Saturday, 4 August 2018

प्रश्न - *जब कॉलेज लाइफ़ में बच्चे आकर्षण में किसी को अपना सबकुछ समझ लें, और उसी के मार्गदर्शन में अपनी दिनचर्या जियें। पढ़ाई में मन न लगाएं और अस्त-व्यस्त जीवन जियें, घर वालों की थोड़ी सी भी डांट-फ़टकार को भी गलत अर्थों में लें, समझाने पर न समझें, तो ऐसे में माता-पिता क्या करें? कैसे बच्चे हैंडल करें? मार्गदर्शन करें..*

प्रश्न - *जब कॉलेज लाइफ़ में बच्चे आकर्षण में किसी को अपना सबकुछ समझ लें, और उसी के मार्गदर्शन में अपनी दिनचर्या जियें। पढ़ाई में मन न लगाएं और अस्त-व्यस्त जीवन जियें, घर वालों की थोड़ी सी भी डांट-फ़टकार को भी गलत अर्थों में लें, समझाने पर न समझें, तो ऐसे में माता-पिता क्या करें? कैसे बच्चे हैंडल करें? मार्गदर्शन करें..*

समाधान - *दिशाहीनता आज के आम युवा की जिन्दगी का सच है*। देश के बहुसंख्यक युवा इस समस्या से घिरे हुए हैं। जीवन की राहों पर उनके पाँव बहकने, भटकने, फिसलने लगे हैं। वे जो कर रहे हैं उसके अंजाम या मंजिल का उन्हें न तो पता है और न ही इसके बारे में उन्हें सोचने की फुरसत है। बस जिज्ञासा, कौतूहल, ख्वाहिश, शौक या फैशन के नाम पर उन्होंने इन टेढ़ी-मेढ़ी राहों को चुना है। या फिर तनाव, हताशा-निराशा या कुण्ठा ने जबरन उन्हें इन रास्तों पर धकेल दिया है। मीडिया, टी.वी., फिल्में, दोस्त, प्रेमी और आसपास का माहौल उन्हें इसके लिए प्रेरित कर रहे हैं। सामाजिक वातावरण इस दिशाहीनता के लिए काफी कुछ हद तक जिम्मेदार है।

चर्चा में सार और समझदारी भरा लाख टके का सवाल यह है कि इस दिशाहीनताके लिए दोषी कौन है? क्या केवल ये युवक- युवतियाँ अथवा वे परिवार और वह समाज जहाँ ये पल- बढ़ रहे हैं। क्या केवल युवा पीढ़ी को कोसकर अपने कर्त्तव्य की इतिश्री कर लेनी चाहिए या फिर समाज को, परिवार को अपने दायित्व निभाने के लिए कमर कसनी चाहिए। जहाँ तक बात अपनी है तो यहाँ यह प्रकट करने में तनिक भी संकोच नहीं कि हम विचारशील कहे जाने वाले सामाजिक माहौल को प्रेरणादायक बनाने में नाकाम रहे हैं। अथवा यदि इस सम्बन्ध में कुछ किया भी गया है तो वह बहुत थोड़ा है।

👉🏼 *खोजें जीवन लक्ष्य, क्योंकि इसके बिना युवावस्था सही राह न खोज पायेगी। यौवन की शक्तियाँ यूँ ही बिखरती-बर्बाद होती रहेंगी। लक्ष्य की खोज न हो पाने पर हर राह भटकाती है।* ओछे आकर्षण और उनींदें सपनों की कोई उमर नहीं होती। जिन्दगी में यदि सार्थकता खोजनी है, युवावस्था की शक्तियों का सही-सार्थक नियोजन करना है तो जीवन लक्ष्य के सही निर्धारण में तत्परता बरतनी चाहिए। जो युवावस्था से गुजर रहे हैं, उनमें से हर एक अनुभव यही कहता है कि वे बहुत कुछ करने में सक्षम हैं। उनके मन के खजाने में इन्द्रधनुषी ख्वाबों की कमी नहीं है। लेकिन इनमें कौन सा ख्वाब है? अपने जोश और दमखम का उपयोग कैसे करें? इसके लिए उन्हें अपने लक्ष्य का पता चाहिए। स्कूल-कॉलेज-दोस्त-मीडिया केवल उन्हीं युवाओं को पथ-भ्रष्ट कर सकता है जो लक्ष्य विहीन जीवन जी रहे हैं, क्या-क्यों-कैसे-कब तक लक्ष्य प्राप्त करना है यह क्लियर नहीं है, कोई जीवन का प्लान नहीं है।

