्ट छू मन्तर हो जाता है, उनके जीवन में उपजे कष्टों को देखकर आश्चर्य नहीं होता कि ऐसा क्यों?
अहिल्या का चरण से स्पर्श कर उद्धार करने वाला, न जाने कितनों का उद्धार करने वाला, स्वयं के पुत्रो के जन्म का साक्षी न बन सका और सीता जी के वियोग में ही जीवन बीता।
महावीर स्वामी को तब तक निर्वाण नहीं मिला जबतक कि ग्वाले ने आकर उनके कानों में खूंटी गाड़कर रक्त न बहा दिया हो।
भगवान कृष्ण की मृत्यु चरवाहे के तीर से हुआ, तो राम जी को जल समाधि लेनी पड़ी। भगवान लक्ष्मण के शरीर को चिता भी नसीब नही हुई उसे चील कौवे ने खाया। भगवान कृष्ण के आंखों के समक्ष समस्त यादवकुल लड़कर नष्ट हो गया।
भगवान के किस अवतार का जीवन सुखमय था? ज़रा रामायण, महाभारत और अन्य धर्म ग्रन्थ पढ़कर देखो। दुःख और कष्टों से भरा जीवन, लेकिन इन कठिनाइयों को पार करते हुए भी महानता की चरम सीमा पर पहुंचे। निजी लाइफ़ में भले असफल हो लेकिन लोककल्याण में सर्वस्व लगा दिया। इसलिये देवता-भगवान कहलाये, क्योंकि वो सद्गुणों और सत्कर्मो का समुच्चय थे।
फ़िर प्रश्न उठता है धार्मिक क्यों बने और अध्यात्म क्यों चुने जब दर्द सहना ही है। प्रारब्ध भुगतना ही है तो....
यहां एक बात समझ लें .....वास्तव में अध्यात्म संकट पूर्ण नहीं टालता, बल्कि प्रारब्ध को भोगना ही पड़ता है। अध्यात्म केवल संकट में धर्मी को सम्हालता है। भगवान राम की तरह मर्यादित रखता है, भगवान कृष्ण की तरह कुशलता देता है, भगवान बुद्ध की तरह कष्ट में भी स्थिर बुद्धि देता है और भगवान शंकर की तरह उदार चरित्र बनाता है जो लोककल्याण के लिए विष पीने से भी पीछे नहीं हटते। धर्म देवता बनाता है।
जानती हो बहन...अग्निपरीक्षा सतीयों को देनी पड़ती है वेश्याओं को नहीं,
उपसर्ग/आरोप सन्तो पर लगते हैं,
डाकुओं को पर नहीं।
कसौटी पर सोने को कसा जाता है लोहे को नहीं...
धर्मी विपन्न रह सकता है खिन्न नहीं। धर्मी का बीमार शरीर हो सकता है, लेकिन कभी बीमार मन औऱ चित्त नहीं होता। महंगा बिस्तर हो न हो, लेकिन चैन ही नींद सोता है।
अधर्मी सम्पन्न रह सकता है अन्तः से प्रशन्न नहीं। अधर्मी का स्वस्थ शरीर हो सकता है, लेकिन कभी स्वस्थ मन औऱ चित्त नहीं होता। महंगा बिस्तर हो सकता है, लेकिन चैन ही नींद कभी नहीं सोता है। क्योंकि पाप हमेशा संताप लेकर आता है।
अच्छा ये बताओ किसी को फूल माला पहनाकर जनसमूह लिए चला आ रहा हो तो तुम क्या कहोगी, यही न कि जरूर इसने कुछ बहुत अच्छा किया इसलिए इसका स्वागत हो रहा है।
इसी तरह यदि जनसमूह किसी एक व्यक्ति को अपमानित कर रहा है, तो तुम यही कहोगी न कि जरूर इसने कुछ बुरा किया होगा।
जब उपरोक्त परिस्थिति में सही समझ से सोच सकते है, तो यदि हमारे साथ कुछ अच्छा हुआ तो पूर्व जन्म का फ़ल, कुछ बुरा हुआ तो भी पूर्व जन्म का फल क्यों नहीं मान लेते। समस्या के समाधान में स्वस्थ चित्त से जुट जाते हैं। जन्म मृत्यु विधाता को ही हैंडल करने देते है, हम तो प्रत्येक पल में जीवन को जोड़ने में जुटते है। प्रत्येक पल को हज़ार गुना आनन्द के साथ मनाते है।
कुल मिलाकर संक्षेप में यह समझो कि *भगवान जब स्वयं कर्मफ़ल से बंधा है तो भला उसका भक्त कर्मफ़ल से कैसे मुक्त हो सकेगा। भक्त हो या भगवान, सन्त गुरु हो या सच्चा शिष्य अपने अपने कर्मफ़ल और प्रारब्ध सबको स्वयं झेलने पड़ते है। गुरु और भगवान केवल साथ मे पीड़ा बंटाता है और दुःख और कष्ट की घड़ी में भक्त को सम्हालता है, उसे मन से कभी टूटने नहीं देता। उसके साथ साथ उसकी पीड़ा बंटाता रहता है।*
🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन
उत्तर - बहन, अध्यात्म बड़ा जटिल और गूढ़ रहस्यों से भरा सफर है, जो आसान बुद्धि से परोक्ष बुद्धि से परे की चीज़ है।
जन्म हमें दो प्रकार से मिलता है एक भोग शरीर और दूसरा प्रायश्चित शरीर, भोग वाले शरीर मे तो नॉर्मल आधी व्याधि होती है, लेकिन प्रायश्चित शरीर के रोग डॉक्टर नहीं पकड़ सकते हैं क्योंकि जो दिख रहा है वास्तव में वो रोग ही नहीं है, मनोशारीरिक प्रायश्चित विधिव्यवस्था है।
उदाहरण - ठाकुर रामकृष्ण और विवेकानन्द जी, दोनों रिद्धि सिद्धि से भरे हुए थे जनकल्याण करते थे।
ठाकुर को गले का कैंसर था और विवेकानन्द जी को 31 बीमारी थी।
श्रद्धेय डॉक्टर साहब बहुत सारे एक्सीडेंट और ऑपरेशन से गुजर चुके हैं।
सन्त और भगवान जिनके आशीर्वाद से लोगों का कष्ट छू मन्तर हो जाता है, उनके जीवन में उपजे कष्टों को देखकर आश्चर्य नहीं होता कि ऐसा क्यों?
