प्रश्न - *उच्चकोटि का साधक कैसे बनें? मार्गदर्शन कीजिए*
उत्तर - प्रिय आत्मीय भाई, वैसे तो इस प्रश्न का उत्तर देने योग्य मैं नही हूँ, क्योंकि साधना के समुद्र का एक कंकड़/सीप भी नहीं बन पाई हूँ, फिर भी जो अभी तक पढ़ा और अनुभूत किया है उसके हिसाब से बताती हूँ।
परम् पूज्य गुरुदेव की पुस्तक - *प्रसुप्ति से जागृति की ओर*, *अध्यात्मविद्या का प्रवेश द्वार* और *ईश्वर कौन है? कहाँ है? कैसा है?* इन तीन पुस्तकों को आप जरूर पढ़ें, और इन्ही पुस्तकों के आधार पर कुछ बिंदु आपको बताना चाहती हूँ:-
1- *ईश्वर की साधना में साधना कर्म से ज़्यादा उस साधना कर्म करने के पीछे की भावना वृत्ति/उद्देश्य/motive/intetion पर फ़लाफ़ल निर्भर करता है, साधना की सफ़लता निर्भर करती है।*
उदाहरण तप रावण ने भी किया था और तप भागीरथी ने भी किया था। लेकिन ईश्वरीय दृष्टि में श्रेष्ठ उच्च कोटि के साधक भागीरथी को माना गया, क्योंकि उनकी साधना में जनकल्याण निहित था।
2- *भक्त भगवान का पिता होता है*, भगवान कितनी कलाओं और कितने शक्तिमान रूप में प्रकट होगा- यह भक्त की भक्ति की शक्ति पर निर्भर करता है। जैसे मीरा की भक्ति युवा कृष्ण को नचाती थी, सूरदास की भक्ति से बालक कृष्ण हर पल साथ रहते थे। अर्जुन की भक्ति से विराट स्वरूप कृष्ण जगतगुरु रूप में प्रकटे और गीता ज्ञान दिया।
3- *जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत तिन देखी तैसी*, आपकी भावना के चश्में से भगवान देखे जाते हैं। जैसी भावना वैसी पावना।
4- *निर्मल मन जन सो मोंहि पावा, मोंहि कपट छल छिद्र न भावा* - निर्मल मन के भक्त भगवान को प्राप्त कर पाते हैं। अब हमारे मन कितने मैले है, कितने जन्मों के पापों की लिस्ट है, और कितनी सफ़ाई की आवश्यकता है? यह बता पाना सम्भव नहीं है।
जिस प्रकार बर्तन मांजने के लिए दुनियाँ मे कई कम्पनियों के प्रोडक्ट उपलब्ध हैं, लेकिन साबुन के साथ पानी जरूर चाहिए। केवल साबुन काम नहीं करेगा। इसी तरह विभिन्न साधना पद्धति/अनुष्ठान/साधना कर्म साबुन है, केवल साधना पद्धति कार्य नहीं करेगी, भक्ति भावना-श्रद्धा-विश्वास रूपी जल जरूरी है, मन को मांजने के साथ जल से धोना तो आवश्यक है ही।
5- *यदि कोई आपको ये गारंटी देता है कि केवल उसकी बताई साधना से ही आप उच्च कोटि के साधक बन जाओगे और कोई अन्य साधना पद्धति से भगवान न मिलेंगे, तो मेरे हिसाब से वो झूठ बोल रहा है।* वो कम्पनियों की तरह अपने प्रोडक्ट की मार्केटिंग कर रहा है। भगवान कहीं बाहर नहीं है हम सबके भीतर ही हैं, उन तक पहुंचने के लिए भीतर की ओर यात्रा करनी है, जो कोई भी किसी भी साधना मार्ग से पहुंच सकता है।
तुलसीदास, मीरा बाई, कबीर, रैदास, तुकाराम, राबिया, ईशा, विवेकानन्द जी सबकी साधना पद्धति अलग अलग थी, सब उच्चकोटि के साधक बन परम् तत्व को प्राप्त हुए।
6- *साकार और निराकार साधना पद्धति के बीच में जो लोग अंतर कर लड़ते हैं, वास्तव में वो भी अर्ध ज्ञानी हैं*। निराकार परमात्मा सर्वशक्तिमान है और भक्त के लिए किसी भी रूप में कहीं भी अभिव्यक्त हो सकता है। साकार करो या निराकार उस परम सत्य तक ही पहुंचोगे। जब कण कण में है तो प्रतीक रूप मूर्ति में क्यों न होगा? दूसरी तरफ जिस विराट चेतना को वेद नेति नेति कहते है वो केवल एक मूर्ति में समा जाए केवल उतनी ही है, ये कैसे हो सम्भव हो सकता है?