*लक्ष्य कौन बतायेगा? इस सवाल के उत्तर में गीतानायक श्रीकृष्ण कहते हैं-‘उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शन:’(४/२३) इस ज्ञान का उपदेश तत्त्वदर्शी महापुरुष करेंगे।* तत्वदर्शी महापुरुष के प्रत्यक्ष अभाव में यह कार्य उन महापुरुषों की लिखी पुस्तकों के अध्ययन द्वारा सम्भव है।

लोकमान्य तिलक के जीवन प्रसंगों को जिन्होंने पढ़ा है, उन्हें पता है कि अपनी युवावस्था में तिलक की तेजस्विता अपूर्व थी। वह महाबली एवं परम पराक्रमी थे। किन्तु अपनी क्षमताओं के अनुरूप वह सही और व्यापक लक्ष्य नहीं चयन कर पा रहे थे। असमंजस के इन्हीं पलों में उन्हें स्वामी विवेकानन्द की याद आयी, जिनसे वह पहले एक रेलयात्रा के समय मिल चुके थे। अगले कुछ समय बाद जब कांग्रेस के कलकत्ता  अधिवेशन के समय उनका कलकत्ता आना हुआ, तब उन्होंने स्वामी विवेकानन्द से बेलूर मठ में मुलाकात की। स्वामी जी ने अपनी अंतर्दृष्टि से उनके अंतस् की सामर्थ्य को परखा और उन्हें उनके अनुरूप जीवन लक्ष्य सुझाया। तिलक ने भी स्वामी जी के आदेश को शिरोधार्य करते हुए अपनी युवावस्था को इस महत् लक्ष्य के लिए अर्पित कर दिया। लक्ष्य की ओर बढ़ते उनके कदमों ने उन्हें बाल गंगाधर से लोकमान्य बना दिया।

    अपने वर्तमान राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम की जीवन कथा- ‘अग्नि की उड़ान’ जिन्होंने पढ़ी है, उन्हें उनके द्वारा दी गयी देहरादून की परीक्षा में असफलता का प्रसंग याद होगा। इस असफलता से उनका मन खिन्न था और वे अपने जीवन लक्ष्य को खोज नहीं पा रहे थे। तभी उन्होंने ऋषिकेश आकर दिव्य जीवन संघ के स्वामी शिवानन्द से मुलाकात की। इस मुलाकात ने उन्हें न केवल जिन्दगी के आध्यात्मिक रहस्यों की ओर उन्मुख किया, बल्कि सही जीवन लक्ष्य खोजने में भी मदद की।जब तक जीवन में ऐसे अवसर न सुलभ हों, तब तक युवकों को चाहिए कि वे एक डायरी लें और उसके एक पन्ने पर उन बातों को लिखें, जिन्हें वे पाना चाहते हैं, जो उनकी दिली ख्वाहिशें हैं। यह लेखन वरीयता क्रम से हो। दूसरे पृष्ठ में क्रमवार वह सब लिखें; जिसे कर पाने की क्षमता उनमें है। इसे भी वरीयता क्रम में लिखें। इनका परस्पर मिलान करके वे स्वयं की प्रकृति को परखें और अपनी सबसे अंतरंग चाहत को लक्ष्य बनाएँ और अपनी सामर्थ्य को तदनुरूप नियोजित करें। हालाँकि इस प्रक्रिया में कई संदेह उभरने की उम्मीद है। ऐसे में जीवन लक्ष्य की खोज में इस सूत्र को अपना मार्गदर्शक मानें कि जीवन लक्ष्य को सम्पूर्ण, अंतस् की गहराइयों को संतुष्टि देने वाला और दूरगामी सत्परिणाम प्रस्तुत करने वाला होना चाहिए। यह कुछ ऐसा हो जिसे पूरा करने में आंतरिक प्रकृति परिशोधित होती चले और बाहरी परिस्थिति से जूझने की क्षमता निरन्तर बढ़ती जाय। ऐसा हो सके, तो युवाओं में अपने आप ही  संकल्प शक्ति जाग्रत् होने लगती है।  