अहिल्या का चरण से स्पर्श कर उद्धार करने वाला, न जाने कितनों का उद्धार करने वाला, स्वयं के पुत्रो के जन्म का साक्षी न बन सका और सीता जी के वियोग में ही जीवन बीता।
महावीर स्वामी को तब तक निर्वाण नहीं मिला जबतक कि ग्वाले ने आकर उनके कानों में खूंटी गाड़कर रक्त न बहा दिया हो।
भगवान कृष्ण की मृत्यु चरवाहे के तीर से हुआ, तो राम जी को जल समाधि लेनी पड़ी। भगवान लक्ष्मण के शरीर को चिता भी नसीब नही हुई उसे चील कौवे ने खाया। भगवान कृष्ण के आंखों के समक्ष समस्त यादवकुल लड़कर नष्ट हो गया।
भगवान के किस अवतार का जीवन सुखमय था? ज़रा रामायण, महाभारत और अन्य धर्म ग्रन्थ पढ़कर देखो। दुःख और कष्टों से भरा जीवन, लेकिन इन कठिनाइयों को पार करते हुए भी महानता की चरम सीमा पर पहुंचे। निजी लाइफ़ में भले असफल हो लेकिन लोककल्याण में सर्वस्व लगा दिया। इसलिये देवता-भगवान कहलाये, क्योंकि वो सद्गुणों और सत्कर्मो का समुच्चय थे।
फ़िर प्रश्न उठता है धार्मिक क्यों बने और अध्यात्म क्यों चुने जब दर्द सहना ही है। प्रारब्ध भुगतना ही है तो....
यहां एक बात समझ लें .....वास्तव में अध्यात्म संकट पूर्ण नहीं टालता, बल्कि प्रारब्ध को भोगना ही पड़ता है। अध्यात्म केवल संकट में धर्मी को सम्हालता है। भगवान राम की तरह मर्यादित रखता है, भगवान कृष्ण की तरह कुशलता देता है, भगवान बुद्ध की तरह कष्ट में भी स्थिर बुद्धि देता है और भगवान शंकर की तरह उदार चरित्र बनाता है जो लोककल्याण के लिए विष पीने से भी पीछे नहीं हटते। धर्म देवता बनाता है।
जानती हो बहन...अग्निपरीक्षा सतीयों को देनी पड़ती है वेश्याओं को नहीं,
उपसर्ग/आरोप सन्तो पर लगते हैं,
डाकुओं को पर नहीं।
कसौटी पर सोने को कसा जाता है लोहे को नहीं...
धर्मी विपन्न रह सकता है खिन्न नहीं। धर्मी का बीमार शरीर हो सकता है, लेकिन कभी बीमार मन औऱ चित्त नहीं होता। महंगा बिस्तर हो न हो, लेकिन चैन ही नींद सोता है।
अधर्मी सम्पन्न रह सकता है अन्तः से प्रशन्न नहीं। अधर्मी का स्वस्थ शरीर हो सकता है, लेकिन कभी स्वस्थ मन औऱ चित्त नहीं होता। महंगा बिस्तर हो सकता है, लेकिन चैन ही नींद कभी नहीं सोता है। क्योंकि पाप हमेशा संताप लेकर आता है।
अच्छा ये बताओ किसी को फूल माला पहनाकर जनसमूह लिए चला आ रहा हो तो तुम क्या कहोगी, यही न कि जरूर इसने कुछ बहुत अच्छा किया इसलिए इसका स्वागत हो रहा है।
इसी तरह यदि जनसमूह किसी एक व्यक्ति को अपमानित कर रहा है, तो तुम यही कहोगी न कि जरूर इसने कुछ बुरा किया होगा।
जब उपरोक्त परिस्थिति में सही समझ से सोच सकते है, तो यदि हमारे साथ कुछ अच्छा हुआ तो पूर्व जन्म का फ़ल, कुछ बुरा हुआ तो भी पूर्व जन्म का फल क्यों नहीं मान लेते। समस्या के समाधान में स्वस्थ चित्त से जुट जाते हैं। जन्म मृत्यु विधाता को ही हैंडल करने देते है, हम तो प्रत्येक पल में जीवन को जोड़ने में जुटते है। प्रत्येक पल को हज़ार गुना आनन्द के साथ मनाते है।
कुल मिलाकर संक्षेप में यह समझो कि *भगवान जब स्वयं कर्मफ़ल से बंधा है तो भला उसका भक्त कर्मफ़ल से कैसे मुक्त हो सकेगा। भक्त हो या भगवान, सन्त गुरु हो या सच्चा शिष्य अपने अपने कर्मफ़ल और प्रारब्ध सबको स्वयं झेलने पड़ते है। गुरु और भगवान केवल साथ मे पीड़ा बंटाता है और दुःख और कष्ट की घड़ी में भक्त को सम्हालता है, उसे मन से कभी टूटने नहीं देता। उसके साथ साथ उसकी पीड़ा बंटाता रहता है।*
🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन
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