7- मांडूक्य उपनिषद के एक श्लोक में आत्म तत्व को बड़े अच्छे तरीके से बताया गया है कि हम वास्तव में चार अवस्थाओं में जीते हैं:-
जागृत अवस्था, निद्रा अवस्था, गहरी नींद की अवस्था और तुरीयावस्था।
जागृत और स्वप्न को हम अनुभूत करते हैं, लेकिन गहरी नींद में कुछ अनुभूत नहीं होता। समाधि द्वारा तुरीयावस्था तक पहुंचा जा सकता है।
8- *जब मैं था तब हरि नहीं , अब हरि हैं मैं नाहिं, प्रेम गली अति सांकरी, जा में दो न समाहि।।* , जब कुछ पाने की चाह न बचे, स्वयं को प्रभु का दास मान ले, उसी की सृष्टि में हाथ बटाएं, प्रकति के कणकण से प्रेम करे, उसे कण कण में अनुभूत करें, हर जीव मात्र से प्रेम करें, भाव सम्वेदना और आत्मीयता से भरी यह चेतना की उच्च अवस्था होती है। यह उच्च कोटि के साधक होने की पहचान है।
9- कुल मिलाकर सार संक्षेप में स्वयं को जानने में जुट जाओ कि *मैं क्या हूँ?* या *भगवान क्या है?* दोनों की मंज़िल एक ही है, एक ही परम सत्य तक पहुंचोगे। तप से जनकल्याण करना है या केवल स्वयं का कल्याण करना है। इस पर भी बहुत कुछ निर्भर होगा।
10- परम् पूज्य गुरुदेव ने जो हम सबको राह बताई है वो आत्मकल्याण और लोककल्याण दोनों की है, इसलिए आत्मकल्याण हेतु उपासना-साधना और लोककल्याण हेतु आराधना-सेवा मार्ग अपनाने को प्रेरित किया है। यह मार्ग अत्यंत सुगम है, इस पर चलकर मंजिल मिलना तय है।
🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन
उत्तर - प्रिय आत्मीय भाई, वैसे तो इस प्रश्न का उत्तर देने योग्य मैं नही हूँ, क्योंकि साधना के समुद्र का एक कंकड़/सीप भी नहीं बन पाई हूँ, फिर भी जो अभी तक पढ़ा और अनुभूत किया है उसके हिसाब से बताती हूँ।
परम् पूज्य गुरुदेव की पुस्तक - *प्रसुप्ति से जागृति की ओर*, *अध्यात्मविद्या का प्रवेश द्वार* और *ईश्वर कौन है? कहाँ है? कैसा है?* इन तीन पुस्तकों को आप जरूर पढ़ें, और इन्ही पुस्तकों के आधार पर कुछ बिंदु आपको बताना चाहती हूँ:-
1- *ईश्वर की साधना में साधना कर्म से ज़्यादा उस साधना कर्म करने के पीछे की भावना वृत्ति/उद्देश्य/motive/intetion पर फ़लाफ़ल निर्भर करता है, साधना की सफ़लता निर्भर करती है।*
उदाहरण तप रावण ने भी किया था और तप भागीरथी ने भी किया था। लेकिन ईश्वरीय दृष्टि में श्रेष्ठ उच्च कोटि के साधक भागीरथी को माना गया, क्योंकि उनकी साधना में जनकल्याण निहित था।
2- *भक्त भगवान का पिता होता है*, भगवान कितनी कलाओं और कितने शक्तिमान रूप में प्रकट होगा- यह भक्त की भक्ति की शक्ति पर निर्भर करता है। जैसे मीरा की भक्ति युवा कृष्ण को नचाती थी, सूरदास की भक्ति से बालक कृष्ण हर पल साथ रहते थे। अर्जुन की भक्ति से विराट स्वरूप कृष्ण जगतगुरु रूप में प्रकटे और गीता ज्ञान दिया।
3- *जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत तिन देखी तैसी*, आपकी भावना के चश्में से भगवान देखे जाते हैं। जैसी भावना वैसी पावना।
4- *निर्मल मन जन सो मोंहि पावा, मोंहि कपट छल छिद्र न भावा* - निर्मल मन के भक्त भगवान को प्राप्त कर पाते हैं। अब हमारे मन कितने मैले है, कितने जन्मों के पापों की लिस्ट है, और कितनी सफ़ाई की आवश्यकता है? यह बता पाना सम्भव नहीं है।
