प्रश्न - *देवताओं को प्रसन्न करने का उपाय - यज्ञ है। यज्ञ से देवता और प्रकृति सन्तुष्ट होकर प्राण पर्जन्य की वर्षा करते हैं। इसकी वैज्ञानिकता पर प्रकाश डालिये।*
उत्तर - आत्मीय बहन, भोजन को जठराग्नि रूपी यज्ञ में आहुत करने से रक्त बनता है, शरीर में प्राण पर्जन्य बढ़ता है। लेकिन क्या विज्ञान ने ऐसा कोई यंत्र बनाया है जिसमें हम भोजन डालें और रक्त बनकर निकल आये? हम यह तो मानते है कि भोजन करने पर रक्त बनता है, लेकिन आधुनिक विज्ञान के पास ऐसा कोई उपकरण नहीं जो भोजन को रक्त में बदल सके।
इसी तरह यज्ञ में आहुत हविष्यान्न सूक्ष्मीकृत होकर देवताओं को तुष्ट करता है और प्राण पर्जन्य की वर्षा होती है। इसे विज्ञान के किसी यंत्र द्वारा नहीं चेक किया जा सकता है।
बात यह है कि देवताओं को हमें उनका हव्य देना है ।। हम हैं स्थूल, पर देवता हैं सूक्ष्म ।। हम उन्हें हव्य देंगे, तो उन्हें कैसे प्राप्त होगा? उन्हें तो सूक्ष्म हव्य चाहिए, तभी वे प्रसन्न होंगे ।। इसका उपाय सोचा गया था 'यज्ञ' ।। इसका दृष्टांत भी समझ लेना चाहिए ।। हमें अपने आत्मा को भोजन भी स्थूल है, पर आत्मा हमारी सूक्ष्म है ।। उसे यह स्थूल भोजन कैसे मिल सकता है? उसे चाहिए सूक्ष्म भोजन ।। उसका उपाय यह सोचा गया था कि हम उस स्थूल भोजन को मुख में द्वारा अपनी जठराग्नि में होम करें ।। ऐसा करने से वह जठराग्नि उस स्थूल भोजन को सूक्ष्म कर देती है ।।
वहीं सूक्ष्म अन्न हमारे आत्मा को प्राप्त हो जाने से वह हमारे शरीर को स्वस्थ रखता है ।। यदि आत्मा को वह स्थूल अन्न न पहुँचाया जायेगा, तो हमारा शरीर, मन, इन्द्रियाँ आदि सभी अस्वस्थ हो जावेंगे ।। फिर हम न अपना कोई लाभ कर सकेंगे, न दूसरों को उपकार । न कुछ बुद्धि द्वारा दूसरों का, न अपना कुछ हित सोच सकेंगे ।जब हम अग्नि में हव्य डालते हैं, तब स्थूल अग्नि उस हवि को सूक्ष्म कर देती है और शांन्त होकर स्वं भी सूक्ष्म हो जाती है ।। तब वह सूक्ष्म अग्नि सूक्ष्म महाग्नि के साथ मिलकर उसे सूक्ष्म वायु की सहायता से आकाशाभिमुख आती हुई द्युलोक में पहुँचकर देवों को समर्पण करती है ।। वे देवता उस सूक्ष्म हवि से तृप्त होकर प्रजा के हित के लिये धान्य आदि की उत्पत्ति के लिये यथोचित वृष्टि कर देते हैं ।। जैसे कि मनुस्मृति में कहा गया है और उसी का बीज वेद में मिलता है-
'हविष्यान्तमजरं स्वविदि दिविस्पृशि आहुतं जुष्टमग्नौ'- ऋ.सं. 10/8/88
यहाँ श्री दुर्गाचार्य ने लिखा है- 'हवि पानतंदेवाना च पुरोडाशादि निर्दग्धस्थील भावमग्निता क्रियते ।। स्वः- आदित्यः, यं वेत्ति, यधाऽसौ वेदितव्यः- इति स्वविंद् अग्निः ।। दिविस्पर्शः- द्यामसौ स्पृशति हविरुपनयन् आदित्यम् ।' (निरुक्त 7/25/1)
इससे स्पष्ट हुआ कि जब हम देवताओं को प्रसन्न कर लेंगे, तो वह सम्पूर्ण चराचर स्थावर जङ्गमं पालित रहेगा, क्योंकि सभी का निर्वाह वृष्टि एवं अन्न पर है ।। उन देवताओं को प्रसन्न करने का उपाय है- यज्ञ तो यज्ञ से देवपूजा सिद्ध हुई, अतः यज्ञ का महत्त्व सिद्ध हुआ ।। तुष्ट और सन्तुष्ट देवता प्राण पर्जन्य की वर्षा करते हैं।।
Reference :- यज्ञ का ज्ञान-विज्ञान पृ.2.50-61
🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन
उत्तर - आत्मीय बहन, भोजन को जठराग्नि रूपी यज्ञ में आहुत करने से रक्त बनता है, शरीर में प्राण पर्जन्य बढ़ता है। लेकिन क्या विज्ञान ने ऐसा कोई यंत्र बनाया है जिसमें हम भोजन डालें और रक्त बनकर निकल आये? हम यह तो मानते है कि भोजन करने पर रक्त बनता है, लेकिन आधुनिक विज्ञान के पास ऐसा कोई उपकरण नहीं जो भोजन को रक्त में बदल सके।
इसी तरह यज्ञ में आहुत हविष्यान्न सूक्ष्मीकृत होकर देवताओं को तुष्ट करता है और प्राण पर्जन्य की वर्षा होती है। इसे विज्ञान के किसी यंत्र द्वारा नहीं चेक किया जा सकता है।
बात यह है कि देवताओं को हमें उनका हव्य देना है ।। हम हैं स्थूल, पर देवता हैं सूक्ष्म ।। हम उन्हें हव्य देंगे, तो उन्हें कैसे प्राप्त होगा? उन्हें तो सूक्ष्म हव्य चाहिए, तभी वे प्रसन्न होंगे ।। इसका उपाय सोचा गया था 'यज्ञ' ।। इसका दृष्टांत भी समझ लेना चाहिए ।। हमें अपने आत्मा को भोजन भी स्थूल है, पर आत्मा हमारी सूक्ष्म है ।। उसे यह स्थूल भोजन कैसे मिल सकता है? उसे चाहिए सूक्ष्म भोजन ।। उसका उपाय यह सोचा गया था कि हम उस स्थूल भोजन को मुख में द्वारा अपनी जठराग्नि में होम करें ।। ऐसा करने से वह जठराग्नि उस स्थूल भोजन को सूक्ष्म कर देती है ।।
वहीं सूक्ष्म अन्न हमारे आत्मा को प्राप्त हो जाने से वह हमारे शरीर को स्वस्थ रखता है ।। यदि आत्मा को वह स्थूल अन्न न पहुँचाया जायेगा, तो हमारा शरीर, मन, इन्द्रियाँ आदि सभी अस्वस्थ हो जावेंगे ।। फिर हम न अपना कोई लाभ कर सकेंगे, न दूसरों को उपकार । न कुछ बुद्धि द्वारा दूसरों का, न अपना कुछ हित सोच सकेंगे ।जब हम अग्नि में हव्य डालते हैं, तब स्थूल अग्नि उस हवि को सूक्ष्म कर देती है और शांन्त होकर स्वं भी सूक्ष्म हो जाती है ।। तब वह सूक्ष्म अग्नि सूक्ष्म महाग्नि के साथ मिलकर उसे सूक्ष्म वायु की सहायता से आकाशाभिमुख आती हुई द्युलोक में पहुँचकर देवों को समर्पण करती है ।। वे देवता उस सूक्ष्म हवि से तृप्त होकर प्रजा के हित के लिये धान्य आदि की उत्पत्ति के लिये यथोचित वृष्टि कर देते हैं ।। जैसे कि मनुस्मृति में कहा गया है और उसी का बीज वेद में मिलता है-
'हविष्यान्तमजरं स्वविदि दिविस्पृशि आहुतं जुष्टमग्नौ'- ऋ.सं. 10/8/88
यहाँ श्री दुर्गाचार्य ने लिखा है- 'हवि पानतंदेवाना च पुरोडाशादि निर्दग्धस्थील भावमग्निता क्रियते ।। स्वः- आदित्यः, यं वेत्ति, यधाऽसौ वेदितव्यः- इति स्वविंद् अग्निः ।। दिविस्पर्शः- द्यामसौ स्पृशति हविरुपनयन् आदित्यम् ।' (निरुक्त 7/25/1)
इससे स्पष्ट हुआ कि जब हम देवताओं को प्रसन्न कर लेंगे, तो वह सम्पूर्ण चराचर स्थावर जङ्गमं पालित रहेगा, क्योंकि सभी का निर्वाह वृष्टि एवं अन्न पर है ।। उन देवताओं को प्रसन्न करने का उपाय है- यज्ञ तो यज्ञ से देवपूजा सिद्ध हुई, अतः यज्ञ का महत्त्व सिद्ध हुआ ।। तुष्ट और सन्तुष्ट देवता प्राण पर्जन्य की वर्षा करते हैं।।
Reference :- यज्ञ का ज्ञान-विज्ञान पृ.2.50-61
🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन
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