जो माता-पिता समय रहते अपने बच्चों को साधक बना पाए, नित्य जप-ध्यान-स्वाध्याय से जोड़ पाए उनके बच्चों में भटकाव की संभावना बहुत ही कम होती है। क्योंकि इन माध्यमों से युवा जोश में आवश्यक होश मिलता रहता है।

अपने बच्चों को शान्तिकुंज हरिद्वार या गायत्री तपोभूमि मथुरा के युवा शिविरों में भेजें, उन्हें रोज अच्छी पुस्तको के स्वाध्याय के लिए प्रेरित करें। रोज़ जो बच्चा अच्छी पुस्तक पढ़कर सोएगा वो किसी के बहकावे में नहीं आएगा। माता पिता जो रोज जप-ध्यान के साथ साथ स्वाध्याय अच्छी पुस्तकों के स्वाध्याय रोज करेंगे वो बच्चों को पालने-पोशने और उनका मार्गदर्शन करने में कुशलता प्राप्त करेंगे।

युवावस्था में डांट-फटकार काम नहीं करता, केवल प्यार-आत्मीयता और इमोशनल हैंडलिंग ही प्रभावी होती है।

कुछ साहित्य जो माता-पिता को बच्चे का मनोविज्ञान समझ के उन्हें सही राह पर लाने में मदद करेगा:-

1- युवा क्रांति पथ
2- वर्तमान युवावर्ग और उनकी चुनौतियां
3- हमारी भावी पीढ़ी और उसका नवनिर्माण
4- भाव सम्वेदना की गंगोत्री
5- मित्रभाव बढ़ाने की कला
6- प्रबन्ध व्यवस्था एक विभूति एक कौशल
7- व्यवस्था बुद्धि की गरिमा
8- दृष्टिकोण ठीक रखें
9- अभिभावकों व संतानों के बीच भावनात्मक आदान-प्रदान
10- आपके बच्चे शिष्ट एवं सदाचारी कैसे बनें |
11- किशोरवस्था में दुलार और सुधार की संतुलित नीति अपनायें
12- बालकों का भावनात्मक निर्माण |
13- बच्चों के शासक नहीं सहायक बनें |
14- बच्चों की शिक्षा ही नहीं दिक्षा भी आवश्यक |

समस्या जहाँ है समाधान वहीं है, बच्चा आपको क्यों महत्त्व नहीं दे रहा? बालक पर कोई गैर कैसे प्रभावी हो गया? इस सबके एनालिसिस के लिए बच्चे के पिछले 3 वर्ष के क्रियाकलाप का ध्यानस्थ हो अवलोकन कीजिये...कब और कैसे बच्चे में बदलाव आया?..जड़ पता कीजिये...अर्जुन युद्ध महाभारत में नहीं लड़ना चाहता था यह जनरल वाक्य है लेकिन अंदर की असलियत यह थी कि वो अपनो से अपने बड़े गुरु और पितामह से नहीं लड़ना चाहता था। इसी तरह बच्चा गैर के प्रभाव में भटक गया यह एक जनरल स्टेटमेंट है, असली कारण क्या है क्यों बहका ये पता लगाइए? उसके जीवन मे बर्निंग डिज़ायर/एक दृढ़ लक्ष्य देने में आप माता-पिता के रूप में क्यों विफल हुए? ये पता कीजिये। ध्यान की गहराई में उतरिये स्वयं सद्गुरु अन्तर्मन में आपका मार्गदर्शन करेंगे।

आपके बच्चे के उज्ज्वल भविष्य की हम कामना करते हैं।

🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन

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