जिस प्रकार बर्तन मांजने के लिए दुनियाँ मे कई कम्पनियों के प्रोडक्ट उपलब्ध हैं, लेकिन साबुन के साथ पानी जरूर चाहिए। केवल साबुन काम नहीं करेगा। इसी तरह विभिन्न साधना पद्धति/अनुष्ठान/साधना कर्म साबुन है, केवल साधना पद्धति कार्य नहीं करेगी, भक्ति भावना-श्रद्धा-विश्वास रूपी जल जरूरी है, मन को मांजने के साथ जल से धोना तो आवश्यक है ही।
5- *यदि कोई आपको ये गारंटी देता है कि केवल उसकी बताई साधना से ही आप उच्च कोटि के साधक बन जाओगे और कोई अन्य साधना पद्धति से भगवान न मिलेंगे, तो मेरे हिसाब से वो झूठ बोल रहा है।* वो कम्पनियों की तरह अपने प्रोडक्ट की मार्केटिंग कर रहा है। भगवान कहीं बाहर नहीं है हम सबके भीतर ही हैं, उन तक पहुंचने के लिए भीतर की ओर यात्रा करनी है, जो कोई भी किसी भी साधना मार्ग से पहुंच सकता है।
तुलसीदास, मीरा बाई, कबीर, रैदास, तुकाराम, राबिया, ईशा, विवेकानन्द जी सबकी साधना पद्धति अलग अलग थी, सब उच्चकोटि के साधक बन परम् तत्व को प्राप्त हुए।
6- *साकार और निराकार साधना पद्धति के बीच में जो लोग अंतर कर लड़ते हैं, वास्तव में वो भी अर्ध ज्ञानी हैं*। निराकार परमात्मा सर्वशक्तिमान है और भक्त के लिए किसी भी रूप में कहीं भी अभिव्यक्त हो सकता है। साकार करो या निराकार उस परम सत्य तक ही पहुंचोगे। जब कण कण में है तो प्रतीक रूप मूर्ति में क्यों न होगा? दूसरी तरफ जिस विराट चेतना को वेद नेति नेति कहते है वो केवल एक मूर्ति में समा जाए केवल उतनी ही है, ये कैसे हो सम्भव हो सकता है?
7- मांडूक्य उपनिषद के एक श्लोक में आत्म तत्व को बड़े अच्छे तरीके से बताया गया है कि हम वास्तव में चार अवस्थाओं में जीते हैं:-
जागृत अवस्था, निद्रा अवस्था, गहरी नींद की अवस्था और तुरीयावस्था।
जागृत और स्वप्न को हम अनुभूत करते हैं, लेकिन गहरी नींद में कुछ अनुभूत नहीं होता। समाधि द्वारा तुरीयावस्था तक पहुंचा जा सकता है।
8- *जब मैं था तब हरि नहीं , अब हरि हैं मैं नाहिं, प्रेम गली अति सांकरी, जा में दो न समाहि।।* , जब कुछ पाने की चाह न बचे, स्वयं को प्रभु का दास मान ले, उसी की सृष्टि में हाथ बटाएं, प्रकति के कणकण से प्रेम करे, उसे कण कण में अनुभूत करें, हर जीव मात्र से प्रेम करें, भाव सम्वेदना और आत्मीयता से भरी यह चेतना की उच्च अवस्था होती है। यह उच्च कोटि के साधक होने की पहचान है।
9- कुल मिलाकर सार संक्षेप में स्वयं को जानने में जुट जाओ कि *मैं क्या हूँ?* या *भगवान क्या है?* दोनों की मंज़िल एक ही है, एक ही परम सत्य तक पहुंचोगे। तप से जनकल्याण करना है या केवल स्वयं का कल्याण करना है। इस पर भी बहुत कुछ निर्भर होगा।
10- परम् पूज्य गुरुदेव ने जो हम सबको राह बताई है वो आत्मकल्याण और लोककल्याण दोनों की है, इसलिए आत्मकल्याण हेतु उपासना-साधना और लोककल्याण हेतु आराधना-सेवा मार्ग अपनाने को प्रेरित किया है। यह मार्ग अत्यंत सुगम है, इस पर चलकर मंजिल मिलना तय है।
🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन
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